Sep १८, २०१६ १४:४६ Asia/Kolkata

हमने मां-बाप के अधिकारों के विषय की चर्चा शुरू करते हुए कहा था कि जिस प्रकार मानवीय समाज और धर्म मां-बाप को अपनी संतान के प्रति जवाबदेह बनाते हैं और उनके लिए कुछ ज़िम्मेदारियों का निर्धारण करते हैं, उसी तरह संतान को भी अपने मां-बाप के प्रति उत्तरदायी और ज़िम्मेदार क़रार देते हैं।

जिस प्रकार मां-बाप अपनी इस खेती को हरा भरा करने के लिए अपनी ऊर्जा, अपनी जवानी और अपना सुख-चैन क़ुर्बान कर देते हैं और अपने ख़ून-पसीने से इसे सींचते हैं, उसी तरह उनके बूढ़े होने पर संतान को भी ऐसे ही त्याग की ज़रूरत होती है। उनके लरज़ते हुए हाथों और थरथराते हुए कमज़ोर शरीर को भी उसी तरह सहारे की ज़रूरत होती जिस तरह उन्होंने बचपन में हमें ऊंगली पकड़कर चलना सिखाया और ठोकरें खाने से बचाया।

 

यही कारण है कि पूरे मानवीय इतिहास में और हर संस्कृति और हर धर्म में मां-बाप का एक विशेष महत्व और सम्मान रहा है। विशेष रूप से ईश्वरीय धर्मों ने अपने अनुयाईयों से मां-बाप की सेवा और उनके लिए समर्पित रहने की सिफ़ारिश की है। जिस प्रकार समस्त ईश्वरीय धर्म ब्रह्माण्ड की हर चीज़ के बारे में अपना दृष्टिकोण पेश करते हैं और संसार की वास्तविकता का उल्लेख करते हैं, तथा जहां नैतिक मूल्यों का विषय होता है, वहां नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं, उसी तरह मां-बाप के महत्व और स्थान के बारे में भी वे ख़ामोश नहीं हैं, बल्कि उन्होंने मां-बाप के अधिकारों को लेकर कुछ नैतिक क़ानून और नियम निर्धारित किए हैं।

 

यहां हम पहले अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम के पूर्ववर्ती कुछ ईश्वरीय दूतों द्वारा मां-बाप, विशेष रूप से मां के विशिष्ट स्थान और विशेष सम्मान के बारे में की गई सिफ़ारिशों का उल्लेख करेंगे, उसके बाद इस्लाम धर्म में मां-बाप के महत्व और अधिकारों की समीक्षा करेंगे।

ईश्वर ने जब पहले मानव की रचना की और उसे अपना दूत बनाया तो इस संसार में जीवन व्यतीत करने के उसे कुछ नियम सिखाए ताकि वह उनका पालन करते हुए अपने खोए हुए उत्कृष्ट स्थान और ईश्वर के सामीप्य को पुनः प्राप्त कर ले। प्रथम ईश्वरीय दूत हज़रत आदम और उनकी पत्नी हज़रत हव्वा से मानवीय वंश का सिलसिला शुरु हुआ तो ईश्वर ने इंसान का मार्गदर्शन करते हुए हमेशा एकेश्वरवाद की शिक्षा के साथ ही मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने की सिफ़ारिश की।

ईश्वरीय दूतों ने सदैव मां-बाप के महत्व और उनके सम्मान पर बल दिया और संतान को मां-बाप के महत्वपूर्ण अधिकारों का सम्मान करने का पाठ पढ़ाया। इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर की दृष्टि में मां-बाप का कितना महत्व है, यहां तक कि उसने घोषणा कर दी कि मुझ तक पहुंचने का रास्ता मां-बाप की सेवा और उनकी प्रसन्नता से होकर आता है, अगर कोई मुझे प्रसन्न करना चाहता है तो वह अपने मां-बाप को ख़ुश रखे और उनके लिए दुआ करे।

समस्त ईश्वरीय दूत इससे पहले कि दूसरों को मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दें, स्वयं इसका पालन करते थे और व्यवहारिक रूप से आदर्श प्रस्तुत करते थे। वे अपने मां-बाप की सेवा करने और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने के अलावा ईश्वर से उन्हें क्षमा कर देने की दुआएं किया करते थे। महान ईश्वरीय दूत हज़रत इब्राहीम ईश्वर से अपने मां-बाप के लिए दुआ मांगते हुए कहते हैं, हे पालनहार मुझे, मेरे मां-बाप को और ईमान रखने वाले समस्त लोगों को उस दिन क्षमा कर देना जब तू सबका हिसाब किताब करेगा।

हज़रत इब्राहीम की यह दुआ मां-बाप के महत्व और उनके स्थान को उजागर करने के साथ ही संतान का इस बिंदु की ओर ध्यान खींचती है कि मां-बाप की केवल सेवा काफ़ी नहीं है। बल्कि यह सेवा पूरी श्रद्धा और हृद्य से होनी चाहिए। यही कारण है कि उनकी भलाई के लिए दुआ करने की सिफ़ारिश की गई है और दुआ दिल से की जाती है। ख़ाली ज़बान से बड़बड़ाने को दुआ नहीं कहते और वह जबतक पूरी नहीं होती जब तक दिल से न निकले। हज़रत इब्राहीम की दुआ में प्रशिक्षण का यह बिंदु सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए कि ईश्वरीय दूतों का हर कर्म इंसानों के मार्गदर्शन और उनके प्रशिक्षण के लिए होता है।

एक अन्य स्थान पर हज़रत इब्राहीम (अ) ईश्वर से दुआ मांगते हुए कहते हैं, हे पालनहार, मुझे ज्ञान दे और भले लोगों के साथ रख, और मेरे पिता को क्षमा कर दे, क्योंकि वे भटके हुए लोगों में से थे और प्रलय के दिन मुझे अपमानित मत करना। इतिहासकारों का मानना है कि यहां हज़रत इब्राहीम ने अपने सौतेले पिता के लिए दुआ की है जो उनके चाचा भी थे।

बहरहाल हज़रत इब्राहीम की इस दुआ से हमें यह सबक़ मिलता है कि मां-बाप अगर ग़लत रास्ते पर भी हों तो संतान को उनकी भलाई के लिए प्रयासरत रहना चाहिए और उन्हें उनके हाल पर नहीं छोड़ देना चाहिए। इससे हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार और उनका सम्मान समस्त मनुष्यों के लिए एक सार्वभौमिक नियम है और यह किसी विशेष समूह या समुदाय के लिए नहीं है।

हज़रत इब्राहीम (अ) को ऐसे काल में ईश्वरीय दूत बनाया गया जब लोग मूर्तियों की पूजा किया करते थे और इस मार्ग पर बुरी तरह अड़े हुए थे। लोग विभिन्न प्रकार के बुतों की पूजा किया करते थे और उनका असमान्य रूप से सम्मान किया करता था। हज़रत इब्राहीम लोगों को इस अतार्किक काम से रोकते थे और उन्हें जागरुक करने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। लोग जब हज़रत इब्राहीम के तर्कों का कोई जवाब नहीं दे पाते थे तो केवल एक ही बात पर अड़े रहते थे कि हमारे पूर्वज भी ऐसा ही किया करते थे, इसलिए हम भी उन्हीं के रास्ते पर चल रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में भी हज़रत इब्राहीम ने धैर्य का दामन नहीं छोड़ा और ईश्वर से ज्ञान एवं अच्छे लोगों की संगत के साथ ही अपने पिता को क्षमा करने की गुहार लगाई।

इसी प्रकार, हज़रत मूसा (अ) की शिक्षाओं में मां-बाप विशेष रूप से मां के सम्मान पर बहुत बल दिया गया है। हज़रत मूसा ने ईश्वर से दुआ करते हुए इच्छा व्यक्त की थी कि वह जानना चाहते हैं कि स्वर्ग में उनके साथ कौन होगा? आवाज़ आई कि हे मूसा, फ़लां इलाक़े में एक गली है, जहां एक दुकान स्थित है। उस दुकान का मालिक स्वर्ग में तुम्हारा साथी होगा। हज़रत मूसा उस दुकानदार को खोजने के लिए निकल पड़े। जब वे दुकान पर पहुंचे तो उन्होंने वहां एक युवा क़साई को देखा। वे कुछ दूरी पर खड़े होकर उस युवक की गतिविधियों को देखने लगे। काफ़ी समय बीतने के बाद भी उन्होंने कोई असमान्य काम या भलाई नहीं देखी, यहां तक कि सूर्यास्त के समय हज़रत मूसा उस युवक के पास गए और स्वयं का परिचय दिए बिना उससे कहा आज रात को मैं तुम्हारा मेहमान बनना चाहता हूं। इस प्रकार हज़रत मूसा उसके कर्मों का रहस्य जानना चाहते थे। वे जानना चाहते थे कि यह युवा एकांत में जाकर कौनसी ऐसी उपासना करता है या पुण्य करता है, जिसके कारण  उसका स्थान ईश्वर के निकट इतना ऊंचा है कि उसे ईश्वर के दूत का संगी बना दिया गया है।

घर पहुंचते ही सबसे पहले युवक एक बहुत ही कमज़ोर सी वृद्धा के पास गया जिसके हाथ पैरों ने काम करना बंद कर दिया था और वह चल फिर नहीं सकती थी। युवक ने बहुत ही धैर्य और विनम्रता से बूढ़ी महिला को भोजन खिलाना शुरू किया। बूढ़ी के हाथ पैर धोए और वस्त्र बदले। हज़रत मूसा ने वहां से जाते समय स्वयं का परिचय दिया। उन्होंने युवक से पूछा कि यह बूढ़ी महिला कौन है और जब तुम उसे खाना खिला चुके और सेवा कर चुके तो उसने आसमान की ओर हाथ उठाए और कुछ धीरे धीरे कहना शुरू किया, वह क्या कह रही थी।

युवक ने उत्तर दिया कि वे मेरी मां हैं, जब भी मैं उन्हें खाना खिलाता हूं और उनकी सेवा करता हूं, वे मेरे लिए दुआ करती हैं और कहती हैं, हे ईश्वर मेरे बेटे को स्वर्ग में ईश्वरीय दूत मूसा का साथी बना दे। हज़रत मूसा (अ) ने उस युवक को शुभ सूचना देते हुए कहा कि ईश्वर ने तुम्हारी मां की दुआ स्वीकार कर ली है।   

 

 

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