Sep २१, २०१६ १५:५५ Asia/Kolkata

इस्लाम में मां-बाप के आदर और अधिकारों के विषय पर हमारी चर्चा जारी है।

यह विषय इस्लाम में इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि पवित्र ईश्वरीय किताब क़ुरान में और अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों में मां-बाप के मुसलमान न होने की स्थिति में भी उनके आदर एवं सम्मान पर बल दिया गया है।

क़ुराने मजीद में जब ईश्वर मां-बाप के साथ भलाई और अच्छे व्यवहार का आदेश देता है, तो केवल मुसलमानों को ही संबोधित नहीं करता, बल्कि वह समस्त इंसानों को यह आदेश देता है।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ईश्वर ने इंसान को मां-बाप के साथ भलाई और सेवा का पूर्ण रूप से आदेश दिया है और इसमें कोई अपवाद नहीं है। साथ ही इंसान विशेष रूप से मुसलमान को यह भी चेता दिया है कि अगर मां-बाप अनेकेश्वरवादी हों और वह तुम्हें भी अनेकेश्वरवाद का आदेश दें तो उनकी बात स्वीकार मत करो और उनका अनुसरण नहीं करो। यहां महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश असीमित और स्थायी है, लेकिन उनकी आज्ञापालन को इस बात से सशर्त कर दिया गया है कि उनकी आज्ञापालन उस वक़्त तक ही अनिवार्य है, जब तक वे अपनी संतान को सृष्टिकर्ता से दूर नहीं करते हैं।

यहां यह निष्कर्ष निकलता है कि कोई भी चीज़ इंसान और उसके वास्तविक सृष्टिकर्ता के बीच रुकावन नहीं बन सकती, यहां तक कि मां-बाप भी जो भावनात्मक रूप से इंसान से सबसे अधिक निकट होते हैं।

शिया मुसलमानों के पांचवें इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ) फ़रमाते हैं, ईश्वर ने तीन चीज़ों में किसी को कोई छूट नहीं दी है, अमानत को वापस लौटाने में, अब वह अमानत किसी सज्जन और भले व्यक्ति की हो या किसी दुर्जन और बदमाश की, वादा निभाना, वादा किसी अच्छे व्यक्ति से किया गया हो या किसी बुरे व्यक्ति से, मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना और उनकी सेवा करना, वे अच्छे लोग हों या बुरे।

इमाम बाक़िर (अ) ने बहुत ही सुन्दर अंदाज़ में और संक्षेप में इस्लामी नैतिक सिद्धांतों का सारांश बयान कर दिया। यहीं वह सिद्धांत हैं, जिन्हें समस्त ईश्वरीय दूतों विशेष रूप से अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम ने नैतिकता के शिखर पर पहुंचाया और मानवता के लिए अनउदाहरणीय व्यवहारिक आदर्श प्रस्तुत किया। अगर मानवीय इतिहास में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का आचरण नहीं होता, तो यह सिद्धांत केवल कल्पना बनकर रह जाते और इनका कोई व्यवहारिक आदर्श हमारे सामने नहीं होता। चालीस वर्ष की आयु में मक्का में जब मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह ने ईश्वरीय संदेश, ‘अल्लाह केवल एक है’ पहुंचाने और अपने ईश्वरीय दूत होने की घोषणा की तो अनेकेश्वरवादी मक्का वासियों ने हर प्रकार से मोहम्मद का विरोध किया और मूर्तिपूजा एवं अपने पूर्वजों के धर्म की रक्षा का हर संभव प्रयास किया, लेकिन कदापि अमानत में ख़यानत करने या झूठे होने का झूठा आरोप भी नहीं लगाया। सच्च बोलना अमानत को सुरक्षित रखने और पूर्ण ईमानदारी के साथ उसे वापस लौटा देने का ही एक भाग है। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने हर वादे को निभाकर और अपने मां-बाप और अभिभावकों का आदर और सेवा करके हर इंसान के लिए व्यवहारिक आदर्श प्रस्तुत किया।                 

प्रत्येक मां-बाप के आदर और मान-सम्मान के महत्व का उल्लेख करते हुए इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, मां-बाप के साथ भलाई प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, लेकिन अगर मां-बाप अनेकेश्वरवादी हों तो अनेकेश्वरवाद में उनका अनुरण मत करना, ईश्वर की अवज्ञा में किसी का भी अनुसरण सही नहीं है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हर इंसान के लिए अपने मां-बाप का आदर अनिवार्य है और इसमें कोई अपवाद भी नहीं है, इसी प्रकार उनका आज्ञापालन भी अनिवार्य है, लेकिन एक अपवाद के साथ और वह यह कि जब वे किसी को ईश्वर का साथी या सहभागी बनाकर उसकी उपासना का आदेश दें और ईश्वर की अवज्ञा का आहवान करें, तो उनका आज्ञापालन सही नहीं है।

इस्लामी इतिहास में है कि मोअम्मर बिन ख़ल्लाद ने आठवें इमाम अली रज़ा (अ) से पूछा कि मेरे मां-बाप मुसलमान नहीं हैं, क्या इसके बावजूद मैं उनकी सेवा करूं और उन्हें याद रखूं। इमाम (अ) ने फ़रमाया, उन्हें याद रखो और उनकी ओर से दान दो, अगर वे जीवित हैं तो उनकी सेवा करो और उनके साथ अच्छा व्यवाहर करो। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, ईश्वर ने मुझे रहमत अर्थात दया व कृपा बनाकर भेजा है, न कि आवेश।

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके उत्तराधिकारी मासूम इमामों ने जहां मां-बाप का आदर करने और उनकी सेवा करने में व्यवहारिक आदर्श प्रस्तुत किया है, वहीं अपने मूल्यवान कथनों द्वारा इसके महत्व को उजागर किया है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, मां-बाप की सेवा का सोता, मनुष्य का अपने पालनहार के प्रति ज्ञान की गहराईयों से फूटता है, इसीलिए पालनहार की प्रसन्नता के लिए मां-बाप की सेवा और आदर से बेहतर पुण्य का और कोई काम नहीं है। क्योंकि मां-बाप के अधिकार, ईश्वर के अधिकारों से अस्तित्व में आते हैं, इस शर्त के साथ कि मां-बाप ईश्वर और उसके अंतिम दूत के मार्ग पर हों। इसलिए कि ऐसे मां-बाप कदापि अपनी संतान को सही रास्ते से भटका कर ग़लत रास्ते पर नहीं लगाते हैं और ईश्वर की आज्ञापालन के बजाए उसकी अवज्ञा का आहवान नहीं करते हैं। अतः उनके साथ सुशीलता, उदारता और विनम्रता से पेश आओ, उनकी कठिनाईयों और मुश्किलों को सहन करो, जिस प्रकार से तुम्हारे बचपने में उन्होंने तुम्हारी कठिनाईयों और समस्याओं को अपनी जान पर लिया और जिस प्रकार ईश्वर ने आजीविका प्रदान करने में तुम पर कृपा की है, उसी प्रकार उन पर बुरा वक़्त नहीं आने देना, उनके सामने अपना सिर झुकाकर रखना, उनकी आवाज़ से अपनी आवाज़ ऊंची मत करना, वास्तव में यह ईश्वर का आदर है। उनके साथ मीठे स्वर में बात करो और विनम्र एवं भद्र रहो, याद रखो कि ईश्वर भलाई करने वाले का इनाम नष्ट होने नहीं देता है।

चौथे इमाम अली इब्नुल हसैन ज़ैनुल आबेदीन (अ) फ़रमाते हैं कि तुम्हारे लिए अपनी मां का हक़ जानने के लिए यही काफ़ी है कि उसने तुम्हें (गर्भ) में उठाया, इस तरह से कि कोई किसी को नहीं उठा सकता, और तुम्हें उसने अपने दिल का फल तुम्हें दिया, जो किसी को कोई नहीं देता है, उसने अपने पूरे वजूद से तुम्हें अपनी आग़ोश में लिया, स्वयं भूखा रहकर तुम्हारा भरण-पोषण कराया, तुम्हें ढका और साए में रखा, जबकि स्वयं धूप में रही, तुम्हें आराम दिया और स्वयं रातों को जागती रही और तुम्हें गर्मी और सर्दी से बचाया, इन समस्त कठिनाईयों के बदले तुम कहा उसका आभार व्यक्तर कर सकते हो, मगर यह कि ईश्वर की कृपा तुम पर हो।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) का यह कथन, मां की माहनता और उच्च स्थान को स्पष्ट करता है। शिक्षा-दीक्षा के दृष्टिगत भी यह विषय काफ़ी महत्वपूर्ण है कि संतान मां-बाप की सेवा और उनके आदर में ईश्वर की इच्छा प्राप्ति को उद्देश्य बनाए और ईश्वर से सहायता के लिए दुआ करे। इमाम (अ) के इस कथन से शिक्षा-दीक्षा का एक आयाम यह है कि संतान को हमेशा मां की कठिनाईयों के लिए उसका आभारी रहना चाहिए और अपनी योग्यता, प्रतिभा एवं शक्ति के लिए उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) मां-बाप के हक़ में ईश्वर से दआ करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर, मेरे मां-बाप को अपने निकट सम्मान दे और उन्हें अपनी कृपा और दया का पात्र क़रार दे। हे ईश्वर, मैं अपने मां-बाप की महिमा से ऐसे भयभीत रहूं, जैसे कोई किसी अत्याचारी राजा से डरता है और उनके साथ एक दयालु मां की भांति विनम्र रहूं, उनकी आज्ञा का पालन और उनकी सेवा मेरे लिए मीठी नींद से अधिक मीठी और प्यासे के लिए मीठे एवं शीतल जल से अधिक शीतल क़रार दे, ताकि उनकी इच्छाओं को अपनी इच्छाओं पर प्राथमिकता दूं और उनकी प्रसन्नता को अपनी प्रसन्नता पर वरीयता दूं, मेरे हक़ में किए जाने वाली उनकी भलाई और परोपकार कितने भी कम क्यों न हों, मैं उसे अधिक समझूं और उनके हक़ में मेरी सेवाएं कितनी भी अधिक क्यों न हों, उन्हें कम ही समझूं।

हे ईश्वर उनके सामने मेरी आवाज़ को धीमा कर दे और शब्दों में शहद घोल दे और मेरे आचरण को सुशील बना दे और उनके प्रति मुझे दयालु बना दे और उनके साथ मेरी संगत अच्छी कर दे।

हे ईश्वर मेरे पालन-पोषण के कारण, उन पर अपनी अनुकंपा कर और मुझे प्यार देना का उन्हें प्रतिफल दे और जो कुछ बचपन में उन्होंने मेरे लिए अंजाम दिया है, उसे सुरक्षित रख।

हे ईश्वर अगर मेरी ओर से उन्हें कोई तकलीफ़ पहुंची है, या उन्हें मेरा कोई काम पसंद नहीं आया है, या मैंने उनके किसी अधिकार का हनन किया है तो इसे उनके पापों के क्षमा करने, उनके स्थान को ऊंचा करने और उनकी अच्छाईयों में वृद्धि का कारण बना दे।

हे ईश्वर अगर उन्होंने कभी मुझे डांटा-डपटा हो या झिड़का हो या मेरे किसी अधिकार का हनन किया हो या मेरे प्रति तेरे अनिवार्य आदेशों की उपेक्षा की हो, तो मैंने उन्हें इससे मुक्त किया और तुझसे भी प्रारथना करता हूं कि उन्हें इन कामों के लिए क्षमा कर दे।

हे ईश्वर मुझे मां-बाप के साथ दुर्व्यवहार करने वालों में शामिल न कर।

हे ईश्वर मेरे मां-बाप पर वह विशेष कृपा कर जो तू विशेष रूप से अपने चाहने वाले बंदों पर करता है। हे ईश्वर उन्हें मेरी नमाज़ों में, रात को प्रारथना में और दिन में हर समय मेरी यादों में बाक़ी रख।    

हे ईश्वर मुझे उनके हक़ में मेरी प्रारथनाओं के कारण और उन्हें उनकी अच्छाईयों के कारण क्षमा कर दे।

हे ईश्वर अगर मुझसे पहले तू उन्हें अपने पास बुला ले, तो उन्हें मेरी मुक्ति का कारण बना दे और अगर मुझे उनसे पहले मौत आ जाए तो मुझे उनकी मुक्ति का कारण बना दे, ताकि हम तेरी कृपा, गरिमा, दया और रहमत का पात्र बन जायें।

 

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