ईश्वरीय वाणी-१०८
सूरए तकासुर क़ुरान का 102वां सूरा है। यह सूरा मक्के में नाज़िल हुआ और इसमें 8 आयते हैं।
इस सूरे में उन लोगों की निंदा की गई है, जो अंधविश्वासों के कारण गर्व करते हैं। इसी प्रकार क़यामत और अनुकंपाओं के हिसाब किताब के प्रति चेतावनी दी गई है।
इस सूरे का नाम उसकी पहली आयत से लिया गया है। अज्ञानता के दौर की एक विशेषता एक दूसरे के मुक़ाबले में घमंड करना था। क़बीले एक दूसरे के मुक़ाबले में गर्व और घमंड करते थे और अपने सदस्यों की अधिक संख्या होने या अधिक धन होने पर अकड़ दिखाते थे, यहां तक कि लोग अपने क़बीले के सदस्यों की अधिक संख्या दिखाने के लिए क़ब्रिस्तानों में जाते थे और हर क़बीले के मरने वालों की क़ब्रों को गिनते थे।
सूरए तकासुर की पहली दो आयतों में उल्लेख है, अधिक संख्या के घमंड ने तुम लोगों को ग़फ़लत में डाल रखा है, यहां तक कि तुम क़ब्रों को गिनने पहुंच गए।
हज़रत अली (अ) ने इन आयतों की तिलावत के बाद फ़रमाया, ताज्जुब है, उद्देश्य जो इतना दूर है और कितने ग़ाफ़िल ज़ियारत करने वाले हैं और कितना दर्दनाक घमंड है, उन लोगों की बोसीदा या क्षयग्रस्त हड्डियों की याद में पड़ गए हैं, जो वर्षों से मिट्टी बन चुकी हैं, वह भी कैसी याद, इतनी अधिक दूरी से ऐसे लोगों को याद कर रहे हैं, जिससे उन्हें कोई लाभ नहीं पहुंचने वाला है। क्या अपने पूर्वजों के विनाश स्थल पर गर्व कर रहे हैं? या अपने मुर्दों और नष्ट होने वालों की गिनती करके अपनी गिनती बढ़ा रहे हैं? यह बोसीदा शवों से अगर पाठ हासिल किया जाए तो गर्व करने से कहीं बेहतर है।
तकासुर, कसरत शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ धन की वृद्धि में प्रतिस्पर्धा करना और घमंड करना है। बहुतायत पर घमंड का एक कारण ईश्वरीय प्रकोप के बारे में जानकारी का न होना व नादानी एवं क़यमामत पर ईमान का न होना है। इसके अलावा इंसान का अपनी कमज़ोरियों को न जानना और अपने जन्म एवं अंजाम से अनजान होना है। यही कारण है कि क़ुरान विभिन्न आयतों में इस घमंड को तोड़ने के लिए पूर्व क़बीलों या क़ौमों की दास्तानों की ओर ध्यान दिलाता है, कि किस प्रकार अत्यधिक शक्ति एवं सुविधाओं के बावजूद कुछ क़बीले आंधी तूफ़ानों में, बिजली कड़कने से, भूकम्प आने या भारी बारिशों व बाढ़ आने के कारण नष्ट हो गए। घमंड का दूसरा कारण, वही कमज़ोरी का अहसास और हीन भावना है, जिस पर पर्दा डालने के लिए इंसान घमंड करता है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, कोई व्यक्ति घमंड नहीं करता है, लेकिन उस हीन भावना के कारण जो उसके मन में है। इसलिए जब इंसान को यह अहसास होता है कि वह उत्कृष्टता पर पहुंच चुका है तो उसे घमंड करने की ज़रूरत ही नहीं होती है।
तकासुर का अर्थ कभी अधिक इच्छा करना और धन एकत्रित करना होता है। पैग़म्बरे इस्लाम इस सूरे की पहली आयत की व्याख्या करते हुए फ़रमाते हैं, इंसान कहता है, मेरा माल, मेरा माल, हालांकि तेरा माल केवल वह भोजन है जो तूने खा लिया है और वह वस्त्र हैं जो तूने पहने लिए हैं और वह दान है जो ईश्वर के मार्ग में दिया है।
