क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-929
सूरए दुख़ान, आयतें 9-18
आइए सबसे पहले सूरए दुख़ान की आयत संख्या 9 से 11 तक की तिलावत सुनते हैं,
بَلْ هُمْ فِي شَكٍّ يَلْعَبُونَ (9) فَارْتَقِبْ يَوْمَ تَأْتِي السَّمَاءُ بِدُخَانٍ مُبِينٍ (10) يَغْشَى النَّاسَ هَذَا عَذَابٌ أَلِيمٌ (11)
इन आयतों का अनुवाद हैः
लेकिन ये लोग तो अपने शक में ही मस्त हैं। [44:9] तो तुम उस दिन का इन्तेज़ार करो कि आसमान से बिल्कुल ज़ाहिर तौर पर धुऑं निकलेगा। [44:10] (और) लोगों को ढाँक लेगा ये दर्दनाक अज़ाब है। [44:11]
पिछले कार्यक्रम में इंसानों के मार्गदर्शन के लिए क़ुरआन नाज़िल होने और पैग़म्बरों के भेजे जाने का उल्लेख किया गया जो दरअस्ल अपने बंदों पर अल्लाह की ख़ास मेहरबानी का चिन्ह है। अब यह आयतें कहती हैं कि कुछ लोग हैं जो हक़ को पहचान और समझ लेने के बावजूद उसे स्वीकार करने पर तैयार नहीं होते बल्कि बार बार अपने मन में भी और दूसरों के मन में भी शंका व संदेह पैदा करते हैं। वो शक और संदेह को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने और यक़ीन की मंज़िल में क़दम रखने के बजाए ख़ुद को इसी शक व संदेह में ही व्यस्त रखते हैं और आसमानी ग्रंथों में बयान किए गए तथ्यों को खिलवाड़ समझते हैं। इसके बाद इन ज़िद्दी और अड़ियल काफ़िरों को चेतावनी दी गई है कि जब अल्लाह के अज़ाब के लक्षण उन्हें दिखाई देंगे और ग़फ़लत की चादर उनकी आंख से हटेगी तब उन्हें अपनी ग़लती का एहसास होगा और उनकी समझ में आएगा कि अल्लाह के पैग़म्बर जो कुछ कहते थे वही सही बात थी, वो निर्रथक पैग़ाम नहीं था।
इन आयतों से हमने सीखाः
संदेह ग़फ़लत में पड़े रहने और बेकार बैठ जाने का बहाना नहीं बनना चाहिए। सबसे बुरी चीज़ यह है कि शक की हालत में इंसान उलझा रहे वरना शक अपनी जगह पर अक़्ल का तक़ाज़ा और इंसान की सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है। इंसान की ज़िम्मेदारी है कि शक होने पर जांच और अध्ययन करके आगे बढ़े।
शंका व संदेह पैदा करने की बातों में मस्त हो जाना धार्मिक आस्थाओं के बारे में संदेह का सबब बनता है। अल्लाह की निशानियों को खिलवाड़ बनाने की बहुत कड़ी सज़ा है।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 12 से 14 तक की तिलावत सुनते हैं,
رَبَّنَا اكْشِفْ عَنَّا الْعَذَابَ إِنَّا مُؤْمِنُونَ (12) أَنَّى لَهُمُ الذِّكْرَى وَقَدْ جَاءَهُمْ رَسُولٌ مُبِينٌ (13) ثُمَّ تَوَلَّوْا عَنْهُ وَقَالُوا مُعَلَّمٌ مَجْنُونٌ (14)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(कुफ्फ़ार भी घबराकर कहेंगे कि) परवरदिगार हमसे अज़ाब को दूर कर दे हम भी ईमान लाते हैं। [44:12] (उस वक्त) भला क्या उनको नसीहत होगी? जबकि उनके पास पैग़म्बर आ चुके जो साफ़ साफ़ बयान कर देते थे। [44:13] इस पर भी उन लोगों ने उससे मुँह फेरा और कहने लगे ये तो सिखाया-पढ़ाया हुआ दीवाना है।[44:14]
