यूरोप ही नहीं अरब देशों के भी दाइशी आतंकियों के बच्चे और पत्नियां अपने देश लौटें! सही है कि तुर्की इन लोगों के लिए होटल नहीं लेकिन सवाल यह है कि तुर्की ने आतंकियों के लिए अपने दरवाज़े खोले क्यों थे?
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अरब जगत के प्रख्यात टीकाकार अब्दुल बारी अतवान का जायज़ाः अधिकतर यूरोपीय देश अपने उन नागरिकों और परिवारों को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं जो दाइश में शामिल हो गए थे।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Nov १५, २०१९ ११:२० Asia/Kolkata
  • यूरोप ही नहीं अरब देशों के भी दाइशी आतंकियों के बच्चे और पत्नियां अपने देश लौटें! सही है कि तुर्की इन लोगों के लिए होटल नहीं लेकिन सवाल यह है कि तुर्की ने आतंकियों के लिए अपने दरवाज़े खोले क्यों थे?

अरब जगत के प्रख्यात टीकाकार अब्दुल बारी अतवान का जायज़ाः अधिकतर यूरोपीय देश अपने उन नागरिकों और परिवारों को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं जो दाइश में शामिल हो गए थे।

कुछ यूरोपीय देशों विशेष रूप से ब्रिटेन और फ़्रांस ने इन तत्वों और उनके बच्चों और पत्नियों की नागरिकता समाप्त कर दी है ताकि उनके पास स्वदेश लौटने का रास्ता न रहे मगर अरब देशों की बात की जाए तो सारे ही अरब देशों ने अपने उन नागरिकों के लिए सारे दरवाज़े बंद कर दिए हैं जो दाइश में शामिल हुए थे। शायद ही इसमें कोई अपवाद मिलेगा।

पहली बात तो यह है कि हम इन सभी लोगों की उनके देशों में वापसी का समर्थन करते हैं जो अपनी सरकारों के प्रोत्साहन पर सीरिया गए थे। यह उस समय की बात है जब उनकी सरकारें सीरियाई सरकार का तख़्ता उलटने के एजेंडे पर काम कर रही थीं, उन्हें इस लक्ष्य के लिए अरबों डालर की रक़म मिली थी।

क्या हम फ़्रेन्ड्रज़ आफ़ सीरिया के नाम से अमरीका द्वारा बनाए गए संगठन को भूल सकते हैं जिसका गठन तुर्की की सरकार विशेष रूप से तत्कालीन तुर्क प्रधानमंत्री अहमद दाऊद ओग़लू के भरपूर समन्वय से हुआ था। इस संगठन में अरब देश भी शामिल थे और यूरोपीय देश भी इसका हिस्सा बन गए थे। इस का पहला सम्मेलन 2012 में ट्यूनीशिया में हुआ था। कम से कम 65 देशों पर आधारित इस संगठन का उद्देश्य सीरियाई सरकार को गिराना था। इसके लिए दुनिया भर से आतंकियों की भर्ती की गई और उन्हें हथियार और प्रशिक्षण देकर सीरिया पहुंचाया गया।

क्या अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने दिन दहाड़े कैमरों के सामने यह स्वीकार नहीं किया कि उनके देश ने इस एजेंडे पर 90 अरब डालर की रक़म ख़र्च की? शायद इससे कई गुना ज़्यादा रक़म सऊदी अरब और क़तर ने ख़र्च की होगी। तत्कालीन क़तरी प्रधानमंत्री शैख़ हमद बिन जसिम ने भी स्वीकार किया था कि उनके देश ने अरबों डालर ख़र्च किए और एक डालर भी अमरीका के साथ समन्वय के बग़ैर सीरिया नहीं भेजा।

यह सारे लड़ाके और उनके परिवार चाहे वह अरब हों, यूरोपीय हों या रूसी हों यह अधिकार रखते हैं कि अपने देशों में वापस जाएं जहां से वह आए थे। उन पर मुक़द्दमा चले और उन्हें सज़ाएं दी जाएं। अलबत्ता हमें उन देशों में इन लोगों पर मुक़द्दमा चलाए जाने पर ज़रूर हैरत होगी जिन्होंने अपने नागरिकों को सीरिया जाने पर प्रोत्साहित किया था।

बस केवल कल्पना कीजिए कि अगर सीरिया में बश्शार असद की सरकार गिर गई होती तो क्या होता? क्या यही आतंकी उस समय वीर योद्धा न बन जाते? क्या उनकी सरकारें उन्हें हाथों हाथ न लेतीं?

पश्चिमी एजेंडा फ़ेल हो गया, सीरियाई सरकार अपनी जगह मज़बूती से बाक़ी रही। ईरानी, लेबनानी और रूसी घटकों से उसे निर्णायक मदद मिली तो उसने इस भयानक साज़िश को भी नाकाम बनाया और अपनी धरती का अधिकतर भाग वापस ले लिया। अब यही लड़ाके ख़तरनाक आतंकी बन गए हैं और उनके देश भी उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

तुर्क सरकार जिसने इनका मुसकुरा कर स्वागत किया था और उन्हें अपनी धरती से गुज़र कर सीरिया जाने का रास्ता दिया था अब उन्हें यूरोपीय देशों पर दबाव डालने के हथियार के रूप में प्रयोग कर रही है। तुर्की उन्हें उनके देशों को लौटा रहा है चाहे उनकी नागरिकता बाक़ी हो या उनकी सरकारों ने समाप्त कर दी हो। हमने तुर्क गृह मंत्री सुलैमान सुवैलू का बयान सुना कि उनका देश अन्य देशों से आए दाइशी आतंकियों का होटल नहीं है!

ज़रा सोचिए कि हालात किस तरह आज बदल गए?!

यूरोपीय देशों का रवैया नस्लभेदी है। यदि यही आतंकी गोरे होते और मुसलमान न होते तो हम कभी न सुनते कि यूरोपीय सरकारों ने उनकी और उनके बच्चों और पत्नियों की स्वदेश वापसी पर रोक लगा दी है। चूंकि यह लोग गोरे नहीं हैं और मुसलमान हैं इसलिए उनके लिए अब अपने देश में भी कोई जगह नहीं है।

हम ब्रिटेन में रहते हैं। इस देश के बहुत से यहूदियों ने स्वयंसेवी के रूप में इस्राईली सेना का हिस्सा बनने के बाद ग़ज़्ज़ा पट्टी, दक्षिणी लेबनान, सीनाई मरुस्थल और सीरिया में अरबों और फ़िलिस्तीनियों से युद्ध किया और बाद में बड़ी इज़्ज़त के साथ अपने देश लौट आए। किसी ने भी उनकी नागरिकता समाप्त किए जाने की बात नहीं की। ब्लैक वाटर के तहत अन्य देशों में जाकर आतंकी हमले करने वालों की संख्या भी कम नहीं है।

मामला आतंकियों और उनके परिवारों से हमदर्दी जताने का नहीं है मामला यह है कि दोहरा रवैया क्यों अपनाया जा रहा है। हमारी यह बात शायद बहुत से लोगों को अच्छी नहीं लगेगी लेकिन जो सही है वह कहना चाहिए।