Jul १४, २०२५ १६:४३ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1008

सूरए हदीद आयतें , 25 से 29

अब हम सूरह हदीद की आयत 25 की तिलावत सुनते हैं:

لَقَدْ أَرْسَلْنَا رُسُلَنَا بِالْبَيِّنَاتِ وَأَنْزَلْنَا مَعَهُمُ الْكِتَابَ وَالْمِيزَانَ لِيَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ وَأَنْزَلْنَا الْحَدِيدَ فِيهِ بَأْسٌ شَدِيدٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَلِيَعْلَمَ اللَّهُ مَنْ يَنْصُرُهُ وَرُسُلَهُ بِالْغَيْبِ إِنَّ اللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٌ (25)

 

इस आयत का अनुवाद इस प्रकार है:

हमने यक़ीनन अपने पैग़म्बरों को स्पष्ट रौशन चमत्कार देकर भेजा और उनके साथ किताब और (इन्साफ़ का) तराज़ू नाज़िल किया ताकि लोग इन्साफ़ पर क़ायम रहें और हम ही ने लोहे को नाज़िल किया जिसके ज़रिए से सख्त लड़ाई और लोगों के बहुत से नफ़े (की बातें) हैं और ताकि ख़ुदा देख ले कि बे देखे भाले ख़ुदा और उसके रसूलों की कौन मदद करता है बेशक ख़ुदा बहुत ज़बरदस्त ग़ालिब है।[57:25]

यह आयत नबूवत और इंसानों को सही रास्ते की तरफ़ हिदायत देने के विषय के बारे में है और कहती है: इतिहास में हमेशा ख़ुदा के पैग़म्बर किताब और मोजज़े (चमत्कार) के साथ भेजे गए ताकि लोग सही और ग़लत रास्ते में फ़र्क़ समझ सकें; एक-दूसरे से इंसाफ़ से पेश आएँ और एक-दूसरे के हक़ अदा करें और ज़ुल्म से बचें।

यह बात स्वाभाविक है कि कुछ लोग ख़ुदा की सीमाओं को पार करते हैं और ज़ुल्म और ज़्यादती के रास्ते पर चल पड़ते हैं। ऐसे लोगों का मुक़ाबला करने के लिए ताक़त और उचित साधनों की ज़रूरत होती है। इंसान की ज़रूरत के औज़ारों की तैयारी में जो तत्व सबसे अहम भूमिका निभाता रहा है, वह लोहा है, जो आज भी दुनिया की सभी फैक्ट्रियों और इंडस्ट्रीज़ के लिए बेहद ज़रूरी है।

पुराने ज़माने में ज़ालिमों और आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए तलवार, ढाल और भाले का इस्तेमाल होता था, और आज के दौर में बंदूक़ें, तोपें और टैंक इस काम के औज़ार हैं। ज़ाहिर है कि ज़ालिमों से मुक़ाबला करने के लिए ऐसे ईमानदार और संघर्षशील लोगों की ज़रूरत होती है जो सच्चाई और ख़ुदा के धर्म के लिए जान देने को तैयार हों।

 

इस आयत से हम ये सीखते हैं:

पैग़म्बर लोगों को अच्छे काम करने और गुनाहों से दूर रहने पर मजबूर नहीं करते थे, बल्कि हक़ और बातिल का पैमाना साफ़ कर देते थे ताकि लोग अपनी मर्ज़ी से सही रास्ता अपनाएँ।

 नबूवत का एक उद्देश्य यह भी है कि समाज में इंसाफ़ क़ायम किया जाए, साथ ही लोगों की तालीम और तरबियत की जाए।

 समाज में इंसाफ़ लागू करने के लिए कभी-कभी ताक़त का इस्तेमाल ज़रूरी होता है, ताकि वे लोग जो इंसाफ़ मानने को तैयार नहीं होते, रोके जा सकें।

 

अब हम सूरह हदीद की आयतें 26 और 27 की तिलावत सुनते हैं:

