क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1017
सूरए मुमतहना आयतें 1 से 6
सूरए हश्र की व्याख्या पिछले कार्यक्रम में समाप्त हुई। आज हम क़ुरआन के सूरए मुमतहना पर अपनी चर्चा शुरू कर रहे हैं।
यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ और इसमें 13 आयतें हैं। इस सूरे की आयतों का मुख्य विषय अल्लाह के दुश्मनों से दोस्ती न करना है, और इस संदर्भ में हज़रत इब्राहीम को मोमिनों के लिए एक आदर्श के रूप में पेश किया गया है।
सबसे पहले हम सूरए मुमतहना की आयत संख्या 1 और 2 की तिलावत सुनते हैं:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمْ أَوْلِيَاءَ تُلْقُونَ إِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوا بِمَا جَاءَكُمْ مِنَ الْحَقِّ يُخْرِجُونَ الرَّسُولَ وَإِيَّاكُمْ أَنْ تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ رَبِّكُمْ إِنْ كُنْتُمْ خَرَجْتُمْ جِهَادًا فِي سَبِيلِي وَابْتِغَاءَ مَرْضَاتِي تُسِرُّونَ إِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَأَنَا أَعْلَمُ بِمَا أَخْفَيْتُمْ وَمَا أَعْلَنْتُمْ وَمَنْ يَفْعَلْهُ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاءَ السَّبِيلِ (1) إِنْ يَثْقَفُوكُمْ يَكُونُوا لَكُمْ أَعْدَاءً وَيَبْسُطُوا إِلَيْكُمْ أَيْدِيَهُمْ وَأَلْسِنَتَهُمْ بِالسُّوءِ وَوَدُّوا لَوْ تَكْفُرُونَ (2)
इन आयतों का अनुवाद है:
अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहम वाला है।
ऐ ईमान वालो! मेरे और अपने दुश्मन को दोस्त न बनाओ। तुम उनके साथ मोहब्बत का इज़हार करते हो, जबकि उन्होंने उस हक़ को झुठला दिया है जो तुम्हारे पास आया। उन्होंने पैग़म्बर और तुम्हें इसलिए (मक्के से) निकाल दिया क्योंकि तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो। अगर तुम मेरी राह में जिहाद और मेरी रज़ा की तलाश के लिए निकले हो (तो उनसे दोस्ती न करो)। तुम उनसे चुपके से प्यार जताते हो, जबकि मैं उसे भी जानता हूँ जो तुम छुपाते हो और जो ज़ाहिर करते हो। जो भी तुम में से ऐसा करेगा, वह सीधे रास्ते से भटक गया। [60:1] अगर वे तुम पर हावी हो जाएँ, तो तुम्हारे कट्टर दुश्मन बन जाएँगे, तुम पर बुरे हाथ और ज़बान से वार करेंगे, और चाहेंगे कि तुम काफ़िर बन जाओ। [60:2]
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़, जब तक रसूलुल्लाह और मुसलमान मक्का में रहते थे, मुशरिकों ने उन्हें इस्लाम छोड़ने के लिए प्रताड़ित किया और यातनाएँ दीं। आख़िरकार रसूलुल्लाह ने मदीना हिजरत की; मुसलमान भी मुशरिकों के अत्याचार से बचने के लिए मदीना पलायन कर गए।
हिजरत के बाद भी मुशरिकों ने कई बार मदीना पर हमला किया और पैग़म्बर के ख़िलाफ़ साज़िशें कीं, लेकिन इस्लाम और मुसलमानों को ख़त्म करने का उनका मक़सद पूरा नहीं हुआ। हिजरत के आठवें साल, रसूलुल्लाह ने मक्का को मुशरिकों से आज़ाद कराने के लिए बड़ी संख्या में मुसलमानों के साथ मक्का की तरफ़ कूच किया।
एक मुसलमान ने जिसके रिश्तेदार मक्का में रहते थे, यह ख़बर एक ख़त में लिखी और एक औरत को दी ताकि वह चुपके से मुशरिकों तक पहुँचाए। रसूलुल्लाह को जिब्रईल के ज़रिए इसकी ख़बर मिली। आप ने ख़त लिखने वाले को बुलाया; औरत को गिरफ़्तार करने के लिए कुछ लोगों को भेजा। आख़िरकार उस औरत को पकड़ लिया गया और ख़त वापस ले लिया गया।
