Sep १५, २०२५ १९:३२ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1027

सूरए तग़ाबुन आयतें 13-18

आइए सबसे पहले हम सूरए तग़ाबुन की आयत 13 और 14 की तिलावत सुनते हैं:

 

اللَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ (13) يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا إِنَّ مِنْ أَزْوَاجِكُمْ وَأَوْلَادِكُمْ عَدُوًّا لَكُمْ فَاحْذَرُوهُمْ وَإِنْ تَعْفُوا وَتَصْفَحُوا وَتَغْفِرُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ (14)

 

 

इन आयतों का अनुवाद है

 

अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, और मोमिनों को चाहिए कि वे केवल अल्लाह पर तवक्कुल करें। [64:13]  ऐ ईमान लाने वालो! तुम्हारी कुछ पत्नियाँ और तुम्हारी संतानें तुम्हारे दुश्मन हैं (जो तुम्हें अल्लाह के रास्ते से रोकती हैं), तो उनसे सावधान रहो। और अगर तुम (उनके अत्याचारों को) नज़रअंदाज़ कर दो, उन्हें माफ कर दो और उनकी ग़लतियों को छोड़ दो, तो निस्संदेह अल्लाह बड़ा माफ़ करने वाला, दयालु है।[64:14]

 

 

पिछले कार्यक्रम की आख़िरी आयत में अल्लाह और रसूल की आज्ञा मानने का ज़िक्र किया गया था। ये आयतें कहती हैं कि कभी-कभी पत्नी और बच्चे अल्लाह के आदेशों को पूरा करने में रुकावट बन जाते हैं। वे अपने आराम और सुख के लिए तुम्हें जिहाद में जाने, घर छोड़ने या ज़रूरतमंदों की मदद करने से रोकते हैं। ऐसे मामलों में, तुम्हें उनकी ऐसी मांगों को नहीं मानना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए।

 

हालाँकि, पत्नी और बच्चों के ग़लत अनुरोधों का विरोध करने से परिवार के सदस्यों के बीच नाराज़गी या दुश्मनी नहीं होनी चाहिए। बल्कि, अगर वे पछताते हैं या माफ़ी माँगते हैं, तो उनकी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए और उन्हें माफ़ कर देना चाहिए।

 

इन आयतों से हमने सीखा:

  

असली ईमान की निशानी यह है कि इंसान अनन्य और बेमिसाल अल्लाह पर भरोसा करे। मोमिनों को हर काम में अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए। 

  

पारिवारिक रिश्ते धार्मिक कर्तव्यों में रुकावट नहीं बनने चाहिए। परिवार का हर सदस्य, परिवार का हिस्सा होने से पहले अल्लाह का बंदा है और उसे वही करना चाहिए जो अल्लाह ने इंसान से चाहा है। 

  

इंसान की परीक्षा का एक मैदान घर और परिवार है। पत्नी और बच्चों की बहुत सी इच्छाएँ होती हैं। इन इच्छाओं को पूरा करना तभी तक सही है जब तक वे अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ न हों। 

  

भावनाओं और कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है। न तो भावनाओं के कारण कर्तव्यों को छोड़ना चाहिए और न ही कर्तव्यों के कारण पारिवारिक भावनाओं को नज़रअंदाज़ करना चाहिए। 

 

आइए अब सूरए तग़ाबुन की आयत 15 और 16 की तिलावत सुनते हैं:

 

إِنَّمَا أَمْوَالُكُمْ وَأَوْلَادُكُمْ فِتْنَةٌ وَاللَّهُ عِنْدَهُ أَجْرٌ عَظِيمٌ (15) فَاتَّقُوا اللَّهَ مَا اسْتَطَعْتُمْ وَاسْمَعُوا وَأَطِيعُوا وَأَنْفِقُوا خَيْرًا لِأَنْفُسِكُمْ وَمَنْ يُوقَ شُحَّ نَفْسِهِ فَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ (16)

 

इन आयतों का अनुवाद है

 

तुम्हारा धन और तुम्हारी संतानें तो बस एक परीक्षा हैं, और अल्लाह के पास ही बड़ा इनाम है। [64:15] तो जितना हो सके, अल्लाह से डरो, उसकी बात सुनो, उसकी आज्ञा मानो और ख़ैरात करो जो तुम्हारे लिए बेहतर है। और जो लोग अपने मन के लालच से बच जाएँ, वही कामयाब होंगे। [64:16]


जो चीज़ें इंसान के पास हैं, वे उसकी परीक्षा का साधन हैं। माल और दौलत सिर्फ़ पत्नी और बच्चों के लिए नहीं है, बल्कि उसका कुछ हिस्सा अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना चाहिए, और इस बारे में परिवार के सदस्यों के विरोध से डरना नहीं चाहिए। जैसे कि बच्चा भी अल्लाह की अमानत है, और अगर इस्लाम और मुसलमानों की रक्षा के लिए उसका जिहाद के मैदान में जाना ज़रूरी है, तो उसे रोका नहीं जाना चाहिए।

इंसान का नफ़्स हमेशा उसे धन और दौलत जमा करने और दूसरों को देने में कंजूसी करने के लिए उकसाता है। अगर इंसान सावधान न रहे और अपने नफ़्स को क़ाबू में न रखे, तो यह उसे अल्लाह के दीन के ख़िलाफ़ भी ले जा सकता है। इसलिए, ये आयतें इंसान को नफ़्स के ख़तरे की याद दिलाती हैं और सलाह देती हैं कि अल्लाह की बात सुनकर और उस पर अमल करके, नफ़्स की अधिक इच्छाओं को रोका जाए।

 

इन आयतों से हमने सीखा:

 

माल और बच्चों से अत्यधिक लगाव इंसान के गुमराह होने का कारण बन सकता है। 

  तक़्वा की कोई सीमा नहीं है—हर जगह और हर हाल में अल्लाह के ख़िलाफ़ जाने से बचना चाहिए। 

  इंसान की असली कामयाबी अल्लाह की शिक्षाओं पर चलने में है, न कि अपने नफ़्स की इच्छाओं के पीछे भागने में। 

 धन और दौलत से लगाव इंसान को लालच और कंजूसी की तरफ़ ले जाता है, जबकि दान और ख़ैरात करने से इंसान की मुक्ति होती है। 

 

 

अब आइए सूरए तग़ाबुन की आयत 17 और 18 की तिलावत सुनते हैं:

 

إِنْ تُقْرِضُوا اللَّهَ قَرْضًا حَسَنًا يُضَاعِفْهُ لَكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ وَاللَّهُ شَكُورٌ حَلِيمٌ (17) عَالِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (18)

 

 

इन आयतों का अनुवाद है

 

अगर तुम अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दो, तो वह तुम्हारे लिए उसे बढ़ा देगा और तुम्हें माफ़ कर देगा, और अल्लाह कृतज्ञ, सहनशील है। [64:17] वह छिपी और खुली हर चीज़ को जानने वाला, प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।[64:18]

 

पिछली आयतों के बाद, ये आयतें इंसान को कंजूसी और लालच जैसी बुरी आदतों से बचने का रास्ता बताती हैं। ये कहती हैं कि यह न सोचो कि जो कुछ तुम ज़रूरतमंदों को देते हो, अल्लाह उसे नहीं जानता या तुम्हारे लिए उसका कोई फ़ायदा नहीं है। जो कुछ तुम देते हो, चाहे वह सदक़ा हो या क़र्ज़, तुम्हारा हिसाब अल्लाह के साथ है—मानो तुमने उसे अल्लाह को क़र्ज़ दिया है और उसी से वापस लोगे।

इस्लामी संस्कृति में, क़र्ज़ देने का सवाब सदक़ा देने से ज़्यादा है। क्योंकि इससे इंसान क़र्ज़ चुकाने की कोशिश करता है। वह अपने पैरों पर खड़ा होने और क़र्ज़ उतारने की कोशिश करता है, जो उसके जीवन में तरक़्क़ी का कारण बन सकता है। लेकिन जो इंसान दूसरों से मदद लेने के लिए हमेशा हाथ फैलाए रहता है, वह दूसरों पर निर्भर हो जाता है और समाज पर बोझ बन जाता है।

आम तौर पर, दान और क़र्ज़ुल-हसना (बिना ब्याज के क़र्ज़) लोगों, ख़ासकर ज़रूरतमंदों की मुश्किलें हल करते हैं। आख़ेरत के सवाब के अलावा, यह गुनाहों की माफ़ी और अल्लाह की रहमत पाने का भी ज़रिया है।

 

इन आयतों से हमने सीखा:

   

अल्लाह ज़रूरतमंदों का हामी है, और जो कुछ उन्हें दिया जाता है, उसे वह गिनता है और कई गुना करके लौटाता है। 

 

 हालाँकि अल्लाह हमारा ख़ालिक़ है और जो कुछ हमारे पास है, वह असल में उसी का है, फिर भी वह उन लोगों का शुक्रिया अदा करता है जो ज़रूरतमंदों को अपना माल देते हैं। 

 

अल्लाह की मख़लूक को क़र्ज़ देना, मानो अल्लाह को ही क़र्ज़ देना है। इसलिए, क़र्ज़ लेने वालों या ज़रूरतमंदों के शुक्रिया का इंतज़ार न करो—क्योंकि अल्लाह ख़ुद तुम्हारा शुक्रिया अदा करता है। 

 

दूसरों को चुपके से दान देना, जिसे कोई दूसरा यहाँ तक कि ज़रूरतमंद भी न जान पाए कि उसे किसने दान दिया है, ज़्यादा बेहतर है। इसलिए अल्लाह कहता है कि मैं छिपी हुई चीज़ों को भी जानता हूँ।