इमाम हुसैन की पाठशाला में-1
यह सवाल हमेशा उठता रहा है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन और बलिदान का लक्ष्य क्या था?
क्या इमाम हुसैन का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था? या वो इस्लामी समाज में बदलाव लाना चाहते थे? क्या इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम किसी हद तक शांतिप्रेमी रास्ते से अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर सकते थे? इस तरह लोगों की जानें न जातीं और पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान की महिलाओं को बंदी न बनाया जाता? एक पुस्तक है जिसका नाम है इमाम हुसैन की पाठशाला में, दस खंडों पर आधारित इस पुस्तक के तीन खंडों में इन प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं और साथ ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के विभिन्न आयामों की समीक्षा की गई है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा था कि हुसैन मार्गदर्शन का दीपक और निजात की नौका हैं। उनकी जीवन शैली और उनके शिष्टाचार का व्यवहारिक अनुसरण करके इंसान और समाज ख़ुश क़िस्मत बन सकता है। एक दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने बचपन में अपने नाना पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचे। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें देखा तो उनका स्वागत किया और कहा कि हे धरती व आसमानों की शोभा! उबै बिन कअब जो पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों में थे और वहि के रूप में आने वाले संदेश को लिखने का काम करते थे, वह भी वहीं बैठे हुए थे। उन्होंने पूछा कि हे पैग़म्बर क्या आपके अलावा कोई धरती और आकाशों की शोभा है? पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि ईश्वर की सौगंध जिसने मुझे अपना दूत बनाकर भेजा आकाशों में लिखा हुआ है कि हुसैन मार्गदर्शन का दीपक, निजात की नौका और एसे मार्गदर्शक हैं जो कभी भटक नहीं सकते।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वह सही अर्थों में ईश्वर के बंदे थे। वह किसी भी अन्य पदवी से पहले ईश्वर के बंदे थे तथा बंदगी उनके पूरे अस्तित्व, उनकी बातों और कर्मों में सर्वोच्च स्थान रखती थी। वह ईश्वर की प्रसन्नता के अलावा किसी चीज़ के बारे में सोचते ही नहीं थे। उनका उत्साह और संतोष सब कुछ ईश्वर के लिए था। उन्होंने मुआविय के काल में वर्षों बड़े संयम के साथ धर्म की रक्षा की और जब देखा कि ईश्वर की इच्छा यह है कि यज़ीद के विरुद्ध आंदोलन शुरू करें तो वह अपनी जान और अपने प्रिय लोगों को क़ुरबान करने में नहीं हिचकिचाए। उन्होंने कहा कि हे पालनहार! उसे क्या मिला जिसने तुझे खो दिया और उसने क्या खोया जिसने तुझे पा लिया।
उपासना से हार्दिक लगाव के कारण उन्हें अबु अब्दिल्लाह कहा जाता था। बंदगी के इस प्रेम को उन्होंने अपनी जान देकर चरम सीमा पर पहुंचाया। इमाम हुसैन की विशेषताएं नामक पुस्तक में है कि हुसैन इबादत के प्रतीक हैं। ईश्वर के सभी दूतों ने ईश्वर की निष्ठपूर्ण उपासना की है। इमाम हुसैन की बंदगी बड़े विचित्र अंदाज की थी। वह अपना सिर कट जाने के बाद तक ईश्वर की उपासना में लीन रहे और क़ुरआन की तिलावत करते रहे।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने 25 बार पैदाल हज किया। हर रोज़ एक हज़ार रकअत नमाज़ पढ़ते थे। बंदगी और नमाज़ से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का लगाव इतना अधिक था कि आशूर से पहले वाली रात में जब शत्रु की सेना इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ैमों पर हमला कर देना चाहती थी, इमाम हुसैन ने कहा कि इस रात लड़ाई न की जाए बल्कि इसे उपासना में बिताया जाए और दस मोहर्रम के दिन युद्ध हो। इमाम हुसैन और उनके साथियों ने वह पूरी रात उपासना में बिताई। कर्बला की घटना में जैसे जैसे इमाम हुसैन अलेहिस्सलाम पर ग़म का पहाड़ टूट रहा था उनका धैर्य और भी बढ़ता जा रहा था और वह हर साथी की शहादत पर यही कहते थे कि हे पालनहार तेरी इच्छा पर मैं भी राज़ी हूं।
पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद जो गुमराही शुरू हुई वह समय बीतने के साथ साथ बढ़ती गई। उसमान की ख़िलाफ़त के दौर में ही उमवी वंश के लोगों ने शाम की सत्ता हथिया ली थी। शाम की सत्ता इस्लाम के कट्टर दुशमन अबू सुफ़ियान के पुत्र मुआविया को मिल जाने के बाद इस्लामी शिक्षाओं में इस बड़े पैमाने पर बदलाव किया गया कि इस्लाम का केवल नाम ही बाक़ी रह गया और जब यज़ीद ने सत्ता अपने हाथ में ली तो फिर नाम के लिए भी इस्लाम का पालन समाप्त हो गया। यहां तक कि एक बार तो यज़ीद ने हर चीज़ का इंकार करके कहा कि आसमान से कोई ख़बर नहीं आई और न ही कोई वहि नाज़िल हुई।
यज़ीद अपनी सरकार को मज़बूत करने के लिए इस कोशिश में लग गया कि जैसे भी हो इमाम हुसैन से अपनी बैअत करवा ले। बैअत करने का अर्थ यह था कि इमाम हुसैन यज़ीद के हर आदेश पर अमल करने के लिए अपनी तत्परता की घोषणा करते जबकि बैअत उस ख़लीफ़ा की होनी चाहिए जो पैग़म्बरे इस्लाम का वास्तविक उत्तराधिकारी है। अतः यज़ीद जैसे व्यक्ति की बैअत दिखावटी रूप में भी ख़तरनाक थी और इसका अर्थ यज़ीद के पापों और अपराधों पर मुहार लगाने जैसा था। यह बेगुनाहों के जनसंहार और इस्लाम के वैभव के विनाश की कोशिशों पर मुहर लगाना के अर्थ में था। यही कारण है कि जब यज़ीद ने राजगद्दी संभाली और ख़ुद को पैग़म्बरे इस्लमा का उत्तराधिकारी मनवाने की कोशिश की तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की बैअत करने से इंकार कर दिया। इमाम हुसैन के पास यज़ीद के सामने डट जाने और उसकी सरकार को अवैध घोषित करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
इमाम हुसैन का संबंध पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से था। वे पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे थे। उन्होंने अरब जगत के महान कवि फ़रज़दक़ से कहा था कि इन यज़ीदियों ने ईश्वर के अनुसरण को छोड़ दिया है खुल कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और नियमों का उल्लंघ करते हैं, शराब पीते हैं और ग़रीबों का माल लूटते हैं। मैं धर्म की रक्षा के लिए उठ खड़े होने और ईश्वर के मार्ग में जेहाद के लिए सबसे उचित इंसान हूं। यही वजह थी कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और साथ ही इतनी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता के साथ अपना आंदोलन आगे बढ़ाया कि सच्चाई सबके सामने आ जाए और किसी के पास कोई बहाना न रहे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आंदोलन ने अत्याचारियों का वास्तविक चेहरा बेनक़ाब कर दिया और उन्हें रहती दुनिया तक घृणा का पात्र बना दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आदोंलन उनकी शहादत तथा घर के लोगों के क़ैदी बनाए जाने के साथ ही अमर हो गया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन एसे महान इंसानों की याद ताज़ा करता है कि ईश्वर के मार्ग में जिनका बलिदान दूसरों के लिए आदर्श और प्रेरणा है। वह इंसान जिनके लक्ष्य इस दुनिया से बड़े थे और जो महान शिक्षाओं व मूल्यों के लिए संघर्षरत थे। ईमान, वीरता, दृढ़ता और उदारता की दृष्टि से इतिहास के पन्नों की शोभा बढ़ाते हैं। इन इंसानों में से एक हज़रत मुसलिम इब्ने अक़ील हैं। इस महान सिपाही के रूप में वीरता और बलिदान का साक्षात उदाहरण हमारे सामने आ जाता है। कूफ़ा में हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील का युद्ध इमाम हुसैन के महान आंदोलन की भूमिका थी।

