क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-922
सूरए ज़ुख़रुफ़, आयतें 49-56
आइए पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 49 और 50 की तिलावत सुनते हैं,
وَقَالُوا يَا أَيُّهَا السَّاحِرُ ادْعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِنْدَكَ إِنَّنَا لَمُهْتَدُونَ (49) فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْهُمُ الْعَذَابَ إِذَا هُمْ يَنْكُثُونَ (50)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और (जब) अज़ाब में गिरफ़तार हुए तो (मूसा से) कहने लगे ऐ जादूगर इस अहद के मुताबिक़ जो तुम्हारे परवरदिगार ने तुमसे किया है हमारे वास्ते दुआ करे। [43:49] (अगर अब की छूटे) तो हम ज़रूर हिदायत पा जाएँगे फिर जब हमने उनसे अज़ाब को हटा दिया तो वह फौरन (अपना) अहद तोड़ बैठे। [43:50]
पिछले कार्यक्रम में फ़िरऔन और उसके साथ रहने वालों की हिदायत के लिए हज़रत मूसा की कोशिशों और उनके सामने पेश किए जाने वाले चमत्कार का उल्लेख किया गया। अब यह आयतें कहती हैं कि वे लोग हज़रत मूसा की दावत पर जो तौहीद और कायनात के पालनहार के आज्ञापालन की दावत थी, तवज्जो नहीं देते थे। लेकिन जब मुसीबत में पड़ गए तो हज़रत मूसा से अनुरोध किया कि उन्हें दुआ करके इस मुसीबत से निजात दिलाएं, वो वादा करते थे कि निजात मिल जाने पर हम ईमान लाएंगे और आपकी कही बात मानेंगे।
रोचक बात यह है कि वे लोग हज़रत मूसा को मदद के लिए पुकार रहे हैं लेकिन उन्हें जादूगर कहकर पुकारते थे। वो समझते थे कि जादूगारों की तरह पैग़म्बर भी हैरत में डाल देने वाले काम करते हैं ताकि कुछ लोगों को अपने पास जमा कर लें। इससे भी ज़ाहिर था कि ईमान लाने के बारे में इन घमंडी लोगों का वादा झूठा था। वो केवल मजबूरी में फंस जाने की वजह से किसी तरह निजात हासिल करना चाहते हैं, उन्हें हिदायत का रास्ता अपनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसीलिए आयत आगे कहती है कि जब हमने उन ज़ालिमों को कठिनाइयों से बाहर निकाला और मुसीबतों का तूफ़ान थम गया तो उन्होंने अपना वादा तोड़ दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
आम इंसान मुसीबत में फंस जाने पर अल्लाह के ख़ास बंदों की शरण लेते हैं ताकि वो उनकी निजात के लिए दुआ करें।
मुसीबत और ख़तरा महसूस होने के समय इंसानों के भीतर अल्लाह की याद जाग जाती है लेकिन जब मुसीबत दूर हो जाती है तो इंसान फिर ग़ाफ़िल हो जाता है और अल्लाह को भूल जाता है।
अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 51 से 53 तक की तिलावत सुनते हैं,
