Jun ०९, २०२५ १७:२४ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1001

सूरए वाक़ेया आयतें, 41 से 56

आइए सबसे पहले सूरए वाक़ेआ की आयत संख्या 41 से 46 तक की तिलावत सुनते हैं,

وَأَصْحَابُ الشِّمَالِ مَا أَصْحَابُ الشِّمَالِ (41) فِي سَمُومٍ وَحَمِيمٍ (42) وَظِلٍّ مِنْ يَحْمُومٍ (43) لَا بَارِدٍ وَلَا كَرِيمٍ (44) إِنَّهُمْ كَانُوا قَبْلَ ذَلِكَ مُتْرَفِينَ (45) وَكَانُوا يُصِرُّونَ عَلَى الْحِنْثِ الْعَظِيمِ (46)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और बाएं हाथ (में नामए आमाल लेने) वाले (अफ़सोस) बाएं हाथ वाले क्या(मुसीबत में) हैं[56:41]  (दोज़ख़ की) लू और खौलते हुए पानी में[56:42] और काले सियाह धुएँ के साये में होंगे[56:43] जो न ठन्डा और न आनंनदायक [56:44] ये लोग इससे पहले (दुनिया में) ख़ूब ऐश उड़ा चुके थे [56:45] और बड़े गुनाह पर अड़े रहते थे। [56:46]

पिछले कार्यक्रमों में हमने बताया कि सूरए वाक़ेआ की आयतों के अनुसार, क़यामत के दिन लोग तीन समूहों में बंटे होंगे। दो समूह, मुक़र्रबान (अल्लाह के निकटवर्ती) और भाग्यशाली लोगों के हैं, जो बहिश्त के वासी हैं, उनका परिचय पिछले कार्यक्रमों में कराया गया था। यह कार्यक्रम तीसरे समूह का परिचय कराता है। क़ुरआन फरमाता है: जिनके अमलनामे (कर्म-पत्र) उनके बाएं हाथ में दिए जाएंगे, वह दोज़ख के वासी हैं और इससे बड़ी कोई मुसीबत नहीं कि इंसान दोज़खी बन जाए। 

जन्नती लोगों के विपरीत, जो झरनों, जलसोतों और पानी से भरी नहरों के किनारे, ऊंचे और सुंदर पेड़ों की छाया में बहुत ही कोमल और सुहावनी हवा का आनंद ले रहे हैं, दोज़खी घने धुएं में फंसे हैं जो आग से उठता है और एक ऐसा उबलता पानी है जो प्यास बुझाने के बजाय उनकी प्यास और बढ़ा देता है। 

आगे की आयतें उनके दोज़खी होने का कारण गिनाती हैं और कहती हैं: वे दुनिया में धन, प्रतिष्ठा और पद में इतने मदहोश और घमंडी थे कि पैग़म्बरों और आसमानी किताबों की बात नहीं सुनते थे; इसलिए वे बुरे कामों को अच्छा समझते थे और बड़े गुनाहों तथा अनुचित कार्यों पर अड़े रहते थे। 

इन आयतों से हमने सीखाः   

असीमित ऐश्वर्य और मौज-मस्ती जो इंसान को अल्लाह और क़यामत से ग़ाफ़िल कर दे, उसके लिए बुरी नियति लिख देती है और उसे विनाश और बदक़िस्मती की ओर धकेल देती है। 

गुनाह करना इंसान को दोज़खी नहीं बनाता, क्योंकि तौबा करने का अवसर होता है। लेकिन गुनाह पर अड़े रहने और उसे जारी रखने से इंसान गुनाह की बुराई और कुरूपता को समझ नहीं पाता और नतीजतन गुनाह और बुरे कामों से हाथ नहीं खींचता। 

घमंड और मदहोशी ज़िंदगी में गुनाहों का आधार है और इस राह पर चलते रहना इंसान के लिए ख़तरनाक है। 

आइए अब सूरए वाक़ेआ की आयत 47 से 50 की तिलावत सुनते हैं:

وَكَانُوا يَقُولُونَ أَئِذَا مِتْنَا وَكُنَّا تُرَابًا وَعِظَامًا أَئِنَّا لَمَبْعُوثُونَ (47) أَوَآَبَاؤُنَا الْأَوَّلُونَ (48) قُلْ إِنَّ الْأَوَّلِينَ وَالْآَخِرِينَ (49) لَمَجْمُوعُونَ إِلَى مِيقَاتِ يَوْمٍ مَعْلُومٍ (50)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और हमेशा कहा करते थे कि भला जब हम मर जाएँगे और (सड़ गल कर) मिटटी और हडिडयाँ रह जाएँगे  [56:47] तो क्या हमें या हमारे अगले बाप दादाओं को फिर उठना है।[56:48] (ऐ रसूल) तुम कह दो कि अगले और पिछले  [56:49] सब के सब निर्धारित दिन की मियाद पर ज़रूर इकट्ठे किए जाएँगे [56:50]

इस समूह के दोज़खी होने का एक और कारण यह है कि वे अल्लाह के पैग़म्बरों की क़यामत के बारे में कही गई बातों का मज़ाक़ उड़ाते थे। वे कहते थे: "हमारे पूर्वजों और बाप-दादाओं के शवों का तो कुछ भी बाक़ी नहीं रहा; उनका मांस, चमड़ी और हड्डियाँ मिट्टी में बदल चुके हैं और अलग-अलग जगहों पर बिखर चुके हैं, फिर वे कैसे जीवित हो सकते हैं?" 