थोड़े सा विचार करने से पता चल जाता है कि इंसान अत्यधिक माल एकत्रित करता है, लेकिन उसमें से उसका हिस्सा केवल उतना ही जितना वह उसमें से खा लेता है और पहन लेता है या वह धन जिसे वह ईश्वर के मार्ग में ख़र्च करता है, बाक़ी दूसरों को विरासत में पहुंचता है।
सूरए तकासुर की पांचवी आयत में घमंड करने वालों को कड़ी चेतावनी दी गई है। आयत में उल्लेख है, ऐसा नहीं है कि जैसा तुम घमंड करने वाले सोचते हो, अगर क़यामत पर तुम्हारा यक़ीन होता तो कभी भी इन तुच्छ बातों पर घमंड नहीं करते और ग़फ़लत में नहीं फंसते।
यक़ीन, शक के विरीत है, बिल्कुल उसी तरह से जैसे ज्ञान, अज्ञानता के विपरीत है। इसका अर्थ किसी चीज़ का स्पष्ट और साबित होना है। ईमान के उच्च चरण को यक़ीन कहा गया है। हदीसों में यक़ीन की परिभाषा, ईश्वर पर भरोसा, उसके सामने नतमस्तक होना, उसकी इच्छा को स्वीकार करना और अपने समस्त कार्यों को उस पर छोड़ देने के रूप में की गई है। कुछ लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा, हमने सुना है कि हज़रत ईसा के कुछ साथी पानी पर चलते थे, पैग़म्बर ने जवाब दिया, अगर उनका यक़ीन इससे अधिक मज़बूत होता तो वे हवा पर चलते।
अल्लामा तबातबाई इस हदीस के संदर्भ में कहते हैं, समस्त चीज़ें अल्लाह पर यक़ीन और स्वाधीनता में समस्त भौतिक चीज़ों के प्रभाव को मिटाने के बिंदु के चारो ओर घूमती हैं। इसलिए इंसान का ईश्वर की असीम शक्ति पर जितना अधिक भरोसा होगा, दुनिया की चीज़ें उतना ही अधिक उसके अधीन होंगी और यही इस दुनिया में असाधारण शक्ति का रहस्य है।
सूरए तकासुर की अंतिम आयत में उल्लेख है कि निश्चित रूप से तुम सभी से अनुकंपाओं के बारे में पूछताछ की जाएगी। उस दिन सभी को इन ईश्वरीय अनुकंपाओं के बारे में बाताना होगा कि उन्हें किस तरह से इस्तेमाल किया। उन्हें ईस्वर के मार्ग में इस्तेमाल किया है, या उसके दिए गए दिशा निर्देशों के विपरीत, अनकंपाओं का हक़ अदा किया है या उन्हें बर्बाद कर दिया।
सूरए अस्र क़ुराने मजीद का 103वां सूरा है और यह हिजरत से पहले मक्के में नाज़िल हुआ था। इस सूरे में 3 आयते हैं। इस सूरे की व्यापकता इतनी अधिक है कि कुछ व्याख्याकारों ने इसे क़ुराने मजीद का सारांश क़रार दिया है। यह सूरा वक़्त की क़सम के साथ शुरू होता है, ताकि वक़्त के महत्व की ओर इंसान का ध्यान आकर्षित कर सके।
अस्र का अर्थ वक़्त या समय है और यह शब्द संपूर्ण समय या उसके एक भाग के लिए इस्तेमाल होता है। इसलिए कुछ व्याख्याकारों ने इस क़सम को संपूर्ण काल की ओर संकेत माना है, जो इंसान के लिए पाठ बनने वाली और उसे झकझोर कर रख देने वाली घटनाओं से भरा पड़ा है। कुछ अन्य व्याख्याकारों के अनुसार, यहां अस्र से तात्पर्य पैग़म्बरे इस्लाम के उदय का समय है, जो मानव समाज के क्षितिज पर इस्लाम के उदय और सत्य की असत्य पर जीत का समय है।
