क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-963
सूरए हुजुरात, आयतें 1 से 5
आइये सबसे पहले सूरए हुजुरात की पहली आयत की तिलावत सुनते हैं,
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تُقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيِ اللَّهِ وَرَسُولِهِ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ (1)
इस आयत का अनुवाद है
अल्लाह के नाम से जो बड़ा रहमान व रहीम है
ऐ ईमान वालो ख़ुदा और उसके रसूल के सामने किसी बात में आगे न बढ़ जाया करो और ख़ुदा से डरते रहो बेशक ख़ुदा बड़ा सुनने वाला ज्ञानी है। [49:1]
यह सूरा ईमान वालों को संबोधित करते हुए कहता है कि ईमान का तक़ाज़ा यह है कि अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहो और उनसे आगे न बढ़ो विशेषकर सामाजिक मामलों में क्योंकि सामाजिक मामलों में लोगों को चाहिये कि वे इस्लामी समाज के नेता के आदेशों का अनुसरण करें और हर प्रकार का आगे बढ़ना इस्लामी समाज की व्यवस्था में विघ्न उत्पन्न होने और लोगों के मध्य फ़ूट पड़ने का कारण बनेगा।
कुछ अतिवादी मुसलमान इस बात की अपेक्षा रखते हैं कि इस्लामी समाज का नेता व मार्गदर्शक उनकी इच्छाओं के अनुसार काम को अंजाम दे या कुछ लोगों व गिरोहों के साथ कड़ा व्यवहार करे या कुछ कार्यों को छोड़ दे। यह उस हालत में है जब इस्लामी समाज का नेता व मार्गदर्शक समाज की हालत व स्थिति को ध्यान में रखकर आमजनमत के हित में फ़ैसला लेता है और उससे इसके अलावा किसी अन्य चीज़ की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये।
इस आयत से हमने सीखा
अल्लाह ने जिन कार्यों को हलाल किया है उन्हें हराम समझना या जिन कार्यों को हराम क़रार दिया है उन्हें हलाल समझना एक प्रकार से अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों से आगे बढ़ जाना है।
इस्लामी समाज के क़ानूनों का आधार अल्लाह की किताब और पैग़म्बरे इस्लाम की सुन्नत व परम्परा होनी चाहिये और क़ुरआन और सुन्नत से हटकर हर प्रकार के क़ानून बनाने का अर्थ अल्लाह और उसके रसूल से आगे बढ़ जाना है।
जो लोग अपनी व्यक्तिगत आदतों या सामाजिक रस्मों व परम्पराओं की वजह से अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों से आगे बढ़ जाते हैं वास्तव में वे ईमान और तक़वे से दूरी कर लेते हैं।
आइये अब सूरए हुजरात की दूसरी और तीसरी आयतों की तिलावत सुनते हैं,
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تَرْفَعُوا أَصْوَاتَكُمْ فَوْقَ صَوْتِ النَّبِيِّ وَلَا تَجْهَرُوا لَهُ بِالْقَوْلِ كَجَهْرِ بَعْضِكُمْ لِبَعْضٍ أَنْ تَحْبَطَ أَعْمَالُكُمْ وَأَنْتُمْ لَا تَشْعُرُونَ (2) إِنَّ الَّذِينَ يَغُضُّونَ أَصْوَاتَهُمْ عِنْدَ رَسُولِ اللَّهِ أُولَئِكَ الَّذِينَ امْتَحَنَ اللَّهُ قُلُوبَهُمْ لِلتَّقْوَى لَهُمْ مَغْفِرَةٌ وَأَجْرٌ عَظِيمٌ (3)
इन आयतों का अनुवाद है
ऐ ईमान वालो (बोलने में) अपनी आवाज़े पैग़म्बर की आवाज़ से ऊँची न किया करो और जिस तरह तुम आपस में एक दूसरे से ज़ोर (ज़ोर) से बोला करते हो उनके रूबरू ज़ोर से न बोला करो (ऐसा न हो कि) तुम्हारा किया कराया सब अकारत हो जाए और तुमको ख़बर भी न हो। [49:2] बेशक जो लोग रसूले ख़ुदा के सामने अपनी आवाज़ें धीमी कर लिया करते हैं यही लोग हैं जिनके दिलों को ख़ुदा ने तक़वा परहेज़गारी के लिए जाँच लिया है उनके लिए (आख़ेरत में) बख़्शिस और बड़ा अज्र है। [49:3]
इससे पहली वाली आयत में यह बताया गया है कि कामों में पैग़म्बरे इस्लाम से आगे न बढ़ो और जब तक वह कोई फ़ैसला न ले लें तब तक कुछ मत करो।
यह आयतें कहती हैं कि बात करने में भी पैग़म्बरे इस्लाम से आगे न बढ़ो और ऊंची आवाज़ में पैग़म्बरे इस्लाम से बात न करो और उनकी मौजूदगी में अपनी आवाज़ों को बुलंद न करो, न चीखो न चिल्लाओ।
