मार्गदर्शन-19
सूरे निसा की आयत संख्या 82 में ईश्वर कहता है कि क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते?
यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो निश्चय ही वे इसमें बहुत से मतभेद पाते।
इसी प्रकार सूरे मुहम्मद की 24 वीं आयत में ईश्वर कह रहा है कि क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते या उनके दिलों पर ताले लगे हैं?
ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में सोच-विचार का निमंत्रण दिया है। यह सही बात है कि किसी भी बात को बिना सोचे समझे मान लेने के ग़लत परिणाम भी आ सकते हैं। क़ुरआन हमसे कहता है कि उसकी आयतों में अधिक से अधिक सोच-विचार करें।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई का मानना है कि क़ुरआन में सोच-विचार बहुत ज़रूरी है। वे कहते हैं कि इसके कई चरण हैं और पहला चरण क़ुरआन को पढ़ना तथा उसके शाब्दिक अर्थ को समझना है। वे कहते हैं कि इस चरण तक पहुंचने के लिए भी पहले पवित्र क़ुरआन के पढ़ने की शिक्षा आवश्यक है। वरिष्ठ नेता कहते हैं कि जो लोग इस चरण को पार नहीं करते उन्हें इस आसमानी किताब को पढ़ने में कठिनाइयां आती हैं और कभी-कभी वे बीच रास्ते से ही रह जाते हैं। वे कहते हैं कि हमें बचपन से ही क़ुरआन पढ़ने का प्रयास करना चाहिए ताकि बड़ा होने पर बच्चे में क़ुरआन के प्रति लगाव पैदा हो और वह पूरे मन और ध्यान के साथ उसकी तिलावत कर सके।
ईरान के एक महान दर्शनशास्त्री और जानेमाने विद्वान मुल्ला सद्रा ने पवित्र क़ुरआन के सूरे वाक़ेआ की व्याख्या में लिखा है कि मैंने बहुत से विद्वानों की किताबें पढ़ीं जिसके बाद मेरे मन में यह विचार आया कि मैं बहुत महत्वपूर्ण हूं और मुझको बहुत कुछ आता है। वे कहते हैं कि जब मेरे भीतर थोड़ी सी दूरदर्शिता जागी तो मैंने पाया कि वास्तविक ज्ञान से तो मैं बहुत दूर हूं। अपनी आयु के अन्तिम दिनों में मैंने पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों में सोच-विचार करने का मन बनाया। अब मुझको पता चला कि मैं अबतब तक ग़लती पर था। वास्तविकता यह है कि मैं अबतक प्रकाश की जगह अंधेरे में खड़ा था। यह बात समझने के बाद मुझको बहुत पछतावा हुआ। वे कहते हैं कि ईश्वर की ओर से मेरा मार्गदर्शन हुआ और मैंने क़ुरआन में सोच-विचार आरंभ किया। जब मैंने सोच-विचार और चिंतन-मनन आरंभ किया तो फिर मेरे सामने से पर्दे हटने लगे। मुझको लगा कि फरिश्ते मुझसे कह रहे हैं तुमपर सलाम हो। आपका स्वागत है। आइए और यहां पर सदैव रहिए।
मुल्ला सद्रा आगे कहते हैं कि अब जब मैंने सोच-विचार करने के बाद पवित्र क़ुरआन की व्याख्या आरंभ की है तो मैं यह बात निःसंकोच कह सकता हूं कि पवित्र क़ुरआन ऐसा महासागर है जिसके भीतर ईश्वर की कृपा के बिना नहीं जाया जा सकता। वे कहते हैं कि क़ुरआन की सूक्ष्मताओं तक पहुंचने के लिए सोच-विचार करना बहुत ज़रूरी है। वे कहते हैं कि क़ुरआन में चिंतन-मनन कर अर्थ है उसे पढ़ना, उसके शाब्दिक अर्थों को समझना और उसके बाद उसकी गहराई में जाना जिसके बारे में उसमें कहा गया है क्योंकि क़ुरआन में बहुत गहराई पाई जाती है। जो भी व्यक्ति इसमें जितनी सीमा तक सोच-विचार करेगा वह उसी अनुपात में परिणाम हासिल करेगा।
आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि क़ुरआन पढ़ने वाले बहुत से लोग आयतों में ग़ौर नहीं करते। वे कहते हैं कि जब आप किसी विद्वान की बात सुनते हैं और उसको समझना चाहते हैं तो आपके लिए आवश्यक है कि उसमें सोच-विचार कीजिए। कोई भी किताब जब आप पढ़ते हैं तो उसको समझने के लिए आपको अवश्य बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है। यदि कोई क़ुरआन को केवल पढ़ता और सोच-विचार नहीं करता तो निश्चित रूप से वह उस बात को समझ नहीं सकेगा जो क़ुरआन कहना चाहता है। स्वयं क़ुरआन कहता है कि मुझको केवल मौखिक रूप में न पढ़ों बल्कि इसके भीतर सोच-विचार करो। क्योंकि क़ुरआन में बहुत सारा ज्ञान पाया जाता है अतः उसके समझने के लिए बहुत अधिक सोच विचार की आवश्यकता है।