ये आयतें ऐसे लोगों की मलामत और मनाही करती हैं जो मुशरिकों से दोस्ती की वजह से मुसलमानों के राज़ उन तक पहुँचाते हैं और समझते हैं कि मुशरिक भी उन्हें प्यार करते हैं। हालाँकि वे अपनी ज़बान से मुसलमानों के ख़िलाफ़ बुराई करते हैं और अगर क़ाबू पा लें, तो ईमान वालों को सताएँगे।
इन आयतों से हमने सीखा:
एक दिल में दो मोहब्बतें नहीं समा सकतीं। अल्लाह और उसके रसूल से मोहब्बत और साथ ही दीन के ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों से दोस्ती नहीं की जा सकती।
दीन के दुश्मन मोमिनों के ईमान की वजह से उनसे दुश्मनी रखते हैं। वे चाहते हैं कि मोमिन अल्लाह पर ईमान छोड़ दें और उनकी तरह काफ़िर बन जाएँ।
दीन और सियासत अलग नहीं हैं। विदेश नीति में, दूसरे देशों से रिश्ते बनाने या तोड़ने के लिए दीनी मापदंड होने चाहिए।
दुश्मनों से दोस्ती करना इंसान को बुरे अंजाम तक पहुँचाता है और कुफ़्र व गुमराही की तरफ़ ले जाता है।
आइए अब सूरए मुमतहना की आयत 3 की तिलावत सुनते हैं:
لَنْ تَنْفَعَكُمْ أَرْحَامُكُمْ وَلَا أَوْلَادُكُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يَفْصِلُ بَيْنَكُمْ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ (3)
इस आयत का अनुवाद है:
क़यामत के दिन तुम्हारे काफ़िर रिश्तेदार और बच्चे तुम्हारे किसी काम नहीं आएँगे। अल्लाह तुम्हारे और उनके बीच अलगाव डाल देगा, और अल्लाह तुम्हारे कर्मों को देख रहा है।[60:3]
पिछली आयतों की तफ़्सीर में हमने बताया कि कुछ मोमिन अपने रिश्तेदारों को मुसलमानों के राज़ बताना चाहते थे क्योंकि वे मक्का में रहते थे। यह आयत आगे कहती है: जो रिश्तेदार और औलाद ईमान नहीं रखते, वे दुनिया में भी तुम्हें अल्लाह के अज़ाब से नहीं बचा सकते। क़यामत में भी वे तुमसे अलग होकर दोज़ख़ की तरफ़ जाएँगे। इसलिए उनकी वजह से ख़ुद को दोज़ख़ी न बनाओ।
इस आयत से हम सीखते हैं:
मज़हबी रिश्ते, ख़ानदानी रिश्तों से ज़्यादा अहम हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी भावनाएँ हमारे सही दीनी अक़ीदों पर हावी न हों।
हमें काफ़िरों से निराश होकर उन्हें अपना सहारा नहीं बनाना चाहिए, चाहे वे हमारे क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हों।
आइए अब सूरए मुमतहना की आयत संख्या 4 से 6 की तिलावत सुनते हैं:
قَدْ كَانَتْ لَكُمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ فِي إِبْرَاهِيمَ وَالَّذِينَ مَعَهُ إِذْ قَالُوا لِقَوْمِهِمْ إِنَّا بُرَآَءُ مِنْكُمْ وَمِمَّا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ كَفَرْنَا بِكُمْ وَبَدَا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةُ وَالْبَغْضَاءُ أَبَدًا حَتَّى تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَحْدَهُ إِلَّا قَوْلَ إِبْرَاهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسْتَغْفِرَنَّ لَكَ وَمَا أَمْلِكُ لَكَ مِنَ اللَّهِ مِنْ شَيْءٍ رَبَّنَا عَلَيْكَ تَوَكَّلْنَا وَإِلَيْكَ أَنَبْنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ (4) رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِلَّذِينَ كَفَرُوا وَاغْفِرْ لَنَا رَبَّنَا إِنَّكَ أَنْتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (5) لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِيهِمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِمَنْ كَانَ يَرْجُو اللَّهَ وَالْيَوْمَ الْآَخِرَ وَمَنْ يَتَوَلَّ فَإِنَّ اللَّهَ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيدُ (6)