ये आयतें इस बात की सूचक हैं कि कुछ मुसलमान सामाजिक शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखते थे। वे उसी तरह से पैग़म्बरे इस्लाम से भी ऊंची आवाज़ में बात करते थे जैसे आम लोगों से बात करते थे। यहां तक कि अल्लाह ने उन्हें चेतावनी दी कि इस तरह से पैग़म्बरे इस्लाम से बात न करो वरना तुम्हारे आमाल नष्ट व बर्बाद हो जायेंगे और तुम्हें इस बात का पता भी नहीं चलेगा।
ये आयतें इस बात पर बल देती हैं कि तक़वे का तक़ाज़ा, पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में अदब का ख़याल रखना और उनकी मौजूदगी में धीमी आवाज़ में बात करना है और यह चीज़ लोक- परलोक में अल्लाह की रहमत का कारण बनेगी।
इन आयतों से हमने सीखाः
हमें बात करने में ध्यान रखना चाहिये। क्योंकि हमारे अच्छे या बुरे कार्यों के कुछ परिणाम होते हैं चाहे हम उन परिणामों व नतीजों से अवगत हो या न हों। दूसरे शब्दों में हमारे कर्मों के परिणाम हमारी जानकारी पर निर्भर नहीं हैं यानी हमारे कर्मों के परिणाम निकलेंगे चाहे हमें उनकी जानकारी हो या न हो।
बहुत से लोग अदब व शिष्टाचार और विनम्रता का दिखावा करते हैं परंतु अंदर से वे अहंकारी होते हैं। दूसरे शब्दों में अदब और विनम्रता उस समय मूल्यवान है जब उसका आधार तक़वा अर्थात अल्लाह का भय हो वरना वह एक प्रकार की चापलुसी और पाखंड है।
ईमान और तक़वे का लाज़ेमा मामूस होना और गुनाहों से पवित्र होना नहीं है। ऐसा बहुत होता है कि बहुत से ईमानदार और परहेज़गार लोगों से गुनाह हो जाता है परंतु शीघ्र ही वे अपने गुनाहों व ग़लतियों से अवगत हो जाते और तौबा करते हैं।
आइये अब सूरए हुजरात की चौथी और पांचवीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّ الَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِنْ وَرَاءِ الْحُجُرَاتِ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ (4) وَلَوْ أَنَّهُمْ صَبَرُوا حَتَّى تَخْرُجَ إِلَيْهِمْ لَكَانَ خَيْرًا لَهُمْ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ (5)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) जो लोग तुमको (तुम्हारे घर के) हुजरों के बाहर से आवाज़ देते हैं उनमें अक्सर बे अक्ल हैं। [49:4] और अगर ये लोग इतना सब्र करते कि तुम ख़ुद निकल कर उनके पास आ जाते (तब बात करते) तो ये उनके लिए बेहतर था और ख़ुदा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है। [49:5]
ये आयतें पिछली बातों की संकेत करते हुए कहती हैं कि जब पैग़म्बर घर में होते थे और अपनी पत्नी के साथ पारीवारिक कार्यों को अंजाम देते या आराम करते थे तब भी कुछ असभ्य अरब उन्हें आवाज़ देते और धैर्य नहीं करते थे यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम घर से बाहर निकल आते थे और उस वक्त वे अपनी बात पैग़म्बरे इस्लाम से कहते थे। यही नहीं वे लोग घर के बाहर से ऊंची आवाज़ में पैग़म्बरे इस्लाम को बुलाते थे।
क़ुरआन मजीद इन लोगों को संबोधित करते हुए कहता हैः यह काम बुद्धिहीन होने का सूचक है और अक़्ल व बुद्धि का एक महत्वपूर्ण चिन्ह अदब है।विशेषकर जब इंसान को सामाजिक मामलों का सामना हो या समाज के बड़े व प्रतिष्ठित लोगों के मध्य हो।
इन आयतों से हमने सीखाः
इस्लाम सामाजिक अदब व शिष्टाचार को विशेष महत्व देता है यहां तक कि बेअदबी व असभ्यता को बेअक़्ली की अलामत मानता है।
घर और परिवार का अपना एक मान- सम्मान होता है और किसी को परिवार एवं पारीवारिक मामलों में विघ्न उत्पन्न करने का अधिकार नहीं है यहां तक कि घर के बाहर से आवाज़ देना ही क्यों न हो।
सामाजिक मामलों की ज़िम्मेदारी को इस बात का कारण नहीं बनना चाहिये कि इंसान पारीवारिक मामलों पर ध्यान न दे।
दूसरों के आराम करने के समय का सम्मान करना चाहिये और बेमौक़ा दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिये।