क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1023
सूरए मुनाफ़ेक़ून आयतें 1से 6
पिछले कार्यक्रम में सूरए जुमा की व्याख्या समाप्त होने के बाद, इस कार्यक्रम में हम सूरए मुनाफ़िक़ून की आयतों की आसान और सरल तफ़सीर शुरू कर रहे हैं। यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ और इसमें 11 आयतें हैं। इसकी आयतों का मुख्य विषय मुनाफ़ेक़त और मुनाफ़िक़ों की विशेषताएं हैं।
आइए सबसे पहले सूरए मुनाफ़ेक़ून की आयत 1 और 2 की तिलावत सुनते हैं:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
إِذَا جَاءَكَ الْمُنَافِقُونَ قَالُوا نَشْهَدُ إِنَّكَ لَرَسُولُ اللَّهِ وَاللَّهُ يَعْلَمُ إِنَّكَ لَرَسُولُهُ وَاللَّهُ يَشْهَدُ إِنَّ الْمُنَافِقِينَ لَكَاذِبُونَ (1) اتَّخَذُوا أَيْمَانَهُمْ جُنَّةً فَصَدُّوا عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ إِنَّهُمْ سَاءَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ (2)
इन आयतों का अनुवाद है:
अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है।
"जब मुनाफ़िक़ तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं कि हम गवाही देते हैं कि निस्संदेह आप अल्लाह के रसूल हैं, और अल्लाह जानता है कि निस्संदेह आप उसके रसूल हैं, और अल्लाह गवाही देता है कि मुनाफ़िक़ निस्संदेह झूठे हैं"[63:1] "उन्होंने अपनी क़समों को ढाल बना लिया है और (लोगों को) अल्लाह के रास्ते से रोका है। निस्संदेह जो कुछ वे कर रहे थे वह बहुत बुरा है"।[63:2]
जब तक पैग़म्बर मक्का में थे, उन पर ईमान लाने वाले मोमिनों को मुशरिकों द्वारा सिर्फ़ यातना, परेशानी और कुछ सामाजिक सुविधाओं से वंचितता ही मिलती थी। इसलिए मोमिन अपने ईमान के दावे में सच्चे थे। लेकिन पैग़म्बर और मुसलमानों के मदीना हिजरत करने और मुसलमानों के शक्तिशाली होने के बाद, कुछ लोग मजबूरी में पैग़म्बर पर ईमान लाए, अपनी सामाजिक स्थिति को बचाने के लिए ज़बानी तौर पर इस्लाम और ईमान का दावा करने लगे। नतीजतन धीरे-धीरे समाज में मुनाफ़िक़ों की संख्या बढ़ने लगी। इसी वजह से मदीना में नाज़िल हुए सूरों में मुनाफ़िक़ों की विशेषताओं का ज़िक्र किया गया है।
मुनाफ़िक़ों की एक विशेषता यह है कि वे अपने मक़सद को पाने के लिए धार्मिक पवित्र चीजों का ग़लत फ़ायदा उठाते हैं। जैसे कि उन्होंने मदीना में एक मस्जिद बनाई और रसूलुल्लाह से उसके उद्घाटन के लिए आने का अनुरोध किया, लेकिन अल्लाह ने उसे मस्जिदे ज़िरार (फूट डालने वाली मस्जिद) कहा जो मुसलमानों के बीच तकरार और मतभेद पैदा करती है। ये आयतें भी मुनाफ़िक़ों द्वारा लोगों को धोखा देने और ख़ुद को सही साबित करने के लिए अल्लाह के नाम पर क़सम खाने के तरीके की ओर इशारा करती हैं।
इन आयतों से हमने सीखा:
मुनाफ़िक़त एक व्यावहारिक झूठ है जिसमें व्यक्ति दिल से काफ़िर होता है, लेकिन ज़बान और दिखावे से ईमान का दावा करता है।
चिकनी-चुपड़ी बातें और चापलूसी मुनाफ़िक़ों का तरीक़ा है। इसलिए हर इज़हार-ए-मोहब्बत, दोस्ती और साथ देने के दावे पर भरोसा न करें और हमेशा चापलूस लोगों से सावधान रहें।
