Feb ०५, २०१७ १५:५५ Asia/Kolkata

हमने सलफ़ियों या तकफ़ीरियों की दृष्टि से एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद जैसे विषयों पर चर्चा की थी। 

सलफ़ियों ने इन इस्लामी विषयों को अपने ढंग से परिभाषित किया है।  उनकी सभी परिभाषाएं इस्लाम की मूल शिक्षाओं से खुला विरोधाभास रखती हैं।  ईश्वर को अनन्य मानना इस्लाम का महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसे “तौहीद” कहा जाता है।  तौहीद या एकेश्वरवाद के मुक़ाबले में अनेकेश्वरवाद है जिसे “शिर्क” कहा जाता है।  इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार अनेकेश्वरवाद महापाप है।  जो भी इस महापाप को करता है वह इस्लाम से निकल जाता है।  वहाबियों के लिट्रेचर में तौहीद और शिर्क अर्थात एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद जैसे शब्दों का अधिकता से प्रयोग देखने को मिलता है।  वे लोग इन विषयों को सबसे अधिक अपनी चर्चाओं में उठाते हैं।

तौहीद का एक अर्थ यह है कि उपासना केवल ईश्वर से विशेष है।  इस हिसाब से ईश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य उपासना योग्य नहीं है।  मुसलमान अपनी दैनिक नमाज़ में कम से कम दस बार इस वाक्य को दोहराता है कि हम केवल तेरी ही उपासना करते हैं।  एकेश्वरवाद पर विश्वास रखने वाला यह मानता है कि सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है और वह ही उसका संचालक है।  सृष्टि के संचालन में ईश्वर किसी अन्य से कोई सहायता नहीं लेता न ही उसका कोई सलाहकार है।

Image Caption

 

एकेश्वरवादियों की आस्था के विपरीत, अनेकेश्वरवादी यह मानते हैं कि सृष्टि के संचालन के कुछ कामों में ईश्वर, दूसरों से सहायता लेता है।  उनका यह मानना है कि सृष्टि के संचालन के कुछ कामों को ईश्वर ने दूसरों के हवाले कर रखा है और उनका संचालन वे ही करते हैं।  यही कारण है कि वे लोग अपने बहुत से कामों में इन लोगों से सहायता मांगते हैं और उनके आगे सिर झुकाते हैं।  ऐसे में यह कहा जा सकता है कि ईश्वर की सही उपासना यह है कि उसकी उपासना की जाए जो सृष्टि के संचालन में किसी की सहायता का मोहताज न हो और अकेले ही पूरी सृष्टि के संचालन की क्षमता रखता हो।  यही वास्तविक एकेश्वरवाद है।

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हर उपासना, वास्विक उपासना नहीं हो सकती।  वास्तविक उपासना यह है कि पूरी निष्ठा के साथ ईश्वर की इबादत की जाए।  इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर के साथ ही किसी अन्य की उपासना शिर्क है जो ईश्वर को बिल्कुल भी पसंद नहीं है।  यही कारण है कि शिरक महापाप है।

शिर्क के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि प्रलय के दिन ईश्वर कहेगा कि आज मैं केवल उन्हीं कर्मों को स्वीकार करूंगा जो पूरी निष्ठा के साथ केवल मेरे लिए किये गए थे।  इससे यह बात समझ में आती है कि ईश्वर की उपासना पूरी निष्ठा के साथ ही की जाए तो स्वीकार्य है अन्यथा नहीं।  यह वास्तविकता है कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य किसी भी स्थिति में उपासना योग्य नहीं है।  वहाबियत और इस्लाम की मूल शिक्षाओं में सबसे बड़ा अंतर यह है कि तौहीदे इबादी या उपासना में केवल ईश्वर की ही उपासना जैसे विषय को यह भ्रष्ट विचारधारा ठीक से समझ ही नहीं सकी जिसके कारण वहाबी जिसे चाहते हैं मुशरिक या एकेश्वरवाद विरोधी घोषित कर देते हैं।

