तकफ़ीरी आतंकवाद-15
जनसंख्या और विचारों व दृष्टिकोणों की दृष्टि से भारतीय उप महाद्वीप इस्लामी जगत का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है।
जनसंख्या और विचारों व दृष्टिकोणों की दृष्टि से भारतीय उप महाद्वीप इस्लामी जगत का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है।
अगर अतीत में मिस्र इस्लामी विचारों व दृष्टिकोणों का पालना था तो काफी समय से भारतीय उपमहाद्वीप भी परिवर्तनों और विचारों में सुधार या अतिवाद का केन्द्र रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में सलफीवाद की जड़ों का संबंध 18वीं शताब्दी में शाह वलीउल्लाह देहलवी के काल से है। शाह वलीउल्लाह देहलवी और उसके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी के विचारों की समीक्षा की गयी। इन दोंनो के विचार और व्यवहार सलफीवाद से निकट भी हैं और दूर भी। शाह वलीउल्लाह ने धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए हदीस बयान करने की शैली अपनाई।
वह आस्था के मामलों में बुद्धि को कोई महत्व नहीं देता था। उसका मानना था कि लोगों को चाहिये कि वे आस्था के मामलों में अतीत के लोगों की शैली को अपनायें और उनका अनुसरण करें। ध्यान योग्य बिन्दु सूफीवाद था जो शाह वलीउल्लाह को पूर्णरूप से दूसरे सलफीवाद से अलग करता है। उसका अपने बुज़ुर्गों की भांति मानना था कि धर्म दो चीज़ों से मिलकर बना है एक शरीअत और दूसरे तरीक़त और इनमें से कोई एक भी अकेले इंसान के लिए मुक्ति व कल्याण को उपलब्ध नहीं कर सकता। इसी कारण वह भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से धर्मगुरूओं व विद्वानों की भांति शरीअत और धार्मिक संस्कारों के अलावा सूफीवाद को भी मानता और उसके प्रति कटिबद्ध था।
शाह वलीउल्लाह देहलवी का बेटा शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी सलफीवाद के विचारों से निकट हो गया और उसका झुकाव हदीस की ओर अपने पिता से भी अधिक हो गया और बुद्धि का भी उसके निकट महत्व कम था। बाप और बेटे की एक विशेषता यह थी कि वे दोनों शीया विरोधी थे। शाह वलीउल्लाह देहलवी के बाद 19वीं शताब्दी में देवबंद सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। यह सम्प्रदाय इन बाप और बेटे के विचारों से मिश्रित था। देवबंद भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में एक क्षेत्र है और 1289 हिजरी क़मरी में धर्मगुरूओं के एक गुट ने देवबंद नाम का एक धार्मिक मदरसा बनवाया। इस मदर्से के निर्माण का उद्देश्य ब्रिटेन के वर्चस्व वाद से मुकाबला करना था।
ब्रिटेन का प्रयास पश्चिम की शिक्षा- प्रशिक्षा की शैली का प्रयोग करके भारत में भी अपने वर्चस्व को मज़बूत बनाना था। इस मदरसे के निर्माण से देवबंदी संप्रदाय की बुनियाद रखी गयी। इस मदरसे ने पारंपरिक मदरसों की स्थापना करके और पठन- पाठन के कार्यक्रम पर ध्यान देकर ब्रिटेन के वर्चस्ववाद को रोकने का प्रयास किया।
देवबंदी संप्रदाय ने तेज़ी से प्रगति की, उसकी एक वजह यह थी कि इस संप्रदाय के धर्मगुरू और अनुयाइ काफी थे और कुछ समय के बाद देवबंदी मदरसे भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गये। यद्यपि देवबंदी संप्रदाय शीयों का विरोधी था परंतु संयुक्त शत्रु का होना मतभेदों के विदित न होने और उनके न फैलने का कारण बना।
यहां तक कि वर्ष 1947 में भी भारतीय उपमहाद्वीप के शीया और सुन्नी मुसलमान आज़ादी की लड़ाई में एक दूसरे के साथ थे और स्वतंत्रता की लड़ाई के बाद भारत और पाकिस्तान दो अलग देश बन गये। जब पाकिस्तान एक स्वतंत्र देश बन गया तो स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में प्रतिवर्ष आज़ादी के कार्यक्रम व समारोह कराची में होते थे क्योंकि उस समय कराची पाकिस्तान की राजधानी था।
स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में “हुसैनी अज़ादारी” नाम के गुट का गठन हुआ और उसमें सुन्नी मुसलमान भी थे। वर्ष 1947 भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के लिए याद रखने वाला समय था। उस समय बहुत से लोग एक इस्लामी देश के गठन के इच्छुक थे और पाकिस्तान बन जाने के बाद उन लोगों की इच्छा पूरी हो गयी जो एक अलग देश बनने के इच्छुक थे। जिस समय पाकिस्तान बना उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मोहम्मद अली जेनाह ने मुसलमानों के लिए शांति व सुरक्षा की शुभ सूचना दी थी और कहा था कि पाकिस्तान दूसरे देशों के लिए आदर्श होगा परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और जो मुसलमान ब्रिटेन के साम्राज्य के मुकाबले में हिन्दुओं के साथ एकजुट थे वे आपस में ही एक दूसरे के आमने- सामने आ गये।
मतभेद केवल शीया और सुन्नी मुसलमानों के मध्य नहीं था बल्कि स्वयं सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद बहुत गम्भीर हो गये थे। स्वाधीनता के बाद देवबंदी संप्रदाय एकजुट नहीं रहा और उसमें भी फूट पड़ गयी और उसमें कुछ अतिवादी हो गये और जबकि कुछ संतुलित इस प्रकार से कि देवबंदी संप्रदाय को मुख्य रूप से तीन गुटों में बांटा जा सकता है। देवबंदियों का एक संतुलित दल था। इस दल का संबंध जमइते ओलमाये इस्लाम से है। यह धड़ा डेमोक्रेटिक मार्ग से अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है।
यह पार्टी वास्तव में जमीअते ओलमाये हिन्द की शाखा है। पाकिस्तान में यही पार्टी, जमीअते ओलमाये इस्लाम के नाम से प्रसिद्ध है। देवबंद की दूसरी पार्टी अतिवादियों की पार्टी है। पाकिस्तान के पेशावर नगर में समीउल हक़ इस पार्टी का नेतृत्व करते हैं। यह पार्टी फज़लुर्रहमान की शाखा वाली पार्टी की तुलना में अतिवादी विचारधारा रखती है और तालेबान गुट भी इसी पार्टी के क्रिया- कलापों की उपज हैं।
तालेबान गुट सऊदी अरब, अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान की व्यापक सहायता से अस्तित्व में आया। देवबंदी संप्रदाय का तीसरा गुट अतिवादी व आतंकवादी है। यह गुट दूसरे मुसलमानों को काफिर समझता है, इसीलिए वह उनकी हत्या को वैध समझता है। बम विस्फ़ोट करना और दूसरों की हत्याएं, जैसे कार्य पाकिस्तान में इस गुट के तत्वों द्वारा अंजाम दिये जाते हैं। सिपाहे सहाबा, लश्करे झंगवी और लश्करे तय्यबा पूरी तरह से हिंसाप्रेमी गुट हैं और उन सबका संबंध देवबंद से है।
देवबंदी और सलफी वहाबी गुटों के बीच संपर्क अफग़ानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ के सैनिक हस्तक्षेप के दौरान आरंभ हुआ। उस समय सऊदी अरब मोहम्मद क़ुत्ब के विचारों से अस्तित्व में आये गुट के विस्तृत होने से बहुत चिंतित था।
वहाबी, एकेश्वरवाद का जो अर्थ पेश करते हैं उसके अनुसार वहाबियत का काम केवल क़ब्रों और निहत्थे लोगों से मुकाबला है परंतु मोहम्मद कुत्ब ने यह प्रश्न किया कि क़ब्रों को ध्वस्त करने और उनसे लड़ने का क्या फायदा है? मोहम्मद कुत्ब के अनुसार क़ब्रों और मरे हुए लोगों से लड़ने के बजाये भोग- विलास का जीवन बिता रहे और अत्याचारी शासकों से युद्ध करना चाहिये। इस प्रकार के विचार से सऊदी अरब में एक गुट अस्तित्व में आया जो इस देश की राजशाही व्यवस्था का विरोधी था। यह ऐसा समय था जब अरब देश विशेषकर सऊदी अरब में रूस से मुकाबले का विचार पेश किया गया ताकि एक प्रकार से आले सऊद परिवार की राजशाही सरकार को उन गुटों व धड़ों की आलोचनाओं से मुक्ति मिल जाये जो राजशाही व्यवस्था के विरोधी हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में हज़ारों अरब नागरिक पूर्व सोवियत संघ की लाल सेना से मुकाबले के लिए अफगानिस्तान चले गये जो अफगान अरब के नाम से प्रसिद्ध हुए। बाद में इन्हीं अरबों का दिशा- निर्देशन ओसामा बिन लादेन ने किया और सऊदी शहज़ादों ने आतंकवादी गुट अलक़ायदा का गठन किया। अफ़गान युद्ध के साथ वहाबी दूसरे मोर्चे पर भी सक्रिय थे और वह देवबंदी गुटों के समर्थन से शीया विरोधी गतिविधियां थीं। सिपाहे सहाबा और लश्करे झंगवी जैसे गुट वास्तव में वे अतिवादी और वहाबियों के हथकंडे हैं।
रोचक बात यह है कि वहाबियों और इन गुटों के मध्य गम्भीर मतभेद हैं और वहाबी इन गुटों का प्रयोग अपने हथकंडे के रूप में कर रहे हैं। इस समय वहाबी सलफी और देवबंदी गुटों के मध्य मज़बूत संबंध हैं और वे मिलकर हिंसक व आतंकवादी कार्यवाहियां अंजाम दे रहे हैं।