न्याय: एक मोमिन की ज़िन्दगी का घोषणापत्र
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पवित्र क़ुरआन की नज़र में न्याय केवल एक नैतिक आदेश नहीं है, बल्कि एक स्वस्थ और ईश्वरीय समाज के निर्माण के लिए एक बुनियादी एलाही फ़रीज़ा है।
(last modified 2025-07-27T08:16:11+00:00 )
Jul २७, २०२५ १३:४३ Asia/Kolkata
  •  न्याय: एक मोमिन की ज़िन्दगी का घोषणापत्र

पवित्र क़ुरआन की नज़र में न्याय केवल एक नैतिक आदेश नहीं है, बल्कि एक स्वस्थ और ईश्वरीय समाज के निर्माण के लिए एक बुनियादी एलाही फ़रीज़ा है।

क़ुरआन न्याय के लिए एक सटीक और व्यापक मानदंड प्रस्तुत करता है जिसे हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं में लागू किया जा सकता है। न्याय केवल एक अमूर्त अवधारणा नहीं है, बल्कि एक व्यावहारिक दायित्व है जिसे पूरा करने के लिए हर मुसलमान को प्रयास करना चाहिए। अल्लाह क़ुरआन के सूरे निसा में कहता है:

 

"ऐ ईमान वालो! न्याय से काम लो, अल्लाह के लिए साक्षी बनो, चाहे यह तुम्हारे अपने ख़िलाफ़ ही क्यों न हो या माता-पिता और निकट संबंधियों के ख़िलाफ़। अगर वह धनी हो या निर्धन, तो अल्लाह उन दोनों का अधिक ध्यान रखने वाला है। इसलिए न्याय करते समय अपनी इच्छाओं का पालन न करो और यदि तुम तरफ़दारी करो या मुँह मोड़ो, तो निस्संदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से भली-भाँति अवगत है।"

 

यह पवित्र आयत इस्लाम में न्याय का घोषणापत्र है। अल्लाह इस आयत में ईमान वालों को न्याय पर क़ायम रहने का आह्वान करता है। "क़वामिन बिल-क़िस्त" अर्थात न्याय पर स्थिर व क़ायम रहने वाले का अर्थ है वे लोग जो न केवल स्वयं न्यायी हैं, बल्कि समाज में न्याय स्थापित करने के लिए प्रयास करते हैं और इस मार्ग पर दृढ़ता से टिके रहते हैं।

 

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह न्याय अल्लाह के लिए गवाही होना चाहिए, अर्थात न्याय का उद्देश्य अल्लाह की प्रसन्नता हो, न कि व्यक्तिगत या जातीय हित। यह न्याय भेदभाव के बिना लागू होना चाहिए। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हक़दार धनी है या गरीब, मित्र है या शत्रु, रिश्तेदार है या अजनबी। न्याय सभी के लिए समान होना चाहिए।

 

आयत इससे भी आगे बढ़कर कहती है कि न्याय तब भी लागू होना चाहिए जब वह स्वयं के, माता-पिता के या निकट संबंधियों के विरुद्ध हो। यह दर्शाता है कि इस्लाम न्याय के महत्व पर कितना बल देता है।

 

न्याय लागू करने में एक प्रमुख बाधा हवस अर्थात इंसान की आंतरिक इच्छाएँ हैं। व्यक्तिगत इच्छाएँ, पूर्वाग्रह और क्षणिक स्वार्थ हमें न्याय के मार्ग से विचलित कर सकते हैं। इसीलिए अल्लाह चेतावनी देता है कि हम अपनी इच्छाओं का अनुसरण न करें, नहीं तो न्याय से दूर हो जाएँगे।

 

अंत में, आयत यह याद दिलाती है कि अल्लाह हमारे सभी कर्मों को जानने वाला है। यदि हम न्याय करने में कोताही करें या उससे मुख मोड़ें, तो हम अल्लाह के समक्ष जवाबदेह होंगे। mm