मूल रूप से तौहीद को कुछ भागों में विभाजित किया गया है।  जैसे तौहीदे रुबीबी और तौहीदे उलूही।  पहली वाली तौहीद को रचना के अर्थ में बताया गया है जबकि दूसरी वाली को उपासना के अर्थ में देखा जाता है।  सभी मुसलमानों का यह मानना है कि सृष्टि का रचयिता केवल ईश्वर है किंतु वहाबियों का मानना है कि बहुत से मुसलमान तौहीदे उलूही में दिगभ्रमित हो गए हैं।  वहाबियों का कहना है कि ईश्वरीय दूतों या महापुरूषों से सहायता मांगने जैसा काम शिर्क है।  वहाबियों ने जिस प्रकार तौहीद या एकेश्वरवाद की मनमानी परिभाष कर रखी है उसी प्रकार से उन्होंने कुफ़्र शब्द की भी मनमानी परिभाषा कर रखी है।

Image Caption

कुफ़्र एक ऐसा शब्द है जिसके कई अर्थ हैं जैसे इन्कार करना, अवज्ञा, निरादर, सच्चाई को छिपाना या अधर्मी आदि।  पवित्र क़ुरआन में कुफ़्र शब्द को दो प्रकार से प्रयोग किया गया है जिसका एक का अर्थ होता है इस्लाम से निकल जाना।  इस बात का उल्लेख सूरए बक़रा की आयत संख्या 34 और माएदा की 17 तथा 73 में किया गया है।  खेद की बात यह है कि वहाबी या सलफ़ी, कुफ़्र या काफ़िर शब्द को मनमाने ढंग से परिभाषित करते हैं।  पवित्र क़ुरआन का हवाला देकर वहाबी इस शब्द का खुलकर दुरूपयोग करते हैं।  वे उन मुसलमानों को भी काफ़िर कहकर प्रताणित करते हैं जो उनकी विचारधारा का अनुसरण नहीं करते।  वहाबी उन मुसलमानों पर शिरक का आरोप लगाकर उनकी हत्याएं करते हैं जो ईश्वरीय दूतों, पैग़म्बरे इस्लाम (स) या उनके पवित्र परिजनों का हवाला देकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।  यदि इस बात पर ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि काफ़िर शब्द की मनमानी परिभाषा करके वहाबी, क़ुरआन के नाम पर खुले आम इस्लाम विरोधी कार्यवाहियां कर रहे हैं।

पवित्र क़ुरआन में प्रयोग हुए शब्दों में से एक शब्द ईमान भी है।  ईमान का शाब्दिक अर्थ होता है पुष्टि करना।  ईमान शब्द की व्याख्या करते हुए हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि इसका अर्थ है मौखिक रूप से स्वीकार करना, उसे व्यवहारिक बनाना और हृदय की गहराई से उसे पहचानना।

Image Caption

 

अतिवादी वहाबी विचारधारा के अनुसार ईश्वर को मौखिक रूप से स्वीकार करने और उसको मन की गहराई से मानने के बावजूद पाप करने के कारण मनुष्य का ईमान नष्ट हो जाता है।  इस प्रकार वह व्यक्ति काफ़िर हो जाता है।  वहाबियों के अनुसार एसी स्थिति में मनुष्य को दंडित किया जाना चाहिए।  अपनी भ्रष्ट विचारधारा के अनुसार वहाबी, मुसलमानों को भी काफ़िर घोषित करते हैं।  वहाबी विचारधारा के अनुसार समाज दो भागों में विभाजित है।  एक वर्ग ईमानदार लोगों का और दूसरा वर्ग, उनका जो ईमान नहीं रखते।  इस बारे में आतंकवादी गुट दाइश के स्वयंभू ख़लीफ़ा अबूबक्र बग़दादी का कहना है कि संसार में दो प्रकार के लोग हैं ईमान वाले और काफ़िर।  बग़दादी के अनुसार संसार में रहने वाले लोगों की कोई तीसरी क़िस्म नहीं है और ईमान वालों के अतिरिक्त जो भी लोग हैं वे या तो दाइश की विचारधारा को स्वीकार करके उसका अनुसरण करें अन्यथा दंड भोगने के लिए तैयार रहें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वहाबी विचारधारा से प्रभावित सभी अतिवादी एवं चरमपंथी गुट अपनी भ्रष्ट विचारधारा के आधार पर इस्लाम विरोधी कार्यवाहियां करते हुए पूरे विश्व में क़ुरआन, इस्लाम और मुसलमानों को खुलकर बदनाम कर रहे हैं।  

Image Caption

 

 

  

 

टैग्स