इमाम हुसैन (अ) का चेहलुम
करबला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके 72 साथियों की शहादत के चालीसवें दिन को अरबईन या चेहलुम कहा जाता है।
करबला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके 72 साथियों की शहादत के चालीसवें दिन को अरबईन या चेहलुम कहा जाता है। इस दुखद अवसर पर पूरे विश्व में विशेषकर इराक़ के पवित्र नगर करबला में व्यापक स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन होता है जिसमें केवल इराक़ से ही नहीं बल्कि विश्व के बहुत से देशों से लाखों श्रद्धालु करबला पहुंच कर करबला के शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
इतिहास में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी वे पहले श्रद्धालु थे जिन्होंने करबला में इमाम हुसैन और उनके निष्ठावान साथियों की क़ब्रों की ज़ियारत की थी। इसी प्रकार यह भी इतिहास से पता चलता है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजनों का वह क़ाफ़ेला, जिसे बंदी बनाकर शाम ले जाया गया था, मदीना वापसी में आज ही दिन करबला पहुंचा था।
इतिहास के अनुसार 20 सफ़र सन 61 हिजरी क़मरी को इमाम हुसैन और उनके साथियों को करबला में शहीद हुए 40 दिन गुज़र चुके थे। शाम में क़ैद इमाम हुसैन के परिजनों का कारवां, मदीने जाते समय करबला में ठहरा था। करबला पहुंचते ही उन लोगों के सामने 10 मुहर्रम या आशूर के दिन के दृष्य जीवित हो गए। उस घटना को याद करके कारवां के लोग रोने लगे जिससे करबला में कोहराम मच गया। कारवां के सरदार और इमाम हुसैन के सुपुत्र इमाम सज्जाद अपने पिता, चाचा, भाइयों और अपने पिता के साथियों की शहादत को याद करके काफ़ी देर रोते रहे। बाद में उनकी फुफी हज़रत ज़ैनब ने आकर उनको शांत किया।
अपने भतीजे को समझाते हुए हज़रत ज़ैनब ने कहा कि बेटा दुखी न हो। ईश्वर ने एक गुट से यह वचन लिया है कि वह हमारे उन परिजनों को दफ़्न करेगा जो करबला में शहीद हुए हैं। उन्होंने कहा कि वे लोग हमारे परिजनों की क़ब्रों पर ऐसे निशान लगा देंगे जो समय व्यतीत होने के साथ कभी नष्ट नहीं होंगे। हालांकि अत्याचारी, उनको मिटाने के हर संभव प्रयास करेंगे किंतु उन्हें अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिलेगी और इमाम हुसैन का नाम, दिन-प्रतिदिन चारों ओर फैलता जाएगा। इतिहास में मिलता है कि इमाम हुसैन के परिजनों का यह कारवां, तीन दिनों तक करबला में रुका था। इस दौरान कारवां वालों ने करबला में शोक सभाएं कीं और अपने परिजनों को याद किया। इसके बाद वे लोग करबला से मदीने गए।
अगर हम ग़ौर करें तो पता चलेगा कि अरबईन या चेहलुम, करबला के आन्दोलन के बारे में सोच-विचार करने का बहुत महत्वपूर्ण अवसर है। हालांकि करबला की घटना को घटे शताब्दियों का समय हो चुका है किंतु इसके संदेश सदैव बाक़ी रहेंगे। इसका मुख्य कारण यह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन में बहुत से मानवीय और नैतिक आयाम हैं। यही कारण है कि उसकी याद कभी पुरानी नहीं होगी। इमाम हुसैन ने उसी मार्ग पर चलते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी जिसपर अन्य ईश्वरीय दूत चले थे। अत्याचार और भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष, आदिकाल से जारी है। ईश्वरीय दूत और महापुरूष इस मार्ग पर सदैव आगे बढ़ते देखे गए हैं। एक महान व्यक्तित्व के रूप में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जब इस बात का आभास किया कि समाज को मूलभूत सुधार की आवश्यकता है तो फिर उन्होंने चुप बैठे रहने को पाप समझा। समाज से बुराइयों को दूर करने के लिए वे उठ खड़े हुए।
ईश्वरीय परंपरा के अनुसार संसार, उच्च मानवीय मूल्यों तथा न्याय को फैलाने का स्थान है। यदि कुछ लोग या कोई गुट जब इसके विपरीत कार्य करता है अर्थात बुराइयों को आम करने लगता है तो महापुरूषों के लिए इसका सहन करना कठिन हो जाता है। महान लोग इस प्रकार के वातावरण को सहन ही नहीं कर पाते और उससे मुक़ाबले के लिए उठ खड़े होते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी अपने समय में पाई जाने वाली बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ ऐसा ही क़दम उठाया था।