क़ुरआन जवाब में फ़रमाता है: "अल्लाह की ताक़त के लिए यह काम आसान है और यह अल्लाह का वादा है जो ज़रूर पूरा होगा।" हज़रत आदम से लेकर आख़िरी इंसान तक जो इस धरती पर क़दम रखेगा, सभी एक ही जगह और एक ही समय में जमा होंगे और अपने अमल की सज़ा या इनाम पाएँगे। 

इन आयतों से हमने सीखाः

काफ़िरों और क़यामत के इनकार करने वालों के पास इसके असंभव होने का कोई ठोस और स्पष्ट प्रमाण नहीं है, वे सिर्फ़ इसे कठिन और न होने वाली बात समझते हैं। 

कुछ लोग कोशिश करते हैं कि अल्लाह और क़यामत के बारे में अपने शक और संदेह को समाज में फैलाएँ और दूसरों को भी गुमराह करें, जो बहुत ख़तरनाक है। हालाँकि, मोमिनों का फ़र्ज़ है कि वे इस तरह के संदेह का ठोस और स्पष्ट जवाब दें। 

क़यामत में एक निश्चित समय पर सभी इंसान मौजूद होंगे। 

अब आइए सूरए वाक़ेआ की आयत 51 से 56 की तिलावत सुनते हैं:

ثُمَّ إِنَّكُمْ أَيُّهَا الضَّالُّونَ الْمُكَذِّبُونَ (51) لَآَكِلُونَ مِنْ شَجَرٍ مِنْ زَقُّومٍ (52) فَمَالِئُونَ مِنْهَا الْبُطُونَ (53) فَشَارِبُونَ عَلَيْهِ مِنَ الْحَمِيمِ (54) فَشَارِبُونَ شُرْبَ الْهِيمِ (55) هَذَا نُزُلُهُمْ يَوْمَ الدِّينِ (56)

इन आयतों का अनुवाद हैः

फिर तुमको बेशक ऐ गुमराहो, झुठलाने वालो! [56:51] यक़ीनन (जहन्नम में) ज़क़्क़ूम के दरख़्तों में से खाना होगा [56:52] तो तुम लोगों को उसी से (अपना) पेट भरना होगा [56:53] फिर उसके ऊपर खौलता हुआ पानी पीना होगा [56:54] और पियोगे भी तो प्यासे ऊँटों की तरह [56:55] क़यामत के दिन यही उनकी मेहमानी होगी है[56:56]

पिछली आयतों के सिलसिले में जहाँ गुनहगारों की दोज़ख में स्थिति का ज़िक्र किया गया था, ये आयतें उनके खाने-पीने की चीज़ों के बारे में बताती हैं। फरमाया गया है: जन्नती लोगों के विपरीत, जो तरह-तरह के स्वादिष्ट और लज़ीज़ फलों का आनंद लेते हैं, दोज़खी मजबूरी में दोज़ख के कड़वे और बदबूदार पेड़ों के फल लालच से खाते हैं ताकि अपना पेट भर सकें, लेकिन क्या फ़ायदा जब यह उनके दर्द और तकलीफ़ को और बढ़ा देता है। 

और जब वे अपना पेट दोज़ख के खाने से भर लेते हैं, तो प्यास उन पर हावी हो जाती है और प्यास से बीमार ऊँटों की तरह वे दोज़ख के उबलते पानी को इतना पीते हैं कि उनके अंदरूनी हिस्से जलने लगते हैं, लेकिन उनकी प्यास बुझती नहीं। 

बेशक, यह सख़्त अज़ाब उन गुमराह लोगों के लिए है जिन्होंने हक़ को समझा था, लेकिन हठ और ज़िद के कारण उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए; वे लोग जिन्होंने संदेह फैलाकर दूसरों के गुमराह होने का सामान भी मुहैया कराया। 

इन आयतों से हम सीखते हैं:

कितने ही इंसान हैं जो गुमराह हैं, लेकिन आखिरकार हिदायत का रास्ता पा लेते हैं। सबसे ज़्यादा ख़तरनाक वह गुमराही है जो जानबूझकर इनकार और हठ के साथ हक़ का विरोध करने से होती है। 

बेशक, अल्लाह इंसाफ़ करने वाला है और कभी किसी पर ज़ुल्म नहीं करता। दरअसल, दोज़खियों को जो अज़ाब और तकलीफ़ मिलती है, वह दुनिया में उनके अपने बुरे कामों का नतीजा है।