क्या अमेरिकी यूनिवर्सिटियाँ ट्रंप सरकार का राजनीतिक हथियार बन गई हैं?
पार्स टूडे – कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों में शामिल 65 से अधिक छात्रों को निलंबित कर दिया है। यह घटना एक बार फिर पश्चिमी देशों में अकादमिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और सरकारी दबाव के बीच तनाव को उजागर करती है।
यूनिवर्सिटी ने 65 छात्रों को अस्थायी रूप से निलंबित किया है, जबकि 33 अन्य (जिनमें कुछ स्नातक छात्र भी शामिल हैं) को परिसर में प्रवेश से रोक दिया गया है। इसके अलावा, 80 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। पार्स टूडे की रिपोर्ट के अनुसार, यह क़दम सिर्फ एक प्रदर्शन की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था पर बढ़ते राजनीतिक दबाव का नतीजा है।
यह प्रदर्शन इज़राइल की गाज़ा नीतियों के खिलाफ़ कोलंबिया यूनिवर्सिटी की "बटलर लाइब्रेरी" में हुआ था। न्यूयॉर्क पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, यूनिवर्सिटी प्रशासन ने यह फैसला इज़राइल समर्थक गुटों, सरकारी एजेंसियों और मीडिया के दबाव में लिया है, जो छात्रों के समर्थन को "इज़राइल-विरोधी" बता रहे हैं।
अमेरिका में छात्र आंदोलन और सरकारी दमन
गाज़ा में फ़िलिस्तीनियों की बढ़ती मौतों और मानवीय संकट के बीच, अमेरिकी यूनिवर्सिटियों में विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए हैं। पिछले कुछ महीनों में, कम से कम तीन बड़े प्रदर्शन हुए हैं:
26 अप्रैल 2025: कोलोराडो की ऑरारिया यूनिवर्सिटी में 40 से ज़्यादा छात्र गिरफ्तार।
17 अप्रैल 2025: UCLA (लॉस एंजेलिस) में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के तंबू हटाए और 50 लोगों को गिरफ्तार किया।
अमेरिकी छात्रों के फ़िलिस्तीन समर्थक रुख से नाराज़ डोनाल्ड ट्रंप ने कई यूनिवर्सिटियों को फंड कटौती की धमकी दी और तीन प्रमुख संस्थानों का बजट रोक दिया। इसके जवाब में 100 से अधिक यूनिवर्सिटी प्रमुखों ने एक संयुक्त बयान जारी कर सरकार की तरफ़ से "अकादमिक स्वतंत्रता में दखल" की निंदा की।
अमेरिकी यूनिवर्सिटियाँ लंबे समय से "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" और "खुले विचार-विमर्श" का दावा करती आई हैं। लेकिन फिलिस्तीन समर्थक छात्रों के निलंबन और गिरफ्तारियों से साफ़ है कि राजनीतिक दबाव के आगे ये मूल्य झुक गए हैं। जिस देश ने हमेशा दूसरों की "अभिव्यक्ति पर रोक" के लिए आलोचना की, आज वही अपने छात्रों को सिस्टमैटिक तरीक़े से दबा रहा है।
अगर यही रवैया जारी रहा, तो अमेरिकी यूनिवर्सिटियाँ "विचारों के मुक्त आदान-प्रदान" के बजाय "नियंत्रित और सेंसरशिप वाले प्लेटफॉर्म" बनकर रह जाएँगी। इसके दीर्घकालिक नतीजे होंगे:
- छात्रों का शिक्षा व्यवस्था से मोहभंग।
- प्रतिभाशाली छात्रों का दूसरे देशों में पलायन।
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी शिक्षा की विश्वसनीयता का कमज़ोर होना।
ट्रंप सरकार की दख़लअंदाजी और यूनिवर्सिटियों की चुप्पी साबित करती है कि "आज़ादी के दावे" और "हक़ीक़त" के बीच एक बड़ा फर्क़ है। अमेरिका अब वही कर रहा है, जिसके लिए वह दूसरों को आलोचना करता आया है।