टीचर्स-डे
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प्रशिक्षण का मतलब है कि इंसानों और ख़ास तौर पर बच्चों में जो प्रतिभाएं पाई जाती हैं, उन्हें उभारा जाए। प्रतिभा से तात्पर्य वह क्षमताएं हैं, जो हर इंसान के अंदर छिपी हुई होती हैं और जब भी उन्हें बाहर लाने या ज़ाहिर करने का मौक़ा मिलता है, तो वह सामने आ जाती हैं।
(last modified 2025-10-15T12:17:37+00:00 )
May ०१, २०२२ १४:२८ Asia/Kolkata

प्रशिक्षण का मतलब है कि इंसानों और ख़ास तौर पर बच्चों में जो प्रतिभाएं पाई जाती हैं, उन्हें उभारा जाए। प्रतिभा से तात्पर्य वह क्षमताएं हैं, जो हर इंसान के अंदर छिपी हुई होती हैं और जब भी उन्हें बाहर लाने या ज़ाहिर करने का मौक़ा मिलता है, तो वह सामने आ जाती हैं।

प्रशिक्षण या परवरिश का मक़सद भी यही होता है कि इंसानों में जो प्रतिभाएं छिपी हैं, उन्हें सही दिशा दी जाए और सही तरीक़े से सामने लाया जाए। इंसान, परवरिश से ही इंसान बनता है। समस्त ईश्वरीय दूतों, महान धार्मिक हस्तियों और बुज़ुर्गों का भी यही उदेश्य रहा है। ख़ुदा ने अपने दूतों को भेजा, ताकि वे इंसानों की प्रतिभाओं को निखार सकें और उन्हें सही रास्ता दिखा सकें। क्योंकि इसी तरह से इंसान लोक और परलोक में कल्याण प्राप्त कर सकता है।

इंसान के जीवन में ईश्वरीय दूतों की भूमिका एक चमन में माली की तरह होती है। जिस तरह से कि एक माली चमन में मौजूद पौधों को इस तरह से संभालता और संवारता है कि वे अच्छी तरह से फल फूल सकें, बिल्कुल उसी तरह पैग़म्बर भी प्रशिक्षण और सही मार्गदर्शन के ज़रिए इंसानों में छिपी उनकी प्रतिभाओं को निखारते हैं। यही भूमिका किसी भी समाज में अध्यापक और उस्ताद अदा करते हैं।

इस संदर्भ में ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी का कहना हैः सबसे पहला शिक्षक ख़ुद ख़ुदा है, जिसने अंधेरे से उजाले की ओर लोगों का मार्गदर्शन किया और ईश्वरीय दूतों और अपने ग्रंथों के ज़रिए लोगों को प्रेम, उत्कृष्टता और भाईचारे का पाठ पढ़ाया। उसके बाद ईश्वरीय दूतों ने इंसानों की परवरिश की ज़िम्मेदारी संभाली, ताकि उनका स्थान जानवरों से ऊपर रहे और वे इंसानियत के स्थान तक पहुंच सकें। उनके बाद शिक्षकों ने इस मिशन को आगे बढ़ाया। इसीलिए कहा जा सकता है कि शिक्षकों का काम, ख़ुदा और पैग़म्बरों वाला काम है।

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इस्लामी संस्कृति में शिक्षक एक बहुत महत्वपूर्ण और ज़िम्मेदारी वाला पेशा है। क्योंकि इस काम का दायरा समाज, राष्ट्र और दुनिया तक फैला हुआ होता है। सूरए की 32वीं आयत में है कि जिस किसी ने ख़ून के बदले के बिना या ज़मीन पर भ्रष्टाचार फैलाने के बिना किसी की हत्या की, तो समझो कि उसने सभी इंसानों की हत्या कर डाली और जिसने किसी की जान बचाई तो समझो उसने सभी इंसानों की जान बचा ली। हालांकि आयत का प्रत्यक्ष अर्थ भौतिक मृत्यु है और जीवन है, लेकिन उससे ज़्यादा अहम आध्यात्मिक जीवन और मृत्यु है। यानी नादानी और अज्ञान से मुक्ति देना इंसान को जीवन देने के समान है।

इस प्रकार, किसी एक शख़्स को शिक्षित बनाना और उसका मार्गदर्शन करना, सभी इंसानों को नया जीवन देने के समान है, और किसी एक शख़्स को गुमराह करना सभी इंसानों को नष्ट करने के समान है। रिवायत में है कि एक शख़्स इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) के पास पहुंचा और उसने अपने पिता के हत्यारे के बारे में उनसे शिकायत की और जवाबी कार्रवाई की मांग की। इमाम सज्जाद (अ) ने उससे पूछा: क्या उस शख़्स ने इंतक़ाम के बदले रक्त धन का भुगतान करने के लिए तुम्हारी सेवा नहीं की? उसने कहा: वह कुछ दिनों के लिए मेरे शिक्षक रहे हैं, लेकिन यह कोई कारण नहीं है कि मैं उससे बदला नहीं लूं। इमाम ने फ़रमायाः क्या कहते हो, सिखाने और मार्गदर्शन करने का महत्व, ख़ून से ज़्यादा है। उसके बाद उस व्यक्ति ने इंतक़ाम लेने का विचार त्याग दिया।