उन लोगों से दूर रहें जो ज़्यादा कसमें खाते हैं और अपनी बातों को बहुत ज़ोर देकर कहते हैं, क्योंकि वे आमतौर पर दोहरे चरित्र वाले और झूठे होते हैं।
बात का सही होना एक बात है, लेकिन बोलने वाले का उस बात पर सच्चा विश्वास रखना दूसरी बात है। इसलिए मुनाफ़िक़ लोगों से सावधान रहें जो कभी-कभी सही बात भी दिखावे के लिए कह देते हैं।
मुनाफ़िक़ हर उस तरीक़े से जिसे वे इस्तेमाल कर सकते हैं, अल्लाह के रास्ते को रोकते हैं और दीन के प्रसार में बाधा डालते हैं, जैसे: मस्जिदे ज़िरार बनाकर मुसलमानों की एकता तोड़ना, जंग के मैदान से भागकर सैन्य नुक़सान पहुंचाना, और लोगों को अल्लाह के दीन की मदद करने से रोककर आर्थिक नुक़सान पहुंचाना।
अब आइए सूरए मुनाफ़िक़ून की आयत 3 और 4 की तिलावत सुनते हैं:
ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ آَمَنُوا ثُمَّ كَفَرُوا فَطُبِعَ عَلَى قُلُوبِهِمْ فَهُمْ لَا يَفْقَهُونَ (3) وَإِذَا رَأَيْتَهُمْ تُعْجِبُكَ أَجْسَامُهُمْ وَإِنْ يَقُولُوا تَسْمَعْ لِقَوْلِهِمْ كَأَنَّهُمْ خُشُبٌ مُسَنَّدَةٌ يَحْسَبُونَ كُلَّ صَيْحَةٍ عَلَيْهِمْ هُمُ الْعَدُوُّ فَاحْذَرْهُمْ قَاتَلَهُمُ اللَّهُ أَنَّى يُؤْفَكُونَ (4)
इन आयतों का अनुवाद है:
"यह (मुनाफ़िक़त) इसलिए है कि उन्होंने ईमान लाया, फिर कुफ़्र किया, तो उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई, इसलिए वे समझ नहीं पाते"[63:3]"और जब तुम उन्हें देखो तो उनका ज़ाहिरी रूप तुम्हें प्रभावित करता है, और अगर वे बोलें तो (उनकी बात इतनी आकर्षक है कि) तुम उनकी बात सुनते हो, (मगर हक़ीक़त में उनकी बातें एसी हैं कि) मानो वे (सूखे हुए और एक दूसरे पर)टिकाए हुए लकड़ी के तख़्ते हैं। वे हर आवाज़ को अपने ख़िलाफ़ समझते हैं। वही दुश्मन हैं, तो उनसे दूर रहो! अल्लाह उन्हें मारे! वे कैसे सच्चाई से भटक गए हैं?!" [63:4]
ये आयतें मुनाफ़िक़ों के बाहरी और आंतरिक रूप के अंतर की ओर इशारा करती हैं और कहती हैं: उनका बाहरी रूप सजा हुआ और आकर्षक होता है और उनकी बातें बहुत मनमोहक और दिलचस्प होती हैं जो हर सुनने वाले को अपनी ओर खींच लेती हैं। लेकिन वे अंदर से कुफ्र और शिर्क में फंसे हुए हैं और ईमान के रास्ते से दूर और हिदायत से महरूम हैं।
वे बेरूह लाशें हैं जिनका बाहरी रूप लोगों की आंखों को भाता है, लेकिन अंदर से वे खोखले और बेमतलब हैं और डरपोक और कायर हैं जो अपनी जान के डर से दूसरों की बात को अपने ख़िलाफ़ समझकर उसका विरोध करते हैं। मुनाफ़िक़ यही चाहते हैं कि सिर्फ़ उनकी बात सुनी और मानी जाए।
अल्लाह पैग़म्बर और उनके अनुयायियों को हुक्म देता है कि वे सावधान रहें कि मुनाफ़िक़ों के सुंदर बाहरी रूप और प्रभावशाली बातों से प्रभावित न हों और जान लें कि वे दिल से मोमिनों के दुश्मन हैं, भले ही बाहर से दोस्ती का दिखावा करते हों। वे दुनिया में मोमिनों की लानत और आख़ेरत में अल्लाह के अज़ाब के हक़दार हैं।
इन आयतों से हमने सीखा:
जिसने हक़ को पहचान लिया, लेकिन उस पर ईमान नहीं लाया, उसने वास्तव में अपने दिल पर ताला लगा लिया और ख़ुद को हक़ीक़त को समझने से महरूम कर लिया है।
मुनाफ़िक़ वे दुश्मन हैं जो मोमिनों के बीच रहते हैं। वे आंतरिक दुश्मन हैं जो बाहरी दुश्मन से ज़्यादा ख़तरनाक हैं, क्योंकि वे अनजान होते हैं और उन्हें पहचानना आसान नहीं होता। इसीलिए उनका मुक़ाबला करना मुश्किल होता है।
हम लोगों के अंदर तक नहीं पहुंच सकते, फिर भी हमें उनके बाहरी रूप पर भरोसा नहीं करना चाहिए और उनके दिखावे में नहीं आना चाहिए। चाहे वे बाहरी रूप और शक्ल से सुंदर और आकर्षक हों या ख़ुद को ईमानदार, विनम्र और अच्छे आचार वाले लोगों के रूप में पेश करते हों। मानदंड लोगों का अमल (कर्म) है।
आइए अब हम सूरए मुनाफ़िक़ून की आयत 5 और 6 की तिलावत सुनते हैं:
وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ تَعَالَوْا يَسْتَغْفِرْ لَكُمْ رَسُولُ اللَّهِ لَوَّوْا رُءُوسَهُمْ وَرَأَيْتَهُمْ يَصُدُّونَ وَهُمْ مُسْتَكْبِرُونَ (5) سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَسْتَغْفَرْتَ لَهُمْ أَمْ لَمْ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ لَنْ يَغْفِرَ اللَّهُ لَهُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ (6)
इन आयतों का अनुवाद है:
और जब उनसे कहा जाता है कि आओ तुम्हारे लिए अल्लाह का रसूल माफी मांगे, तो वे (अकड़ और मज़ाक के तौर पर) अपना मुंह मोड़ लेते हैं और तुम उन्हें देखते हो कि अकड़कर (लोगों को सच्चाई की ओर आने से) रोकते हैं"[63:5] "उनके लिए बराबर है कि तुम उनके लिए माफ़ी मांगो या न मांगो, अल्लाह कभी उन्हें माफ नहीं करेगा, क्योंकि अल्लाह नाफ़रमान बदकार लोगों को हिदायत नहीं देता"।[63:6]
जैसा कि इतिहास में आया है, मदीना के कुछ मुनाफ़िक़ रसूलुल्लाह और उनके सच्चे ईमान वाले साथियों के बारे में ग़लत बातें कहते थे, लेकिन पैग़म्बर की मौजूदगी में उन बातों को झूठ बताते थे और पैग़म्बर और मोमिनों से माफ़ी मांगने को तैयार नहीं होते थे। उनके इस व्यवहार की जड़ उनकी अकड़ और ख़ुद को बड़ा समझना था जिसमें वे ख़ुद को अज़ीज़ और बड़ा और दूसरों को छोटा और तुच्छ समझते थे।
स्वाभाविक है कि जो लोग अपने ग़लत काम से पछताते नहीं हैं और ख़ुद को गुनहगार नहीं मानते, वे अल्लाह से माफ़ी मांगने की कोशिश नहीं करते। यहां तक कि रसूलुल्लाह की माफ़ी भी उनके लिए कारगर नहीं होगी और अल्लाह की रहमत और मग़फ़ेरत ऐसे लोगों को हासिल नहीं होगी।
इन आयतों से हमने सीखा:
गुनहगार और ग़लती करने वालों की नजात के लिए कोशिश करें और उनके लिए तौबा और अल्लाह की ओर लौटने का रास्ता खुला रखें।
रसूलुल्लाह का वसीला लेकर और उनसे माफ़ी मांगकर अल्लाह की मग़फ़ेरत और बख़शिश पाने का रास्ता अपनाएं।
अकड़ और ख़ुद को बेहतर समझना मुनाफ़िक़ों की स्पष्ट निशानियां हैं। वे ख़ुद को गुनहगार नहीं मानते और ख़ुद के अलावा किसी को सही नहीं समझते।
अकड़ दिखाना और हक़ की दावत से मुंह मोड़ना इंसान को हिदायत और अल्लाह की अनंत रहमत से महरूम कर देता है।