इन आयतों का अनुवाद है:
तुम्हारे लिए इब्राहीम और उनके साथियों का तरीक़ा एक बेहतरीन मिसाल है, जब उन्होंने अपनी क़ौम से कहा: हम तुमसे और तुम्हारे उन माबूदों से बरी हैं जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पूजते हो। हम तुम्हारे (दीन) से इन्कार करते हैं और हमारे-तुम्हारे बीच हमेशा के लिए दुश्मनी और नफ़रत पैदा हो गई है, सिवाय इसके कि तुम सिर्फ़ अल्लाह पर ईमान ले आओ। (इब्राहीम और मोमिनों ने बस बेज़ारी का एलान किया,) सिवाय इब्राहीम के उस कथन के जो उन्होंने अपने बाप (या संरक्षक) से कहा: मैं तुम्हारे लिए मग़फ़ेरत की दुआ करूँगा, लेकिन मेरे बस में नहीं कि अल्लाह से तुम्हारे लिए कुछ माँग सकूँ। ऐ हमारे रब! हमने तुझ पर भरोसा किया, तेरी तरफ़ रुजू किया, और तेरी ही तरफ़ लौटना है। [60:4] ऐ हमारे रब! हमें काफ़िरों के लिए आज़माइश का ज़रिया न बना और हमें माफ़ कर दे। ऐ हमारे रब! बेशक तू ज़बरदस्त और हिकमत वाला है।[60:5] बेशक, जो कोई अल्लाह और आख़िरत के दिन की उम्मीद रखता है, उसके लिए उनमें (इब्राहीम और उनके साथियों में) एक बेहतरीन नमूना है। और जो कोई मुंह फेर ले, तो (जान ले कि) अल्लाह बेनियाज़ और क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। [60:6]
क़ुरआन करीम का एक तरबियती तरीक़ा यह है कि वह सही अमली नमूनों को पेश करता है। अल्लाह के नबियों की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना ही नहीं, बल्कि उनका अमल और सुलूक भी ऐसा होना चाहिए जो लोगों के लिए एक अच्छा नमूना हो। उन्हें अल्लाह के पैग़ाम को साफ़ और स्पष्ट तरीक़े से पहुँचाना चाहिए और अमल में भी वही करना चाहिए जो वे कहते हैं।
हज़रत इब्राहीम ने, जो यहूदीयत, मसीहियत और इस्लाम जैसे बड़े दीनों के पैदा करने वाले हैं, इन आयतों में अल्लाह के दुश्मनों से मुक़ाबला करने और उनसे बराअत का एलान करने का नमूना पेश किया गया है। इब्राहीम अलैहिस्सलाम एक ऐसा नमूना हैं जिसकी तक़्लीद न सिर्फ़ उनके ज़माने के मोमिनों ने की, बल्कि बाद के दौर के ईमान वालों को भी करनी चाहिए।
हाँ, हज़रत इब्राहीम ने अपने संरक्षक से (जिसने उनकी परवरिश की थी) वादा किया था कि अगर वह ईमान ले आए, तो वह उसके लिए मग़फ़ेरत की दुआ करेंगे, लेकिन जब वह ईमान नहीं लाया, तो उन्होंने उससे भी बराअत का एलान कर दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
नबियों का क़ौल और अमल लोगों के लिए हुज्जत है। वे लोगों के लिए एक अमली नमूना हैं ताकि वे जान सकें कि जो कुछ नबी कहते हैं, वह अमल में भी मुमकिन है।
. दोस्ती और दुश्मनी मज़हबी और इलाही मापदंडों पर होनी चाहिए, न कि निजी पसंद-नापसंद पर।
शिर्क और मुशरिकों से बराअत और नफ़रत का ज़बानी एलान ज़रूरी है, सिर्फ़ दिल से नफ़रत काफ़ी नहीं।