अध्यापक, शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति का कारण बनता है। ज्ञान से इंसान का मूल्य बढ़ता है और उसका बौद्धिक विकास होता है। इसीलिए छात्रों की गर्दन पर अध्यापकों का बड़ा हक़ होता है। वे ख़ुदा की अमानत को गंदगी, बुराईयों और विनाश से बचाते हैं और लोगों का प्रशिक्षण करके उत्कृष्टता तक पहुंचने के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम का कहना थाः ख़ुदा, फ़रिश्ते, ज़मीन पर रहने वाले यहां तक कि चूंटियां और समुद्र में मछलियां, अच्छे अध्यापकों का गुणगान करती हैं। वे अपने शागिर्दों से कहते थे कि अपने शिक्षकों का सम्मान करो और उनके अधिकारों का ख़याल रखो। पैग़म्बरे इस्लाम ने तीन बार फ़रमायाः हे ईश्वर, मेरे उत्तराधिकारियों पर अपनी रहमत भेज। लोगों ने पूछा कि आपके उत्तराधिकारी कौन लोग हैं, उन्होंने फ़रमाया, वे लोग जो मेरी हदीसों और परंपरा को दूसरों तक पहुंचाते हैं और मुसलमानों को उनकी शिक्षा देते हैं।

ईरानी कैलेंडर के उर्दीबहिश्त महीने की 12 तारीख़ को देश में टीचर्स-डे के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में लगभग 40 साल पहले इसी दिन, ईरान के प्रसिद्ध उस्ताद और अध्यापक मुर्तज़ा मुतहरी को गोली मारकर शहीद कर दिया गया था। पूरे ईरान में उनके शागिर्द फैले हुए थे और वे उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के उपदेशों और शिक्षाओं से लाभान्वित करते थे। कुछ आतंकवादी तत्वों को उनके उदार विचार खलते थे और वे उन्हें सहन नहीं कर पाते थे।

शहीद मुतहरी का जन्म उत्तर पूर्वी ईरान के फ़रीमान में वर्ष 1920 में एक धार्मिक एवं विशिष्ट घराने में हुआ था। उनके पारिवारिक वातावरण में पवित्रता एवं सदाचार का बोल बाला था और वे बचपन से ही शिष्टाचारी थे, और दुराचार से दूर रहते थे। उन्होंने तीन वर्ष की उम्र से ही नमाज़ पढ़नी शुरू कर दी थी। बचपन से उनका आचरण उनके उज्जवल भविष्य की ओर संकेत कर रहा था।

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शहीद मुतहरी को क़ुरान एवं इस्लामी शिक्षाओं से असीम प्रेम एवं लगाव था, इसी कारण वे प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद पवित्र नगर मशहद के धार्मिक शिक्षा केन्द्र चले गए। शहीद मुतहरी ने प्रारम्भिक इस्लामी शिक्षा वहीं ग्रहण की और वर्ष 1937 में पवित्र नगर क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में प्रवेश किया। उन्होंने क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में अल्लामा तबातबाई एवं इमाम ख़ुमैनी जैसे दक्ष गुरुओं से शिक्षा ग्रहण की। अधिक बुद्धिमत्ता एवं आश्चर्यजनक प्रतिभा ने शहीद मुतहरी को धार्मिक केन्द्र का विशिष्ट विद्यार्थी बना दिया। उन्होंने क़ुम में इमाम ख़ुमैनी से 12 वर्षों तक नैतिक, दर्शन, रहस्यवाद एवं धर्मशास्त्र जैसे विषयों की शिक्षा प्राप्ति की। शहीद मुतहरी ने शिक्षा के विभिन्न चरणों को इतनी तेज़ी से तय किया कि बहुत ही कम अवधि में वे शिखर पर पहुंच गए और अपने समय के प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गुरुओं में से एक बन गए। धार्मिक केन्द्र में उनकी क्लासों में इस्लामी शिक्षाओं के प्यासे धार्मिक विद्यार्थियों की बहुत भारी संख्या होती थी और उस समय इन क्लासों की चारो ओर चर्चा थी।