स्वाभाविक बात है कि अल्लाह के वजूद का इंकार करने वाले अल्लाह के अज़ाब की निशानियां देख लेने के बाद घबराहट और परेशानी में पड़ जाएंगे और अल्लाह की बारगाह का रुख़ करके कहेंगे कि पालने वाले इस अज़ाब को हमसे दूर कर दे हम ईमान लाएंगे। जबकि यह ईमान डर का नतीजा है जिसका कोई महत्व नहीं होता। दरअस्ल महत्व उस ईमान का है जो अख़्तियार की हालत में लाया जाए और उसमें कोई डर और बाहरी दबाव इंसान पर न हो।
आयतें आगे कहती हैं कि यह बेदारी और वापसी तुम्हें कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाएगी। क्योंकि जब पैग़म्बर चमत्कार और ठोस तर्कों के साथ तुम्हारे पास आए थे तो तुमने उनके निर्देशों का पालन करने के बजाए उससे मुंह मोड़ लिया था। अल्लाह की स्पष्ट शिक्षाओं को किसी और से जोड़ने की कोशिश की और तुम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि यह अल्लाह की वहि और संदेश के ज़रिए आया है और यह सब अल्लाह की बातें हैं।
वो कभी कहते थे कि पैग़म्बर का संपर्क जिन्नातों से है और वही उनको यह चीज़ें सिखाते हैं। कभी कहते थे कि पैग़म्बर ने दूसरों से यह सारी बातें सीखी हैं और दूसरों ने यह बातें उनके मन में डाल दी हैं, और पैग़म्बर कहते हैं कि यह बातें अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई हैं।
इन आयतों से हमने सीखाः
आज जो लोग दीन का खिलवाड़ बनाते हैं एक दिन उनकी आंख खुलेगी, वे ग़फ़लत और संदेह से बाहर आएंगे। वो वापस जाने का तक़ाज़ा करेंगे लेकिन अब यह सब करने का कोई फ़ायदा नहीं होगा।
अल्लाह जब तक काफ़िरों पर हुज्जत तमाम नहीं कर लेता यानी बहानेबाज़ी की हर बुनियाद ख़त्म नहीं कर देता उस समय तक किसी को अज़ाब नहीं देता।
काफ़िर कभी भी पैग़म्बरों की बातों का जवाब नहीं देते थे और उनका तार्किक जवाब नहीं देते थे बल्कि कोशिश करते थे कि झूठे इलज़ाम लगाकर उनका चरित्र हरण किया जाए।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 15 और 16 की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّا كَاشِفُوا الْعَذَابِ قَلِيلًا إِنَّكُمْ عَائِدُونَ (15) يَوْمَ نَبْطِشُ الْبَطْشَةَ الْكُبْرَى إِنَّا مُنْتَقِمُونَ (16)
इन आयतों का अनुवाद हैः
बेशक हम थोड़े दिन के लिए अज़ाब को टाल देते हैं मगर (हम जानते हैं) तुम ज़रूर फिर (कुफ़्र की तरफ़) वापस लौट जाओगे। [44:15] हम बेशक (उनसे) पूरा बदला तो बस उस दिन लेगें जिस दिन सख़्त गिरफ़्त के साथ पकड़ेंगे। [44:16]
काफ़िरों के इस दावे के जवाब में कि हम ईमान लाएंगे यह आयतें कहती हैं कि हम उनसे थोड़ा सा अज़ाब हटाएं तो वे इबरत नहीं लेंगे बल्कि दोबारा कुफ़्र और बुरे कर्मों की तरफ़ लौट जाएंगे और अपने किए पर उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा।
