तकफ़ीरी आतंकवाद-44
हमने दाइश की विचारधारा के आधार के बारे में चर्चा की थी।
हमने संक्षेप में जेहाद और ईमान जैसे इस्लामी विषयों के बारे में दाइश की ग़लत व्याख्या के बारे में चर्चा की थी। इसी विषय को हम आज और आगे बढ़ाते हैं।
इस्लामी शिक्षाओं के हिसाब से जो भी व्यक्ति मौखिक रूप में कलमा पढ़ता है वह मुसलमान कहलता है। इसका दूसरा चरण है ईमान, जो व्यवहार पर आधारित है। कोई भी व्यक्ति कलमा पढ़कर मुसलमान हो जाता है और इस्लामी शिक्षाओं का जब वह व्यवहारिक रूप से पालन करता है तो मोमिन कहलाता है। मुसलमान और ईमान की यही परिभाषा है किंतु वहाबी विचारधारा में इसको दूसरे ढंग से परिभाषित किया गया है। वहाबी विचारधारा विशेषकर दाइशी आतंकवादियों के निकट मुसलमान और मोमिन की परिभाषा बिल्कुल अलग है। जो भी व्यक्ति वहाबी विचारधारा को स्वीकार नहीं करता वह मुसलमान नहीं बल्कि काफ़िर है और उसकी हत्या की जा सकती है। वर्तमान समय में जितने भी आतंकवादी गुट इस्लाम के नाम पर मारकाट कर रहे हैं वे सब ही वहाबी विचारधारा से प्रभावित हैं। वे लोग सलफ़ी मुफ़्तियों के फ़त्वों को आधार मानते हैं। सलफ़ी या वहाबी मुफ़्तियों ने जेहाद को अपने हिसाब से परिभाषित किया है और वे उसी का प्रचार भी करते हैं। जो व्यक्ति जेहाद करता है उसे मुजाहिद कहा जाता है। वहाबियों का मानना है कि इस्लाम को ज्ञानी से पहले मुजाहिद की ज़रूरत है। उनके हिसाब से जेहाद, ज्ञान प्राप्ति से भी पहले ज़रूरी है।
जेहाद अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है संघर्ष। वहाबी विचारधारा में मारकाट, हत्या और ख़ून-ख़राबे को जेहाद कहा जाता है। वहाबी, विचारधारा के लोग धर्मभ्रष्टों, मिथ्याचारियों और शिया मुसलमानों को अपना शत्रु मानते हैं और उनके विरुद्ध जेहाद करना उनके निकट आवश्यक है। वहाबियों के निकट एसे लोगों की हत्या करना पुण्य है और इससे स्वर्ग की प्राप्ति संभव है।
वर्तमान समय में दाइश सहित वहाबी विचारधारा से प्रभावित अतिवादी गुट, इराक़ और सीरिया में जो कुछ कर रहे हैं वह इसी का परिणाम है। उनकी यह सोच, मुसलमानों के दो प्रमुख संप्रदायों सुन्नी और शिया मुसलमानों की धार्मिक विचारधारा के बिल्कुल वितरीत है। वहाबी विचारधारा से प्रभावित अतिवादी गुट, अपने अतिरिक्त दूसरों को ईश्वर का शत्रु बताकर उनका जनसंहार कर रहे हैं और उनकी धन-संपत्ति लूट रहे हैं। मुसलमान धर्मगुरूओं का मानना है कि सशस्त्र संघर्ष का नंबर बहुत बाद में आता है पहले चरण में इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती।
पवित्र क़ुरआन के अनुसार लोगों को ईश्वर का निमंत्रण देने के लिए केवल सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता नहीं है बल्कि इसके कई मार्ग हैं। उदाहरण स्वरूप सूरए नहल की आयत संख्या 125 में कहा गया है कि लोग को अपने रब के मार्ग की ओर तत्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ बुलाओ और उनसे ऐसे ढंग से बहस करो जो उत्तम हो। इससे पता चलता है कि लोगों को ईश्वर का निमंत्रण देने के लिए बहुत से रास्ते हैं। इसी के साथ सूरए बक़रा की आयत नंबर 256 में कहा गया है कि धर्म को स्वीकार करने में किसी भी प्रकार का दबाव नहीं है। इस प्रकार से आप देख सकते हैं कि दाइश ने जेहाद की जो परिभाषा की है वह इस्लामी संप्रदायों में से किसी भी संप्रदाय की विचारधारा से मेल नहीं खाती।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र कथनों में मिलता है कि निकट शत्रुओं से तातपर्य, मदीने के निकटवर्ती यहूदी हैं जिनमें बनी क़ुरैज़, बनी नुज़ैर और ख़ैबर वाले शामिल हैं। पवित्र क़ुरआन में मुनाफ़िक़ों या मिथ्याचारियों को भी खुले हुए दुश्मन के रूप में नहीं पेश किया गया है जबकि उनसे इस्लाम को बहुत नुक़सान पहुंचा है। वास्तविकता यह है कि मुसलमानों के मुख्य शत्रु ज़ायोनी हैं जिन्होंने मुसलमानों की भूमियों पर अवैध ढंग से क़ब़्ज़ा कर रखा है। ज़ायोनियों ने फ़िलिस्तीन, जार्डन, मिस्र, सीरिया और लेबनान के भू-भागों पर नियंत्रण किया है। विशेष बात यह है कि इस्लाम के नाम पर रक्तपात करने वाला आतंकी गुट दाइश, मुसलमानों के वास्तविक शत्रु ज़ायोनी शासन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करता। कार्यवाही तो बहुत दूर की बात वह ज़ायोनियों के विरुद्ध कोई बयान तक जारी नहीं करता जबकि मुसलमानों को काफ़िर बताकर उनका जनसंहार करता रहता है। दाइश ने सूरए बक़रा की आयत संख्या 191 और सूरे मुहम्मद की चार आयतों की मनमानी व्याख्या की है और इस व्याख्या के आधार पर वह मुसलमानों का खुलकर जनसंहार कर रहा है। विशेष बात यह है कि किसी भी मुसलमान व्याख्याकार ने इन आयतों की व्याख्या उस प्रकार से नहीं की है जिस प्रकार से दाइश ने की है। यही कारण है कि मुसलमान व्याख्याकार, दाइश की इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते। पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकारों का कहना है कि यह आयतें मुसलमानों और मक्का के काफ़िरों के बीच युद्ध के समय नाज़िल हई थीं जिनमे उन काफ़िरों के विरुद्ध जेहाद की बात कही गई थी जो मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करते हैं।
अतिवादी तकफ़ीरी विचारधारा के अनुसार जेहाद एक एसा धार्मिक कार्य है जिसे भुला दिया गया है अतः इसे पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। भ्रष्ट वहाबी विचारधारा के अनुयाइयों का कहना है कि हर मुसलमान को जेहाद करना चाहिए और जो भी एसा नहीं करता वह काफ़िर है जिसकी हत्या की जानी चाहिए।
इस्लाम के बारे में आतंकवादी वहाबी विचारधारा के धर्मगुरूओं की जानकारी बहुत सीमित है। अपनी इसी अधूरी जानकारी के आधार पर वे आए दिन फ़त्वे देते रहते हैं। वे जिस प्रकार के फ़त्वे देते हैं उनको सुन्नी और शिया मुसलमानों में से कोई भी स्वीकार नहीं करता क्योकि यह किसी भी पंथ की शिक्षाओं से मेल नहीं खाते। इस्लाम के नाम पर आतंकवादी कार्यवाहियां करने वाले अतिवादी गुट स्वेच्छा से क़ुरआन की आयतों की व्याख्या करके अपनी हिंसक कार्यवाहियों का औचित्य दर्शाते हैं। खेद की बात यह है कि तकफ़ीरी विचारधारा से प्रभावित आतंकवादी गुट, अपने ग़ैर इस्लामी कृत्यों को इस्लामी कर्म के रूप में दर्शाते हैं जो बिल्कुल ग़लत है।
जैसाकि हमने आपको बताया कि तकफ़ीकी आतंकवादियों ने जिस प्रकार से पवित्र क़ुरआन की बहुत सी आयतों की मनमाने ढंग से व्याख्या की है ठीक उसी प्रकार से उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ललाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के पवित्र कथनों की भी अपनी इच्छानुसार व्याख्याएं की है। यहां पर हम दाइश द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कथन की की गई व्याख्या का उल्लेख करेंगे जिसके आधार पर उन्होंने पूरे विश्व विशेषकर सीरिया में उत्पात मचा रखा है।