वरिष्ठ नेता के अनुसार पवित्र क़ुरआन की आयतों में सोच-विचार करने का एक अन्य मार्ग, हर आयत को पूरे ध्यान से पढ़ना और उसके बाद किसी विश्वस्त व्याख्याकार की उस आयत के बारे में व्याख्या को पढ़ना है। व्याख्या या तफसीर पढ़ने से हमें आयतों के बारे में विस्तृत जानकारी हो जाती है जिससे हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। यहां पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य किसी भी आयत की अपनी इच्छानुसार व्याख्या न करे। हर व्यक्ति को इस बात से बचना चाहिए। वरिष्ठ नेता ने बल देकर कहा कि क़ुरआन को केवल पढ़ने से अच्छा यह है कि पढ़ते समय उसमे अधिक से अधिक ध्यान दिया जाए। वे कहते हैं कि धार्मिक बातों को समझने के लिए गहराई में जाने की आवश्यकता होती है। (पवित्र क़ुरआन में सोच-विचार और अधिक ग़ौर करने का एक अन्य मार्ग, पहले उसकी आयतों को पूरे ध्यान से सुनना है। इस बारे में स्वंय क़ुरआन कहता है कि जब क़ुरआन की आयतें पढ़ी जाएं तो उसे ख़ामोशी से ग़ौर से सुनो। शायद तुमपर ईश्वर की कृपा हो जाए। इससे पता चलता है कि ख़ामोशी से क़ुरआन सुनने से जहां इसको समझने में आसानी होती है वहीं पर सुनने वाले पर ईश्वर की कृपा ही हो सकती है। कहते हैं कि सृष्टि के संचालन, प्रलय, आस्था या विश्वास, नैतिकता और इसी प्रकार के अन्य विषयों में सोच-विचार करने से मनुष्य की बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकता है।
वरिष्ठ नेता क़ुरआन को याद करने या उसे कंठस्त करने को भी चिंतन मनन का ही एक भाग मानते हैं। एक बार क़ारियों को संबोधित करते हुए आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा था कि क़ुरआन का याद करना, उसमें सोच-विचार की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वे युवाओं को संबोधित करते हुए कहते हैं कि आप युवाओं को याद रखना चाहिए कि युवाअवस्था, किसी भी बात को स्मरण करने या याद रखने का बेहतरीन काल होती है।
वे कहते हैं कि इस्लामी शिक्षाओं में क़ुरआन पढ़ने, उसे समझने और उसकी आयतों में चिंतन-मनन करने की सिफ़ारिश केवल इसलिए की गई है ताकि मनुष्य, इस्लामी बातों को भलिभांति समझकर ईश्वर की ओर क़दम बढ़ाए। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि पवित्र क़ुरआन और वे दुआएं जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से हमतक पहुंची हैं उनमें ग़ौर करने से हमें इस्लामी बातों का ज्ञान बहुत अच्छे ढंग से हो जाएगा। वास्तविक इस्लाम को समझने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे कहते हैं कि कभी-कभी एसा होता है कि मनुष्य भावुक होकर उपासना करने लगता है। ऐसी उपासना से उसको कोई लाभ नहीं पहुंचता क्योंकि जबतक दिल की गहराई से ईश्वर का ध्यान न किया जाए तो उससे कोई लाभ होने वाला नहीं। इससे पता चलता है कि धर्म को समझने के लिए बहुत गहराई में जाना चाहिए उसी समय ईश्वर के संदेश को उचित ढंग से समझा जा सकता है।
इस बारे में इमाम अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि क़ुरआन में बहुत अधिक सोच-विचार करो ताकि उससे कुछ सीख सको। इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम क़ुरआन पढ़ने से पहले जब उसे हाथ में लेते थे तो ईश्वर से कहते थे कि हे ईश्वर! मुझको उन लोगों में से बना कि मैं तेरे कथनों से शिक्षा प्राप्त करूं और तेरी अवहेलना करने से बचूं। हे ईश्वर, क़ुरआन को पढ़ते समय मेरी आंखों पर अज्ञानता के परदे न डाल। मेरे क़ुरआन पढ़ने को बिना समझे पढ़ने वाला न बना। मेरी तिलावत को बिना सोचे-समझे तिलावत करने वालों जैसी न बना बल्कि मुझको एसा क़ुरआन पढ़ने वाला बना कि मैं पढ़ते समय उसमें ग़ौर करके उसकी गहराई को समझूं। वास्तव में हे ईश्वर, तू अत्यंत कृपाशील है।