Jul १३, २०२५ १७:२६ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1006

सूरए हदीद आयतें, 16 से 20

आइए सबसे पहले सूरए हदीदद की आयत संख्या 16 और 17 की तिलावत सुनते हैं:

أَلَمْ يَأْنِ لِلَّذِينَ آَمَنُوا أَنْ تَخْشَعَ قُلُوبُهُمْ لِذِكْرِ اللَّهِ وَمَا نَزَلَ مِنَ الْحَقِّ وَلَا يَكُونُوا كَالَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ مِنْ قَبْلُ فَطَالَ عَلَيْهِمُ الْأَمَدُ فَقَسَتْ قُلُوبُهُمْ وَكَثِيرٌ مِنْهُمْ فَاسِقُونَ (16) اعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يُحْيِي الْأَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْآَيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ (17)

 

इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:

क्या ईमान वालों के लिए अभी तक इसका वक़्त नहीं आया कि ख़ुदा की याद और क़ुरान के लिए जो (ख़ुदा की तरफ से) नाज़िल हुआ है उनके दिल नर्म हों और वे उन लोगों जैसे न हो जाएँ जिनको उन से पहले किताब (तौरेत, इन्जील) दी गयी थी तो (जब) एक ज़माना गुज़र गया तो उनके दिल सख़्त हो गए और इनमें से बहुतेरे बदकार हैं [57:16]  जान रखो कि ख़ुदा ही ज़मीन को उसके मरने के बाद ज़िन्दा (आबाद) करता है हमने तुमसे अपनी (क़ुदरत की) निशानियाँ खोल खोल कर बयान कर दी हैं ताकि तुम समझो [57:17]
इन आयतों के अनुसार, ईमान वालों के लिए एक बड़ा ख़तरा है  ग़फ़लत और भुलावे में पड़ जाना। ख़ुदा की याद से ग़फ़लत और उसकी किताब की आयतों को भुला देना। इतिहास में ऐसे बहुत से लोग हुए हैं जिन्होंने शुरुआत में ख़ुदा और उसके रसूल पर ईमान लाया, लेकिन समय के साथ वे दुनिया और दुनियावी कामों में ऐसे डूब गए कि उन्होंने सच्चाई के सामने झुकने की भावना खो दी और उनके दिल ख़ुदा के हुक्मों के सामने पत्थर की तरह सख़्त हो गए।

जबकि ईमान की रूह यही है कि इंसान ख़ुदा और उसकी किताब की आयतों के सामने झुक जाए और वक़्त का गुज़रना कभी भी इंसान को ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल न कर दे। जैसे इस्लाम से पहले की क़ौमों में ऐसा हो चुका है। इसलिए मुसलमानों को इससे सबक़ लेना चाहिए और उन्हें ख़ुदा की किताब और उसकी शिक्षाओं को ज़िंदा रखने में कभी लापरवाही या सुस्ती नहीं करनी चाहिए।

आगे की आयतें एक बड़ी सच्चाई की तरफ़ इशारा करती हैं और कहती हैं: जिस तरह ख़ुदा मुर्दा ज़मीन को बारिश से ज़िंदा करता है, वैसे ही ख़ुदा की याद, और उसकी बातों के सामने झुकना, इंसान के दिल को ज़िंदा और जागरूक करता है; दिल की ज़ंग को साफ़ करता है और उसे रौशनी और रूहानियत बख़्शता है।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

ख़ुदा की याद और क़ुरआन की आयतों की तिलावत इंसान के दिल को नर्म करती है और दिल की सख़्ती से दूर रखती है।

समय का गुज़रना और उम्र का बढ़ना, इंसान को दुनिया से मोहब्बत और ख़ुदा की शिक्षाओं से ग़फ़लत की तरफ़ ले जा सकता है। ख़ुदा की याद से हम इस ख़तरे से बच सकते हैं।

ख़ुदा के नियम सभी इंसानों और क़ौमों के लिए बराबर हैं, इसलिए कोई भी क़ौम,  यहां तक कि मुसलमान भी  अपने लिए कोई ख़ास दर्जा सुरक्षित न समझे।

इंसान का दिल ख़ुदा और उसकी बातों के सामने झुकना चाहिए और इंसान को अपनी अक़्ल से भी ख़ुदा की निशानियों और क़ुदरत में ग़ौर करना चाहिए।

आइए अब  सूरए हदीद की आयत 18 और 19 की तिलावत सुनते हैं:
 

إِنَّ الْمُصَّدِّقِينَ وَالْمُصَّدِّقَاتِ وَأَقْرَضُوا اللَّهَ قَرْضًا حَسَنًا يُضَاعَفُ لَهُمْ وَلَهُمْ أَجْرٌ كَرِيمٌ (18) وَالَّذِينَ آَمَنُوا بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ أُولَئِكَ هُمُ الصِّدِّيقُونَ وَالشُّهَدَاءُ عِنْدَ رَبِّهِمْ لَهُمْ أَجْرُهُمْ وَنُورُهُمْ وَالَّذِينَ كَفَرُوا وَكَذَّبُوا بِآَيَاتِنَا أُولَئِكَ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ (19)

इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:

बेशक ख़ैरात देने वाले मर्द और ख़ैरात देने वाली औरतें और (जो लोग) ख़ुदा की नीयत से ख़ालिस कर्ज़ देते हैं उनको दोगुना (अज्र) दिया जाएगा और उनका बहुत सम्मानित सिला (जन्नत) तो है ही [57:18]  और जो लोग ख़ुदा और उसके रसूलों पर ईमान लाए यही लोग अपने परवरदिगार के नज़दीक सिद्दीक़ीन और शहीदों के दर्जे में होंगे उनके लिए उन्ही (सिद्दीक़ीन और शहीदों) का अज्र और उन्हीं का नूर होगा और जिन लोगों ने कुफ़्र किया और हमारी आयतों को झुठलाया वही लोग जहन्नुमी हैं [57:19]

पिछली आयतों में ख़ुदा पर ईमान और उसके सामने दिल का नर्म होने के बारे में बात की गई,अब इन आयतों में इन दोनों की निशानियाँ और उनके असर बताए गए हैं: ज़रूरतमंदों को दान देना और ख़र्च करना, यह दिखाता है कि इंसान ख़ुदा के सामने झुका हुआ है। जो कुछ इंसान दुनिया में ख़र्च करता है, वह ऐसा है जैसे उसने ख़ुदा को क़र्ज़ दिया हो  और आख़िरत में जब इंसान को ज़रूरत होगी, तो ख़ुदा उस दान को कई गुना करके लौटा देगा।

बिलकुल साफ़ है कि ऐसे ईमान वाले लोग ख़ुदा के नज़दीक बहुत ऊँचा दर्जा रखते हैं  जैसे सच्चे और शहीद लोग रखते हैं  और ख़ुदा उन्हें वैसा ही इनाम देता है जैसा सिद्दीक़ीन और शहीदों को मिलता है। लेकिन जो लोग इन सच्ची बातों को नकारते हैं और उन्हें नहीं मानते, उनके लिए क़यामत में सख़्त सज़ा तय है।

 

इन आयतों से हम ये सीखते हैं:

ज़रूरतमंदों को दान देना, ईमान की निशानी है। ऐसे लोग सिद्दीक़ीन के दर्जे तक पहुँचते हैं, जो अपने ईमान में सच्चे हैं।

ख़ुदा के बंदों की मदद करना  चाहे वह दान या बिना ब्याज के क़र्ज़  की शक्ल में हो, दरअसल ख़ुदा को क़र्ज़ देना है। बाहर से यह माल में कमी लगती है, मगर असल में यह माल को बढ़ाता है।

दुनिया आख़िरी मक़ाम नहीं है, इसलिए लोगों को उनकी दुनियावी ज़िंदगी से मत आँको। असली नतीजा क़यामत के दिन सामने आएगा। अच्छे काम करने वाले अपनी नेकी का इनाम और हमेशा की राहत पाएँगे, और बुरे लोग सज़ा में गिरफ़्तार होंगे।

 

अब आइए सूरए हदीद की आयत 20 की तिलावत सुनते हैं:

اعْلَمُوا أَنَّمَا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا لَعِبٌ وَلَهْوٌ وَزِينَةٌ وَتَفَاخُرٌ بَيْنَكُمْ وَتَكَاثُرٌ فِي الْأَمْوَالِ وَالْأَوْلَادِ كَمَثَلِ غَيْثٍ أَعْجَبَ الْكُفَّارَ نَبَاتُهُ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَاهُ مُصْفَرًّا ثُمَّ يَكُونُ حُطَامًا وَفِي الْآَخِرَةِ عَذَابٌ شَدِيدٌ وَمَغْفِرَةٌ مِنَ اللَّهِ وَرِضْوَانٌ وَمَا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلَّا مَتَاعُ الْغُرُورِ (20)

 

इस आयत का अनुवाद इस प्रकार है:

जान रखो कि दुनियावी ज़िन्दगी महज़ खेल और तमाशा और ज़ाहिरी ज़ीनत (व आसाइश) और आपस में एक दूसरे पर फ़ख्र क़रना और माल और औलाद की एक दूसरे से ज़्यादा ख़्वाहिश है (दुनयावी ज़िन्दगी की मिसाल तो) बारिश की सी मिसाल है जिस (की वजह) से किसानों की खेती (लहलहाती और) उनको ख़ुश कर देती थी फिर सूख जाती है तो तुम उसको देखते हो कि ज़र्द हो जाती है फिर चूर चूर हो जाती है और आख़ेरत में (कुफ्फ़ार के लिए) सख़्त अज़ाब है और (मोमिनों के लिए) ख़ुदा की तरफ़ से बख़्शिश और ख़ुशनूदी है और दुनयावी ज़िन्दगी तो बस फ़रेब का साज़ो सामान है। [57:20]

 

यह आयत इंसान की ज़िंदगी के अलग-अलग दौर की ख़ासियतों को बयान करती है। मतलब यह कि इंसान अपनी उम्र के हर हिस्से में दुनिया की किसी न किसी चमक में उलझा रहता है। बचपन और किशोरावस्था की निशानी खेल और मस्ती है। जवानी में इंसान सजावट और ख़ूबसूरती की फ़िक्र में रहता है। उम्र बढ़ने पर लोग माल-दौलत, ओहदे और अपने अतीत पर घमंड करते हैं। और आख़िरी दौर में, जब ज़िंदगी का अंत क़रीब होता है, तब भी वे लालच और कंजूसी में पड़ जाते हैं और माल जमा करने में और ज़्यादा लगे रहते हैं।

चाहे इंसान की उम्र 60 साल हो या 70, उससे ज़्यादा या कम, वह सरसरी नज़र में उस बीज की तरह है जो बसंत में अंकुरित होता है, फिर हरा-भरा होता है, फिर फल देता है, फिर पीला पड़ता है, और आख़िरकार पतझड़ में पीला पड़ जाता है और सूखकर बिखर जाता है।

 

इस आयत से हम ये सीखते हैं:

दुनिया की हक़ीक़त और उसकी ख़ासियतों को जानना इंसान को ग़फ़लत और गुमराही से बचाता है और उसकी सोच को बदलता है।

दुनिया से ज़्यादा लगाव और मोह इंसान को धोखा देता है और वह घमंड व ग़फ़लत में पड़ जाता है। लेकिन जब इंसान को अपनी ग़लती का एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

एक ज़िंदगी जो ख़ुदा और रूहानियत से ख़ाली हो, वह सिर्फ़ बच्चों का खेल है — चाहे उसके खिलाड़ी बड़े ही क्यों न हों।

हर इंसान को दुनिया से कुछ न कुछ मिलता है, लेकिन असली बात यह है कि वह उन नेमतों का सही इस्तेमाल करे। दुनिया कुछ लोगों के लिए तरक़्क़ी और जन्नत में दाख़िल होने का ज़रिया है, और कुछ के लिए धोखे, घमंड और आख़िरकार जहन्नम में गिरने का रास्ता बन जाती है।