दूसरे शब्दों में इस तरह कहना चाहिए कि अगर अज़ाब में फंस जाने के समय और बुरे कर्मों पर सज़ा दिए जाने के वक़्त वे पछता रहे होंगे और अपने कर्मों पर पुनरविचार का फ़ैसला करेंगे तो यह स्थिति सामयिक होगी। जैसे ही तूफ़ानी हालात शांत होंगे वे अपनी उसी पुरानी शैली पर लौट जाएंगे। इसलिए उनका पछतावा केवल डर का नतीजा है और उसका कोई महत्व नहीं है। इसलिए अगर दुनिया में उनको दी जाने वाली सज़ा में कोई ढील दे दी जाए तो आख़ेरत में कोई ढील नहीं होगी बल्कि बहुत कठोर अज़ाब उनके इंतेज़ार में होगा। क्योंकि अत्याचारियों से अल्लाह नाराज़ होता है और वे अललाह के अज़ाब से बचने वाले नहीं हैं।
इन आयतों से हमने सीखाः
कितने ऐसे मौक़े आए कि अल्लाह ने इसी दुनिया में हमें सज़ा से छूट दे दी लेकिन फिर भी हमने अपने बुरे कर्म छोड़े नहीं बल्कि बड़े अड़ियलपने से वही बुरे काम करते जा रहे हैं।
अल्लाह पैग़म्बरों और मोमेनीन का मददगार है और ज़िद्दी काफ़िरों और ज़ालिमों से उनके ज़ुल्म की वजह से जो उन्होंने पैग़म्बरों और मोमिन बंदों पर किया है इंतेक़ाम लेगा।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 17 और 18 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَقَدْ فَتَنَّا قَبْلَهُمْ قَوْمَ فِرْعَوْنَ وَجَاءَهُمْ رَسُولٌ كَرِيمٌ (17) أَنْ أَدُّوا إِلَيَّ عِبَادَ اللَّهِ إِنِّي لَكُمْ رَسُولٌ أَمِينٌ (18)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और उनसे पहले हमने क़ौमे फिरऔन की आज़माइश की और उनके पास एक अज़ीम पैग़म्बर (मूसा) आए। [44:17] (और कहा) कि ख़ुदा के बन्दों (बनी इस्राईल) को मेरे हवाले कर दो मैं (ख़ुदा की तरफ से) तुम्हारा एक अमानतदार पैग़म्बर हूँ। [44:18]
पिछली आयतों में पैग़म्बर के साथ मक्के के मुशरिकों के बर्ताव का उल्लेख था अब यह आयतें हज़रत मूसा और फ़िरऔन का वाक़या बयान करती हैं। यह बताना ज़रूरी है कि फ़िरऔन की क़ौम के पास ताक़तवर हुकूमत थी और बहुत अधिक संसाधन थे और वो अपनी ताक़त के चरम बिंदु पर थी। मगर इस ताक़त की वजह से वे घमंड में पड़ गए। उन्होंने तरह तरह के अत्याचार शुरू कर दिए।
इन हालात में हज़रत मूसा फ़िरऔन और उसकी क़ौम में पहुंचे। उन्होंने बड़े नर्म लहजे में फ़िरऔन और उसकी क़ौम से कहा कि बनी इस्राईल क़ौम को जिसे तुमने अपना दास और दासी बना रखा है मेरे हवाले कर दो ताकि अल्लाह की शिक्षाओं के अनुसार उनका मार्गदर्शन करें और उन्हें कल्याण की मंज़िल तक पहुंचाएं।
इन आयतों से हमने सीखाः
पैग़म्बरों की पहली ज़िम्मेदारी आम लोगों को अत्याचारी हुक्मरानों और ज़ालिमों के चंगुल से आज़ाद कराना है ताकि उनका शोषण बंद हो। इसीलिए हज़रत मूसा बनी इस्राईल से बात करने से पहले फ़िरऔन के दरबार में गए।
पैग़म्बर बड़े अमानतदार इंसान हैं जिन पर आम लोगों को भरोसा होता है। उनका अच्छा अतीत आम लोगों को इन पैग़म्बरों की दावत और उनका पैग़ाम स्वीकार कर लेने की प्रेरणा देता था।