وَلَقَدْ أَرْسَلْنَا نُوحًا وَإِبْرَاهِيمَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِمَا النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ فَمِنْهُمْ مُهْتَدٍ وَكَثِيرٌ مِنْهُمْ فَاسِقُونَ (26) ثُمَّ قَفَّيْنَا عَلَى آَثَارِهِمْ بِرُسُلِنَا وَقَفَّيْنَا بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ وَآَتَيْنَاهُ الْإِنْجِيلَ وَجَعَلْنَا فِي قُلُوبِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ رَأْفَةً وَرَحْمَةً وَرَهْبَانِيَّةً ابْتَدَعُوهَا مَا كَتَبْنَاهَا عَلَيْهِمْ إِلَّا ابْتِغَاءَ رِضْوَانِ اللَّهِ فَمَا رَعَوْهَا حَقَّ رِعَايَتِهَا فَآَتَيْنَا الَّذِينَ آَمَنُوا مِنْهُمْ أَجْرَهُمْ وَكَثِيرٌ مِنْهُمْ فَاسِقُونَ (27)

इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:

और बेशक हम ही ने नूह और इबराहीम को (पैग़म्बर बनाकर) भेजा और उनकी औलाद में नबूवत और किताब मुक़र्रर की तो उनमें कुछ हिदायत याफ्ता हैं और उन में बहुतेरे बदकार हैं।[57:26] फिर उनके पीछे ही उनके क़दम क़दम अपने और पैग़म्बर भेजे और उनके पीछे मरियम के बेटे ईसा को भेजा और उनको इन्जील अता की और जिन लोगों ने उनकी पैरवी की उनके दिलों में शफ़क़त और मेहरबानी डाल दी और दुनिया से दूरी के रूप में उन लोगों ने ख़ुद एक नयी बात निकाली थी हमने उनको उसका हुक्म नहीं दिया था मगर (उन लोगों ने) ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल करने की ग़रज़ से (यह किया) तो उसको भी जैसा बनाना चाहिए था बना सके तो जो लोग उनमें से ईमान लाए उनको हमने उनका अज्र दिया उनमें के बहुतेरे तो बदकार ही हैं[57:27]

 

पिछली आयत के सिलसिले में यह आयतें बताती हैं कि तमाम बड़े आसमानी पैग़म्बर — जैसे नूह, इब्राहीम, मूसा और ईसा — सबका मक़सद इंसानों को सच्चाई के रास्ते की ओर ले जाना था। लेकिन हर दौर में कुछ लोग ऐसे रहे हैं जिन्होंने इनकी दावत को नहीं माना और ईमान नहीं लाए।

आख़िरी पैग़म्बर जो पैग़म्बरे इस्लाम से पहले आए,  उनमें ईसा थे, जो अपनी उम्मत की हिदायत के लिए इंजील लेकर आए और अपने मानने वालों में मोहब्बत और भाईचारे को फैलाया।

उन्होंने ख़ुदा की ख़ुशी के लिए दुनिया की लज़्ज़तों से दूरी भी अपनाई — हालांकि यह चीज़ खुदा ने उन पर फर्ज़ नहीं की थी। अफ़सोस की बात है कि उनका यह रवैया बाद में रास्ते से भटक गया और जो लोग समाज से अलग-थलग हो गए, उन्हें इसके बुरे नतीजे झेलने पड़े।

 

इन आयतों से हम ये सीखते हैं:

पैग़म्बर सिर्फ़ हिदायत देने वाले होते हैं, किसी को ज़बरदस्ती ईमान लाने पर मजबूर नहीं करते। ईमान लाना या न लाना, लोगों की मर्ज़ी पर होता है।

 नबूवत का सिलसिला हमेशा से चलता रहा है, जब तक कि ख़ुदा के इल्म और हिकमत में नया पैग़म्बर भेजने की ज़रूरत नहीं रही।