सन् 1952 में शहीद मुतहरी ईरान की राजधानी तेहरान चले आए, ताकि यहां व्यापक स्तर पर वैचारिक एवं सांस्कृतिक कार्य अंजाम दे सकें। उन्होंने तेहरान में मदरसों एवं तेहरान विश्वविद्यालय के इस्लामी शिक्षा विभाग में पढ़ाना शुरू किया। ऐतिहासिक, राजनीतिक, नैतिक एवं वैज्ञानिक किताबों और लेखों का प्रकाशन तेहरान में शहीद मुतहरी की अन्य महत्वपूर्ण सक्रियताओं में से एक थी।

शहीद मुतहरी के समस्त मूल्यवान जीवन में उनकी महत्वपूर्ण सेवाओं में पढ़ाने, भाषण देने एवं कई पुस्तकों की रचनाओं के अलावा इस्लाम के मूल सिद्धांतों की व्याख्या है। यह प्रक्रिया वर्ष 1972 से वर्ष 1979 के बीच वामपंथियों के प्रचारों में वृद्धि एवं मुसलमान वामपंथियों के अस्तित्व में आने के बाद से चरम पर पहुंच गई। उस समय शहीद मुतहरी, इमाम ख़ुमैनी के आदेशानुसार सप्ताह में दो दिन क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में पढ़ाने जाते थे और वहां महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण देते थे तथा तेहरान में भी अपने घर एवं अन्य स्थानों पर क्लासों का आयोजन करते थे। वर्ष 1976 में धर्मशास्त्र कॉलेज में एक कम्युनिस्ट प्रोफ़ैसर के साथ वैचारिक वाद विवाद के कारण वे समय पूर्व ही सेवानिवृत्त हो गए। उन्हीं वर्षों में शहीद मुतहरी ने अपने कुछ धर्मगुरु साथियों के साथ मिलकर जामेऐ रूहानियत मुबारिज़ तेहरान नामक संगठन की आधारशीला रखी थी।

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इमाम ख़ुमैनी के निर्वासन के दौरान हालांकि शहीद मुतहरी उनसे टेलीफ़ोन और पत्राचार द्वारा निरंतर संपर्क में रहे, लेकिन सन् 1976 में वे नजफ़े अशरफ़ की यात्रा करने में सफल रहे और वहां उन्होंने इमाम ख़ुमैनी के साथ मुलाक़ात में क्रांति के महत्वपूर्ण मुद्दों एवं धार्मिक शिक्षा केन्द्रों के बारे में विचार विमर्श किया। इस्लामी क्रांति का नया चरण शुरू होने के बाद, शहीद मुतहरी ने ख़ुद को पूर्ण रूप से इस्लामी क्रांति की सेवा में समर्पित कर दिया और फिर क्रांति के समस्त चरणों में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई। इमाम ख़ुमैनी के पैरिस प्रवास के दौरान शहीद मुतहरी वहां गए और क्रांति के महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में उनसे विचार विमर्श किया तथा उसी यात्रा के दौरान इमाम ख़ुमैनी ने उन्हें इस्लामी क्रांति परिषद के गठन की ज़िम्मेदारी सौंपी। इस्लामी क्रांति की सफलता तक शहीद मुतहरी सदैव एक निष्ठावान, सहानुभूति रखने वाले एवं सक्षम सलाहकार के रूप में इमाम ख़ुमैनी की सेवा में रहे।

शहीद मुतहरी शिक्षक, वैज्ञानिक एवं धर्मगुरु होने के साथ-साथ एक विचारक एवं राजनीतिक आंदोलकारी भी थे। इमाम ख़ुमैनी की गिरफ्तारी के विरोध में पांच जून वर्ष 1963 के महान आंदोलन में शहीद मुतहरी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। उस आंदोलन में ईरान के तत्कालीन शासक के विरुद्ध एक ज़बरदस्त भाषण के बाद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। लेकिन, जनता के दबाव के कारण शाही शासन शहीद मुतहरी समेत अन्य धर्मगुरुओं को रिहा करने पर विवश हो गया। जेल से आज़ाद होने के बाद शहीद मुतहरी सामाजिक आवश्यकताओं के विषयों पर पुस्तकें लिखने एवं तेरहान स्थित विभिन्न विश्वविद्यालों तथा महत्वपूर्ण मस्जिदों में भाषण देने में व्यस्त हो गए।

ईरान में इस महान शिक्षक और प्रशिक्षक को श्रद्धांजलि देने के लिए 12 उर्दीबहिश्त को शिक्षक दिवस या टीचर्स-डे के रूप में मनाने का फ़ैसला किया गया था। यह दिवस शिक्षकों के लिए ख़ास महत्त्व रखता है, क्योंकि इस दिन शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किये गए उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित किया जाता है। इसके अलावा इस दिवस को मनाने का एक उद्देश्य, शिक्षकों को उनकी ज़िम्मेदारियों से अवगत कराना है और समाज और राष्ट्र निर्माण में उनके बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें सम्मानित करना है। इस दिन छात्र अपने-अपने तरीक़े से शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं।