Jan २६, २०१६ १४:५१ Asia/Kolkata

दुनिया में क़दम रखने वाला हर शिशु दिव्य प्रकृति, पाक साफ़ मानसिकता, विवेक और स्वाभाविक क्षमताओं से सुसज्जित होता है।

दुनिया में क़दम रखने वाला हर शिशु दिव्य प्रकृति, पाक साफ़ मानसिकता, विवेक और स्वाभाविक क्षमताओं से सुसज्जित होता है। कहा जाता है कि धर्म की ओर रूचि भी उसमें स्वाभाविक होती है और दुनिया में जन्म लेने और अपने इर्दगिर्द के वातावरण के अनुसार इसमें कमी या वृद्धि होती है।

वास्तव में यह इंसान के इर्दगिर्द का वातावरण ही होता है कि जो अपरोक्ष या परोक्ष रूप से उसके मार्गदर्शन या भटकने के लिए भूमि प्रशस्त करता है। इसके बावजूद स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने की इच्छा इंसान में कभी नहीं मरती और चयन की आज़ादी का अधिकार हमेशा उसमें ज़िंदा रहता है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि हर शिशु स्वस्थ दिव्य प्रकृति के साथ जन्म लेता है, लेकिन यह मां-बाप होते हैं कि जो अपनी ग़लत परवरिश से उसे सीधे रास्ते से भटका देते हैं।

 

 

अतः जैसा कि बच्चों की परवरिश की परिभाषा में उल्लेख किया गया था कि परवरिश से तात्पर्य भौतिक आवश्यकताओं के अलावा बच्चों की आध्यात्मिक ज़रूरतों की आपूर्ति यानी उन्हें संस्कारिक बनाना भी मां-बाप का कर्तव्य है। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के सही लालन पालन और उनकी देखभाल के साथ साथ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का स्थानांतरण ही उनकी सही परवरिश है।

मां-बाप की ज़िम्मेदारी है कि ख़ुद भी सही संस्कारों का पालन करके और व्यवहारिक रूप से बच्चों के लिए आदर्श पेश करके उन्हें उनके पालन के लिए प्रेरित करें और उन्हें स्वीकार करने के लिए भूमि प्रशस्त करें। क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी यह पाक साफ़ प्रकृति धीरे धीरे धूमिल और दूषित होती चली जाएगी। शिशु और बच्चे अपने आस पास के लोगों के आचरण से प्रभावित होते हैं, अब वे मां-बाप हों, रिश्तेदार हों, क्लास के साथी हों, शिक्षक हों, खिलाड़ी हों या धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक हस्तियां सभी हमारे बच्चों पर प्रभाव डालते हैं और उनके लिए एक आदर्श पेश करते हैं। हालांकि इन सबके बीच, मां-बाप की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।

 

 

इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार बच्चों के सही मार्गदर्शन और उनकी सही परवरिश के लिए भूमि प्रशस्त होती है, उसी प्रकार उनके भटकने और सीधे रास्ते से भ्रमित होने के भी संभावना अधिक होती है। बच्चों का मन साफ़ और दिल कोमल होता है और जीवन का अनुभव न होने के कारण उनके भटकने की संभावना भी अधिक होती है। इसलिए मां-बाप की ज़िम्मेदारी होती है कि वे उनके सफ़ल जीवन के रास्ते में आने वाली रुकावटों को हटाएं और उनके पवित्र मन और कोमल दिल को अनैतिक एवं सामाजिक बुराईयों में लिप्त होने से सुरक्षित रखें।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इस्लाम धर्म ने मां-बाप की कुछ ज़िम्मेदारियां निर्धारित की हैं, और इसे मां-बाप का कर्तव्य या मां-बाप पर बच्चों के अधिकार का नाम दिया है। ईश्वर इंसान को जब बच्चों जैसा अनमोल उपहार प्रदान करता है तो उसी के साथ साथ उनके कांधों पर कुछ ज़िम्मेदारियां डालता है, कि जिसे बच्चों का अधिकार कहा जाता है।

 

 

मुसलमानों के चौथे इमाम और पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ) इंसानों की ज़िम्मेदारियों और अधिकारों का उल्लेख करते हुए बच्चों के अधिकारों के बारे में फ़रमाते हैं कि तुम पर तुम्हारे बच्चों का जो अधिकार है, वह यह है कि वे तुमसे हैं और तुमसे संबंधित हैं। इस दुनिया में वे जो अच्छा और बुरा करेंगे वह तुम्हारी ओर पलट कर आएगा। निःसंदेह तुम पर जो उनका अधिकार और कर्तव्य है वह यह है कि उनकी अच्छी परवरिश करो और ईश्वर की ओर उनका मार्गदर्शन करो। ईश्वरीय आदेशों के पालन और स्वयं अपने अधिकारों को पूरा करने में उनकी सहायता करो। अगर तुम अपनी इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करोगे तो ईश्वर इसका पुण्य तुम्हें देगा। अतः अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करो कि अपने बाद एक अच्छा प्रभाव छोड़कर जाओ और ईश्वर के सामने इसका उत्तर दे सको।

वास्तव में यह आश्चर्य की बात है कि कुछ मां-बाप और अभिभावक अपने बच्चों को भोजन, वस्त्रों और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए काफ़ी प्रयास करते हैं और चिंतित रहते हैं, लेकिन उनकी सही परवरिश और उन्हें मानसिक रोगों से मुक्त रखने के लिए आवश्यकतानुसार ध्यान नहीं देते। इमाम हसन (अ) इस इस संदर्भ में फ़रमाते हैं कि आश्चर्य है उस व्यक्ति पर कि जो अपने शरीर के भोजन के लिए प्रयास करता है, लेकिन अपनी आत्मा के भोजन के लिए कोई विचार नहीं करता।