وَنَادَى فِرْعَوْنُ فِي قَوْمِهِ قَالَ يَا قَوْمِ أَلَيْسَ لِي مُلْكُ مِصْرَ وَهَذِهِ الْأَنْهَارُ تَجْرِي مِنْ تَحْتِي أَفَلَا تُبْصِرُونَ (51) أَمْ أَنَا خَيْرٌ مِنْ هَذَا الَّذِي هُوَ مَهِينٌ وَلَا يَكَادُ يُبِينُ (52) فَلَوْلَا أُلْقِيَ عَلَيْهِ أَسْوِرَةٌ مِنْ ذَهَبٍ أَوْ جَاءَ مَعَهُ الْمَلَائِكَةُ مُقْتَرِنِينَ (53)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और फ़िरऔन ने अपने लोगों में पुकार कर कहा ऐ मेरी क़ौम क्या (ये) मुल्क मिस्र हमारा नहीं और (क्या) ये नहरें जो हमारे (शाही महल के) नीचे बह रही हैं (हमारी नहीं) तो क्या तुमको इतना भी नहीं सूझता। [43:51] या (सूझता है कि) मैं इस शख़्स (मूसा) से जो अपमानित किया हुआ आदमी है और (हकलाहट की वजह से) साफ़ गुफ्तगू भी नहीं कर सकता। [43:52] कहीं बहुत बेहतर हूँ अगर ये बेहतर है तो इसके लिए सोने के कंगन (ख़ुदा के हॉ से) क्यों नहीं उतारे गये या उसके साथ फ़रिश्ते जमा होकर आते। [43:53]
फ़िरऔन और उसकी क़ौम ने एक तरफ़ तो हज़रत मूसा के चमत्कार को भी देख लिया था और दूसरी तरफ़ उसे मुसीबत से निजात भी मिल गई थी। इससे लोगों की सोच बदल गई और फ़िरऔन पर लोगों का भरोसा डावांडोल हो गया। मगर इसके बावजूद फ़िरऔन और उसके क़रीबी लोग हज़रत मूसा की दावत स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
फ़िरऔन ने इस मक़सद से कि लोग हज़रत मूसा के चमत्कारों और तर्कसंगत बातों से प्रभावित न हो जाएं लोगों के ज़ेहनों में हज़रत मूसा का प्रभाव बढ़ने का सिलसिला रोकने की कोशिश की। इसलिए उसने हज़रत मूसा को अपमानित करने और अपनी बड़ाई की कोशिश शुरू कर दी। उसने अपनी क़ौम के बीच जाकर कहा कि क्या मिस्र की विशाल धरती मेरी नहीं है? क्या यह नदियां मेरे अख़्तियार में नहीं हैं और मेरे महल और बाग़ों के भीतर से नहीं गुज़रती? मूसा के पास क्या है? उनके पास न तो ठीक से बोल पाने वाली ज़बान है, न उनके साथ कोई फ़रिश्ता है और न ही समाज की बड़ी हस्तियों की तरह उनके पास कोई फ़रशिता है, न उनके पास सुंदर लिबास और वैभवशाली महल हैं। जो कहिए मेरे पास मौजूद है लेकिन मूसा के पास कुछ नहीं है। तो फिर हम क्यों उनके अनुयायी बनें और क्यों उनके बताए रास्ते पर चलेंगें?
नील नदी मिस्र की सारी नदियों की जननी थी और इसका मिस्र के दूर दूर तक के इलाक़ों को आबाद करने और बसाने में बड़ा रोल रहा। यह नदी जो मिस्र के लोगों को पीने का पानी भी देती थी खेती का पानी भी उपलब्ध कराती थी फ़िरऔन के कंट्रोल में थी। इस तरह लोगों का जीवन और रोज़गार सब फ़िरऔन के हाथ में था। उसे लगता था कि वो वाक़ई लोगों का ख़ुदा है उससे भी बड़ा कोई मौजूद है इसका कोई अर्थ और तर्क नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखाः
घमंडी साम्राज्यवादी ताक़तें विवेक और तर्क की पाबंद नहीं होतीं बल्कि दौलत, संपत्ति और शान दबदबे पर नाज़ करती हैं। और इसे अपने सही मार्ग पर होने की दलील के तौर पर पेश करती हैं।
घमंड और दूसरों को पस्त समझना केवल इस बुनियाद पर कि उसका लिबास और ज़ाहिरी रूप और उसके बात करने का एक अंदाज़ सही नहीं है, फ़िरऔनी तरीक़ा है।