इस्लामी शिक्षाओं में संसार की समाप्ति का उल्लेख मिलता है जिसे “आख़ेरुज़्ज़मान” के नाम से याद किया गया है। आख़ेरुज़्ज़मान वास्वत में प्रलय आने से पहले के काल को कहा गया है। यह काल पैग़म्बरे इस्लाम के शुभ जन्म से आरंभ होता है और प्रलय आने तक जारी रहेगा। इस काल में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं घटेंगी जिनकी भविष्यवाणी पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी की है। इस्लामी शिक्षाओं के हिसाब से इन घटनाओं का घटना निश्चित है।
अब हम अपने मूल विषय पर आते हैं कि भ्रष्ट अतिवादी विचारधारा के अनुयाई दाइश ने आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों की ग़लत और मनमानी व्याख्या की है। उदाहरण स्वरूप कुख्यात आतंकवादी गुट दाइश की प्रचारिक पत्रिका का नाम है “दाबिक़”। दाइश ने अपनी प्रचारिक पत्रिका का नाम दाबिक़, अकारण नहीं रखा बल्कि उनका कहना है कि हमने यह नाम हदीस के आधार पर रखा है। दाबिक़ वास्तव में सीरिया के हलब प्रांत में स्थित एक छोटा सा नगर है। रणनीतिक दृष्टि से दाबिक़ नगर का कोई विशेष महत्व नहीं है किंतु इसके बावजूद दाइश के आतंकवादियों ने भारी ख़ून-ख़राबा करके दाबिक़ पर नियंत्रण कर लिया। बड़ी संख्या में नरसंहार करने के बाद दाइश ने दाबिक़ पर क़ब्ज़ा करके खुशियां मनाई और एक-दूसरे को बधाई दी।
दाबिक़ पर नियंत्रण करके अपनी विजय की कार्यवाही के बारे में दाइश ने पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन प्रस्तुत किया है। दाइश का कहना है कि यह हदीस, मुसलमानों की विश्वसनीय पुस्तकों में से एक “सही मुस्लिम” में है। यह हदीस इस प्रकार है। प्रलय उस समय तक नहीं आ सकता जबतक रूमी अर्थात रोमवासी, दाबिक़ पर हमला नहीं करते। इस हमले के बाद मदीने के युवाओं की एक सेना दाबिक़ आएगी जो उनका मुक़ाबला करेगी। युद्ध में मुसलमानों के एक तिहाई सैनिक मारे जाएंगे। इसमें मारे जाने वाले, ईश्वर के निकट सबसे अच्छे शहीद होंगे। बाक़ी बचे लोग रूमियों पर विजय प्राप्त करेंगे। वे लोग ही क़ुसतुनतुनिया को आज़ाद करवाएंगे। इसके बाद हज़रत ईसा धरती पर पधारेंगे। जब ईश्वर के शत्रु उन्हें देखेंगे तो वे वैसे ही हो जाएंगे जैसे नमक पानी में घुल जाता है। इस हदीस के अनुसार प्रलय से पहले मुसलमनों की रोमियो से जंग होगी। इस जंग में काफ़ी नुक़सान उठाने के बाद अंततः मूसलमान दाबिक़ पर क़ब्ज़ा करने में सफल होंगे। विशेष बात यह है कि दाइश के अनुसार हदीस में जिस मुसलमान गुट का उल्लेख किया गया है वह हम ही हैं क्योंकि हमने ही दाबिक़ को स्वतंत्र कराया है।
दाइश द्वारा पेश की गई हदीस पर यदि ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि इसमें खुला हुआ विरोधाभास पाया जाता है। पहली बात तो यह है कि रोमी या रोमन वासियों ने सीरिया के दाबिक़ नगर पर कोई आक्रमण नहीं किया। दूसरी बात यह कि जिन लोगों ने दाबिक़ पर हमला करके क़ब्ज़ा किया वे मदीने से नहीं आए। तीसरी बात यह कि हज़रत ईसा के धरती पर पधारने की कहीं से कोई सूचना नहीं है।
इन बातों से सिद्द होता है कि भ्रष्ट विचारधारा से प्रभावित आतंकवादी गुट दाइश, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कथनों की मनमानी व्याख्या करके इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया में आतंक फैलाए हुए हैं। विशेष बात यह है कि पश्चिमी संचार माध्यम बड़ी प्रमुखता से इन अतिवादी गुटों के कुकृत्यों पर इस्लाम का लेबल लगाने में व्यस्त है।