 तमाम आसमानी किताबों और पैग़म्बरों पर ईमान लाना और उनका सम्मान करना हर मोमिन की ज़िम्मेदारी है।

 धर्म में बिदअत (नई-नई चीजें जोड़ना) एक बड़ा ख़तरा है — जब लोग अपनी इच्छाओं और रुचियों को "धर्म" का नाम देकर फैलाते हैं।

 

अब हम सूरह हदीद की आयतें 28 और 29 की तिलावत सुनते हैं:

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَآَمِنُوا بِرَسُولِهِ يُؤْتِكُمْ كِفْلَيْنِ مِنْ رَحْمَتِهِ وَيَجْعَلْ لَكُمْ نُورًا تَمْشُونَ بِهِ وَيَغْفِرْ لَكُمْ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ (28) لِئَلَّا يَعْلَمَ أَهْلُ الْكِتَابِ أَلَّا يَقْدِرُونَ عَلَى شَيْءٍ مِنْ فَضْلِ اللَّهِ وَأَنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللَّهِ يُؤْتِيهِ مَنْ يَشَاءُ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ (29)

इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:

ईमान वालो ख़ुदा से डरो और उसके रसूल (मोहम्मद) पर ईमान लाओ तो ख़ुदा तुमको अपनी रहमत के दो हिस्से अज्र अता फ़रमाएगा और तुमको ऐसा नूर इनायत फ़रमाएगा जिस (की रौशनी) में तुम चलोगे और तुमको बख़्श भी देगा और ख़ुदा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है।[57:28] (ये इसलिए कहा जाता है) ताकि अहले किताब ये समझें कि ये मोमिनीन ख़ुदा के फज़्ल ( क़रम) पर कुछ भी क़ुदरत नहीं रखते और ये तो यक़ीनी बात है कि फज़्ल ख़ुदा ही के क़ब्ज़े में है वह जिसको चाहे अता फ़रमाए और ख़ुदा तो बड़े फज़्ल ( क़रम) का मालिक है। [57:29]

पिछली आयतों की कड़ी में ये आयतें मुसलमानों से कहती हैं: सिर्फ़ ज़ाहिरी ईमान पर न रुको, बल्कि सच्चा और गहरा ईमान हासिल करो। ख़ुदा से डरने और उसकी नाफ़रमानी से बचने का तरीक़ा अपनाओ, ताकि दुनिया और आख़ेरत में ख़ुदा की रहमत तुम्हें नसीब हो, और उसका नूर तुम्हारी ज़िंदगी का रास्ता रौशन करे।

इस रास्ते पर चलकर तुम्हारे पिछले गुनाह माफ़ हो जाएंगे और आगे जन्नत की तरफ़ तुम्हारी रहनुमाई की जाएगी।

इस सूरे की आख़िरी आयत कहती है: अगर मुसलमान अल्लाह के रसूल और क़ुरआन की शिक्षाओं पर सही तरह से अमल करें, तो ग़ैर मुसलमानों के दिल में यह भ्रम नहीं रहेगा कि केवल वे ही अपने पैग़म्बर की मान कर निजात पाते हैं और मुसलमान अल्लाह की रहमत से दूर हो गए हैं।

 

इन आयतों से हम ये सीखते हैं:

हमेशा ईमान को परहेज़गारी के साथ मज़बूत करते रहना चाहिए ताकि वह दिल की गहराई में उतर जाए।

एक मोमिन गुनाहों से पूरी तरह पाक नहीं होता, लेकिन अगर उसकी नीयत गुनाहों से बचने की हो और वह तक़वा को अपनाए, तो ख़ुदा उसके गुनाह माफ़ कर देता है।

 दूसरों की आख़ेरत के अंजाम के बारे में फ़ैसला मत करो — कौन जन्नती है, कौन जहन्नमी — क्योंकि ख़ुदा का फ़ज़्ल और रहमत बहुत विस्तृत है और हमारा इल्म सीमित है, हम नीयतों और छुपी बातों को नहीं जानते।