यह एक वास्तविकता है कि लोगों की अज्ञानता का दुरूपयोग करते हुए अत्याचारी, उनको पथभ्रष्ट करते हैं और उन्हें अपनी ग़लत बातें मनवाने के लिए बाध्य करते हैं। बनी उमय्या के शासक भी अपने काल के लोगों की अज्ञानता का दुरुपयोग करते हुए उनपर अत्याचार किया करते थे। इन शासकों ने इस्लामी शिक्षाओं को सही ढंग से लोगों तक पहुंचने नहीं दिया। वे केवल उन बातों को लोगों में फैलवाया करते थे जो उनके हित में हुआ करती थी। इमाम हुसैन ने इन बातों का आभास करते हुए लोगों को वास्तविकता से अवगत कराने के प्रयास तेज़ कर दिये। वे नहीं चाहते थे कि इस्लाम के नाम पर भ्रष्ट लोग शासन करते हुए लोगों को पथभ्रष्ट करें। इमाम हुसैन ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि बहुत से लोगों के निकट धर्म उस समय तक महत्व रखता है जबतक वह उनके हितों से नहीं टकराता किंतु जब धर्म और निजी हितों में टकराव पैदा होता है तो ऐसे में धर्म के वास्तविक मानने वालों की संख्या बहुत कम हो जाती है।
बनी उमय्या ने अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए धर्म का खुलकर दुरूपयोग किया। उसने धर्म की आत्मा को छोड़ दिया अर्थात मूल धर्म को एक किनारे डाल दिया। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम का कथन है। वे कहते हैं कि लोगो! तुम्हारे बीच एक गुट पैदा होगा जिनकी नमाज़ों और जिनके रोज़ों को देखकर तुम्हें अपनी इबादततें बहुत तुच्छ लगेंगी। वे क़ुरआन तो पढ़ेगे किंतु ज़बान से अर्थात उनका क़ुरआन केवल मौखिक होगा व्यवहारिक नहीं होगा। यह लोग उसी प्रकार धर्म से निकल चुके होंगे जिस प्रकार तीर, धनुष से निकल जाता है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहना था कि धर्म, ईश्वरीय नियमों के अनुसरण के साथ ही अर्थपूर्ण होता है। उनका मानना था कि यदि कोई व्यक्ति या समाज, ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की शरण में जाता है तो उसका सर्वनाश सुनिश्चित है। यही कारण है कि वे कहते थे कि इस्लामी जगत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि उसपर कोई अत्याचारी तानाशाह शासन करे। इमाम हुसैन का कहना था कि माविया के पुत्र यज़ीद को मुसलमानों पर शासन करने का अधिकार नहीं है क्योंकि वह इस्लामी शिक्षाओं से बहुत दूर है। मुसलमानों को सचेत करने के साथ ही उन्होंने लोगों को अच्छाइयों का निमंत्रण दिया और उन्हे बुराइयों से रोकना आरंभ कर दिया। इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपने समय के पूरे इस्लामी समाज के सुधार का बीड़ा उठाया और इसी मार्ग में वे शहीद हो गए। इमाम हुसैन की शहादत के बाद तत्कालीन मुस्लिम समाज को गहरा आधात लगा। उसकी अंतर्रात्मा, जो अज्ञानता और भय से सो चुकी थी इस घटना से जागृत हुई। यही कारण है कि बहुत से वे लोग, जिन्होंने इमाम हुसैन के आन्दोलन में उनकी सहायता नहीं की थी, उनकी शहादत के बाद उठ खड़े हुए और उनमें से कुछ ने अत्याचारी शासकों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह भी आरंभ किया। करबला की घटना के परिणामों के बारे में एक महान इतिहासकार इब्ने ख़लदून लिखते हैं कि करबला की घटना के बाद बनी उमय्या के शासकों के प्रति लोगों के मन में घृणा उत्पन्न हुई। बहुत से लोग इस बात से पछता रहे थे कि क्यों उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन की सहायता नहीं की? उनकी शहादत के बाद इस्लामी समाज में जागृति की एक लहर दौड़ गई। तव्वाबीन और मुख़्तार जैसे आन्दोलनों की भूमिका भी ऐसे ही वातावरण में प्रशस्त हुई।
यहां पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि इमाम हुसैन का आन्दोलन उन नियमों पर आधारित था जो केवल उस समय से विशेष नहीं थे। इमाम हुसैन की शिक्षाएं सदैव के लिए हैं जिनसे हर काल में लाभ उठाया जा सकता है। रणक्षेत्र में भी इमाम हुसैन लोगों का मार्ग दर्शन करते और उन्हें अच्छे कामों के लिए प्रेरित किया करते थे। यदि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भौतिक एवं निजी हितों को साधने के लिए अपना आन्दोलन आरंभ किया होता तो यह अबतक समाप्त हो चुका होता किंतु करबला के आन्दोलन का आजतक बाक़ी रहना यह बताता है कि यह उच्च मानवीय मूल्यों पर आधारित था।