जो भी जिस वजह से भी ख़ुद को दूसरों से बेहतर समझे उसके अंदर फ़िरऔनी स्वभाव है चाहे उसके पास फ़िरऔन जितनी दौलत न हो।
अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 54 से 56 तक की तिलावत सुनते हैं,
فَاسْتَخَفَّ قَوْمَهُ فَأَطَاعُوهُ إِنَّهُمْ كَانُوا قَوْمًا فَاسِقِينَ (54) فَلَمَّا آَسَفُونَا انْتَقَمْنَا مِنْهُمْ فَأَغْرَقْنَاهُمْ أَجْمَعِينَ (55) فَجَعَلْنَاهُمْ سَلَفًا وَمَثَلًا لِلْآَخِرِينَ (56)
इन आयतों का अनुवाद हैः
फिर फ़िरऔन ने (बातें बनाकर) अपनी क़ौम की अक़्ल मार दी और वे लोग उसके ताबेदार बन गये बेशक वे लोग बदकार थे ही। [43:54] फिर जब उन लोगों ने हमको झुंझला दिया तो हमने भी उनसे बदला लिया तो हमने उन सब को डुबो दिया। [43:55] फिर हमने उनको गया गुज़रा और पिछलों के वास्ते इबरत बना दिया। [43:56]
फ़िरऔन ने अपनी ताक़त को बहुत विशाल और हज़रत मूसा को बहुत तुच्छ मानकर दरअस्ल अपनी क़ौम को गुमराह किया और उन्हें अक़्ल इस्तेमाल करने का मौक़ा नहीं दिया कि वे हक़ीक़त को समझ पाते। उसने अपनी क़ौम को मूर्ख बनाकर रखा और उनकी आंखों पर दौलत और ताक़त का पर्दा डाल दिया जिसके नतीजे में सब उसके सामने तुच्छ और हल्के हो गए इसलिए चुपचाप उसकी बात मानते गए।
अलबत्ता यह तरीक़ा सारी ज़ालिम ताक़तों का होता है कि वे अपनी अकड़ और वर्चस्व क़ायम रखने के लिए लोगों को मूर्ख बनाती हैं, उन्हें अज्ञानता में रखती हैं और झूठी परम्पराओं को उच्च मूल्यों के स्थान पर रख देती हैं। क्योंकि क़ौमों की जागरूकता और उनकी सोच का विकसित होना इन स्वार्थी और निरंकुश सरकारों के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट होती है।
आज के दौर में भी साम्राज्यवादी ताक़तें मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से क़ौमों की सोच को अपने क़ाबू में करके उसे तथ्यों के मामले में अपनी पसंद के अनुसार ढालने की कोशिश करती हैं ताकि वे पूरी तरह अज्ञानता में रहें और उनका आज्ञापालन करें। वे लोगों को तथ्यों को गहराई से समझने का मौक़ा नहीं देतीं ताकि आसानी से मनमानी कर सकें।
यह बताना भी ज़रूरी है कि फ़िरऔन के युग में आम लोग भी ग़लती करते थे। वे अपने भीतर फैले भ्रष्टाचार की वजह से आसानी से फ़िरऔनी मूल्यों को स्वीकार कर लेते थे और अपनी गुमराही का परवाना ख़ुद लिख देते थे। इसीलिए वे हज़रत मूसा की दावत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते थे।
इन आयतों से हमने सीखाः
भ्रष्ट सिस्टम लोगों को अपमानित समझता है और उन्हें कमज़ोर बनाकर रखता है। ज़ालिम शासनों में लोग चूंकि अपनी पहचान खो चुके होते हैं इसलिए वे ज़ालिमों के सामने समर्पित हो जाते हैं और उनका आज्ञापालन करते हैं।
जो समाज अल्लाह की नाफ़रमानी करता है आख़िरकार उस पर कोई ज़ालिम और वर्चस्ववादी शासक सवार हो जाता है।
कभी अल्लाह का प्रकोप और अज़ाब किसी क़ौम को इसी दुनिया में मिटा देता है और उन्हें दूसरों के लिए इबरत बना देता है।