मानव गरिमाः वह्यात्मक दृष्टि में धार्मिक जनतंत्र की आधारशिला
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हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन सुल्ह-मिर्ज़ाई, ईरान की विशेषज्ञ सभा के सदस्य और राजनीतिक फ़िक़्ह के शोधकर्ता
पार्स टुडे – धार्मिक जनतंत्र मानव को एक स्वतंत्र, सर्वांगीण अस्तित्व वाला और असीम क्षमता से युक्त प्राणी मानता है और यही क्षमता सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्रों में वास्तविक सहभागिता की भूमिका तैयार करती है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन सईद सुल्ह-मिर्ज़ाई, ईरान की विशेषज्ञ सभा के सदस्य, ने एक साक्षात्कार में बातचीत में कहा: इस्लामी मानव-दृष्टि धार्मिक जनतंत्र की आधारशिला है और इस्लाम में पश्चिमी मानव-दृष्टि के विपरीत मानव की पहचान वह्यात्मक स्रोतों, अर्थात् क़ुरआन करीम और अहले-बैत (अ.) की रिवायतों के माध्यम से बुद्धि, फ़ित्रत और अनुभव के साथ संभव होती है। ये ज्ञान-स्रोत मानव के बारे में अधिक गहन और पूर्ण समझ प्रस्तुत करते हैं जो पश्चिमी ज्ञान-स्रोतों से भिन्न है।
पार्स टुडे के अनुसार सुल्ह-मिर्ज़ाई ने आगे धार्मिक जनतंत्र के क़ुरआनी आधारों की ओर संकेत करते हुए कहा: अल्लाह फ़रमाता है निस्संदेह हमने मानव को सर्वोत्तम संतुलन में पैदा किया और यह भी हमने तुम्हें धरती में प्रतिनिधि बनाया। ये आयतें मानव की अंतर्निहित गरिमा को दर्शाती हैं। ‘फ़िलिस्तीन’ पुस्तक के लेखक ने आगे कहा कि इमाम ख़ुमैनी (र.) और क्रांति के नेता ने सदैव मानव की सर्वांगीणता और उसकी असीम क्षमता पर ज़ोर दिया है और यही दृष्टि धार्मिक जनतंत्र की नींव रखती है।
इस शिक्षाकेन्द्र के शिक्षक के अनुसार वह्यात्मक दृष्टि से मानव के पास एक अमूर्त आत्मा है जो ईश्वर से जुड़ी है और शरीर व पदार्थ से परे है; उसके सृजन का उद्देश्य पूर्णता और ईश्वरीय निकटता तक पहुँचना है। मानव अपने अस्तित्व में ईश्वरीय नामों और गुणों की प्राप्ति की दिशा में प्रयास करता है सिवाय किब्रिया के गुण के जो केवल ईश्वर के लिए विशिष्ट है। इसलिए इस्लाम में मानव को स्वतंत्र इच्छा प्राप्त है यद्यपि वंशानुक्रम, वातावरण और शिक्षा उसके व्यक्तित्व के निर्माण में प्रभाव डालते हैं, फिर भी उस पर कोई अनिवार्य आचरण थोपे नहीं जाते और उसके पास स्वतंत्र चयन की क्षमता होती है। MM