सन 60 हिजरी क़मरी में कूफ़ा और बसरा से इमाम हुसैन के पास भारी संख्या में ख़त पहुंचे और लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से आग्रह किया कि यज़ीद के अत्याचार से उन्हें बचाएं। इन पत्रों की संख्या हज़ारों में थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हालात का जायज़ा और लोगों से बैअत लेने के लिए अपने चचेरे भाई मुस्लिम इब्ने अक़ील को दूत बनाकर कूफ़ा भेजा। हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील भी अपार राजनैतिक सूझबूझ और रण कौशल रखते थे साथ ही बड़े धर्मगद्ध व्यक्ति थे। मुस्लिम इब्ने अक़ील अलैहिस्सलाम मक्के से कूफ़ा रवाना हो गए। उस बस्ती की ओर जो अलग अलग विचार रखने वाले एसे लोगों का शहर था। यह ऐसा शहर था। जो कब अचानक अपना मन बदल ले उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता था। कूफ़े में शांति थी लेकिन यह तूफ़ान से पहले की शांति थीं मुस्लिम इब्ने अक़ील का कूफ़ा नगर में भव्य स्वागत हुआ। लोग समूहों में आते थे और मुस्लिम इब्ने अक़ील की बैअत करते थे।
यह माहौल अधिक देर तक जारी नहीं रह सका क्योंकि यज़ीद ने अपनी सत्ता बचाने के लिए उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद जैसे खूंखार व्यक्ति को कूफ़े का गवर्नर बनाकर भेजा और उसे आदेश दिया कि मुस्लिम इब्ने अक़ील को गिरफ़तार करके उनकी हत्या कर दे। उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद ने अपनी धूर्तता से कूफ़ा में वह माहौत पैदा कर दिया कि सारे लोग हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील के पास से हट गए। हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील हानी इब्ने उरवह के घर गए जो कूफ़े के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से गहरी श्रद्धा रखते थे। इब्ने ज़्याद ने उन लोगों को धमकाया जिन्होंने हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील को शरण दी थी। उसने घोषणा कर दी कि जो मुस्लिम इब्ने अक़ील का पता लगा लेगा उसे इनाम मिलेगा।

कूफ़े में इब्ने ज़्याद का आतंक इस तरह फैला कि सारे लोगों ने हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील के लिए अपने दरवाज़े बंद किए। हज़रत मुस्लिम गलियों में भटक रहे थे। इस बीच तौआ नाम की एक महिला ने हज़रत मुस्लिम को शरण दी। वह भी पैग़म्बरे इस्लाम की श्रद्धालु थी। तौआ के पति या बेटे ने इब्ने ज़्याद को बता दिया कि हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील कहां हैं। इब्ने ज़्याद ने बहुत अधिक सैनिक भेजे जिन्होंने तौआ का घर घेर लिया। हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील बाहर आ गए और शत्रु सैनिकों पर टूट पड़े। सैनिक घबराकर पीछे हटने लगे। सैनिकों ने धोखे से हज़रत मुस्लिम को एक गढ़े में गिरा दिया और फिर उन्हें बंदी बना लिया। उन्हें दरबार में ले जाया गया और फिर हज़रत मुस्लिम को शहीद कर दिया गया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को हज़रत मुस्लिम की शहादत की ख़बर मिली तो उन्होंने दुआ की कि हे पालनहार हमें और हमारे चाहने वालों को अपनी कृपा की छाया में शरण दे।