दूसरी आयत कहती है कि निःसंदेह इंसान घाटे में है। इंसान अपने अस्तित्व की पूंजी को चाहें या न चाहें, खो देते हैं। उम्र के घंटे, दिन, महीने और साल तेज़ी से बीत जाते हैं, भौतिक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं और इंसान कमज़ोर पड़ जाता है।
जैसा कि एक दिल निर्धारित बार धड़कने की शक्ति रखता है, और जब वह शक्ति समाप्त हो जाती है, दिल धड़कना बंद कर देता है, बिना किसी बीमारी या दूसरे कारण के। इंसान के शरीर के अन्य अंग भी इसी तरह से हैं। इस्लाम के निकट दुनिया एक बाज़ार की भांति है। इमाम हादी (अ) फ़रमाते हैं, दुनिया एक ऐसा बाज़ार है, जहां कुछ लोग लाभ उठाते हैं और अन्य कुछ घाटा। बेलगाम काम वासना एवं इच्छाओं के कारण इंसान को इस बाज़ार में घाटे और पतन का ख़तरा है, सिवाए एक समूह के और वे वह लोग हैं जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य अंजाम दिए और एक दूसरे को सत्य एवं धैर्य की सिफ़ारिश करते हैं।
अल्लामा सैय्यद मोहम्मद हुसैन तबातबाई इस संदर्भ में कहते हैं, इंसान हमेशा ज़िंदा रहने वाला जीव है और मौत से उसकी जीवन समाप्त नहीं होता है। वास्तव में उसकी मौत, एक घर से दूसरे घर की ओर स्थानांतरण है। इंसान के जीवन का एक भाग जो यही दुनियावी ज़िंदगी है, एक इम्तेहान है, जो उसके दूसरे भाग यानी परलोक के जीवन का भाग्य निर्धारित करता है।
जिन लोगों को उस दुनिया में सुख व कल्याण प्राप्त होगा या वहां अभाग्य रहेंगे, वह इस सुख व दुख का प्रबंधन इसी दुनिया में करते हैं। इंसान का जीवन उसकी पूंजी है। इस जीवन में ही वह उस दुनिया में सुखी जीवन की तैयारी करता है। अगर वह विश्वास और व्यवहार में सत्य का अनुसरण करेगा, तो उसका यह व्यापार लाभकारी होगा। लेकिन अगर असत्य का अनुसरण करेगा तो तो उसका यह व्यापार घाटे का सौदा होगा। उसने न केवल उम्र की पूंजी में कोई वृद्धि नहीं की है, बल्कि इस पूंजी को अपना भविष्य बर्बाद करने के लिए इस्तेमाल किया है और उस दुनिया में कल्याण प्राप्ति से ख़ुद को वंचित कर लिया है। इसलिए सूरए अस्र में इंसान का ध्यान इस बिंदु की ओर आकर्षित किया गया है।
सूरए अस्र की तीसरी आयत में एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया है, जिसे अंजाम देकर इंसान घाटे से बच सकता है। पहले ईमान को पेश किया गया है, जो इंसान की समस्त गतिविधियों की बुनियाद है। इसलिए कि इंसान के कर्म उसके विश्वासों का आइना हैं। यही कारण है कि समस्त ईश्वरीय दूतों ने सबसे पहले लोगों के विश्वासों में सुधार का प्रयास किया है, विशेष रूप से उन्होंने समस्त बुराईयों की जड़ अनेकेश्वरवाद से संघर्ष किया।
इसके बाद इस आयत में मुक्ति की गारंटी के रूप में अच्छे कर्मों को पेश किया गया है। अच्छे कर्म वह उचित कार्य हैं, कि जो न केवल इबादतों, दान देने, जेहाद करने और ज्ञान प्राप्त करने से विशेष हैं, बल्कि इसमें हर वह अच्छा काम शामिल है, जिससे इंसान को उत्कृष्टता प्राप्त हो और समस्त क्षेत्रों में मानव समाज के विकास का कारण बने। ईमान और अच्छे कर्मों की निरंतरता के लिए सभी को सत्य का निमंत्रण देना चाहिए और एक दूसरे से धैर्य और सब्र की सिफ़ारिश करनी चाहिए।