इस्लाम और मानवाधिकार-31
अभिव्यक्ति की आज़ादी असीमित नहीं है, बल्कि उसकी कुछ सीमाएं हैं, जिसकी ओर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के दस्तावेज़ों में संकेत किया गया है।
अभिव्यक्ति की स्वीकार्य सीमाएं इस प्रकार से हैं, राष्टीय सुरक्षा, सार्वजनिक सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक नैतिकता और अन्य लोगों के अधिकार और आज़ादी। अर्थात अभिव्यक्ति की आज़ादी के अति महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके नाम पर इन सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर किसी के बयान से दूसरों के अधिकारों को नुक़सान पहुंच रहा है तो यह सीमितता स्वीकार्य होगी और इस अवसर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन नहीं किया जा सकता।
अल्लामा जाफ़री के अनुसार, अभिव्यक्ति की आज़ादी तार्किक होनी चाहिए और अतार्किक नहीं होनी चाहिए। वे तार्किक आज़ादी की इस तरह से परिभाषा करते हैं, स्वयं आज़ादी तार्किक या अतार्किक नहीं होती, बल्कि उसका इस्तेमाल उसे तार्किक या अतार्किक बना देता है। हर वह अभिव्यक्ति की आज़ादी जिससे इंसान को कोई भौतिक या आध्यात्मिक नुक़सान पहुंचे, अतार्किक है और अगर मानवीय नियमों के अनुसार हो तो तार्किक है।
इस्लाम के अनुसार, हर कोई स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए आज़ाद है, लेकिन उसके यह विचार मानवता से विरोधाभास न रखते हों, इससे तात्पर्य इंसानों के भौतिक एवं आध्यात्मिक हित हैं। इस्लाम के अनुसार, अभिव्यक्ति आज़ादी की विशेष सीमाएं हैं, जिनका पालन ज़रूरी है। इन सीमाओं में से एक दूसरों के धार्मिक विश्वासों का अपमान है। अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति या समाज के विकास के लिए लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाना है तो दूसरों के धार्मिक विश्वासों का अपमान और उनके साथ अतार्किक व्यवहार से अपनी बात को सिद्ध करने में न केवल कोई मदद नहीं मिलेगी, बल्कि उससे घृणा बढ़ेगी और प्रतिद्वंद्वी प्रतिक्रिया दिखाने के लिए उत्तेजित होगा। यही कारण है कि इस्लाम मुसलमानों को दूसरों की धार्मिक मान्यताओं के अपमान से रोकता है। क़ुरान के सूरए अनाम की 108वीं आयत में उल्लेख है कि जो लोग अल्लाह के अलावा दूसरों को पुकारते हैं, उन्हें अपशब्द मत कहो, संभवतः वे जिहालत के कारण अल्लाह को अपशब्द कहने लगें।
लोगों के मान-सम्मान और मर्यादा की सुरक्षा और लोगों का अपमान करने से बचना अभिव्यक्ति की आज़ादी की दूसरी सीमितता है। इस्लामी शिक्षाओं में मुसलमानों और समस्त इंसानों के सम्मान पर बहुत बल दिया गया है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, अगर कोई अपने भाई की इज़्ज़त से खेलता है, तो नरक की आग उससे खेलेगी।
समाज की व्यवस्था की सुरक्षा और नियमों का पालन धार्मिक और तार्किक रूप से ज़रूरी है। इसलिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के रूप में समाज की सुरक्षा और हितों को नुक़सान पहुंचाना, वर्जित है। नियमानुसार नागरिकों की आज़ादी की सीमितता, केवल इस्लामी समाज से विशेष नहीं है, बल्कि समस्त समाजों में इस पर बल दिया जाता है।
क़ानून के बाद, इस्लाम में नैतिकता की महत्वपूर्ण भूमिका है। सामाजिक जीवन में नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों की ज़रूरत होती है। इस्लाम के अनुसार, इंसान नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों की उपेक्षा करके अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का लाभ नहीं उठा सकता। इसलिए इस तरह की कोई भी बात कहना जिससे समाज के नैतिक नियमों और सिद्धांतों का उल्लंघन होता हो या इस तरह की बातों या तस्वीरों का प्रसार जिससे नैतिक मूल्यों को नुक़सान पहुंचता हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी के विरुद्ध है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी की एक अन्य सीमितता यह है कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत या सामूहिक विचारों के प्रचार और प्रसार के परिप्रेक्ष्य में भ्रष्ट राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं करनी चाहिए। दूसरी स्थिति में शासन अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित कर सकता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में जब कुछ लोगों ने इस्लामी समाज और मुसलमानों के ख़िलाफ़ षडयंत्रों के लिए एक मस्जिद को अड्डा बना लिया था तो पैग़म्बरे इस्लाम ने उस मस्जिद को हानिकारक मस्जिद का नाम दिया और उसे ध्वस्त करने का आदेश जारी किया। यहां षडयंत्रकारियों को आज़ाद छोड़ देना मुनासिब नहीं था, इसलिए कि यहां धार्मिक विश्वासों को अभिव्यक्त करने का मामला नहीं था, बल्कि सामाजिक व्यवस्था को भंग करने और इस्लामी शासन के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का मामला था।
अनेक मुस्लिम विद्वानों ने अपनी किताबों में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नियम और सिद्धांतों को बयान किया है। उस्ताद शहीद मुतहरी अभिव्यक्ति की आज़ादी को विशेष महत्व देते थे। उनका मानना था कि इंसान को आज़ाद रहना चाहिए, ताकि वह विकास कर सके और उत्कृष्टता तक पहुंच सके। इस विकास के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत है, प्रशिक्षण, शांति और आज़ादी। उनके अनुसार, आज़ाद इंसान वह इंसान है, जो अपने विकास के मार्ग में आने वाली रुकावटों को हटा सके। ऐसे लोग मौजूद हैं, जो रुकावटों के सामने नहीं झुकते हैं। इसलिए जो कोई आज़ादी के नाम पर भ्रष्टाचार और अनैतिकता फैलाता है, वह आज़ादी का विरोधी है। जो कोई सामाजिक मूल्यों को नष्ट करता है, यद्यपि आज़ादी को हथकंडा बनाए, लेकिन वह आज़ादी का समर्थक नहीं है। जो कोई अश्लीलता और बुराईयों को फैलाता है, उसका आज़ादी से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए कि यह प्रयास इंसान के विकास के लिए नहीं हैं।
शहीद मुतहरी अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमितता के बारे में दो बिंदुओं का उल्लेख करते हैं। पहला यह कि यह विकास के मार्ग में हो। दूसरा यह कि अभिव्यक्ति की आज़ादी धोखाधड़ी और भटकाव से दूर हो।
उनका मानना था कि विचारों की आज़ादी का परिणाम अभिव्यक्ति की आज़ादी है, हालांकि यह ध्यान रहे कि दृष्टिकोणों का टकराव, धोखे में रखना नहीं है। धोखे में रखना यानी झूठ और ग़लत प्रचार का सहारा लेना। इसी आधार पर इस्लाम में भटकाने वाली किताबों का बेचना और ख़रीदना हराम है। अर्थात धर्म विरोधी इस्लाम विरोधी किताबें दो प्रकार की हैं। कुछ एक विशेष तर्क और विचारधारा पर आधारित हैं, वास्तव में कोई अपने विचारों को बयान करता है, यहां अभिव्यक्ति की आज़ादी है और इससे मुक़ाबले के लिए तर्क देने की ज़रूरत होती है। लेकिन कभी झूठ और धोखा किया जाता है। उदाहरण स्वरूप, अगर कोई किसी आयत या ऐतिहासिक बात को अपनी किताब में तोड़ मरोड़ को पेश करता है, ताकि उसका अपनी इच्छा अनुसार मतलब निकाल सके, तो क्या ऐसी किताब को प्रकाशित होने से रोकना अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिबंध है? अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ है अपने विश्वासों और विचारों को ज़ाहिर करना, न कि झूठे तरीक़े से और इस्लाम के नाम पर अपने ग़लत विचारों का प्रचार प्रसार करना।
इस्लाम द्वारा ग़लत विचारों के प्रचार से रोकने के संबंध में अल्लामा जाफ़री का मानना है कि, अगर इंसान के विचार इतने उच्च हों कि वह अवास्तविक विचारों को बयान नहीं करेगा और उस बयान को सुनने वाला और उसको पढ़ने वाला भी काफ़ी जानकारी रखता हो तो पूर्णतः अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन क्या वास्तविकता यही है? क्या समाज में बयान करने वाले, सुनने वाले और पाठक अबू रीहान बेरूनी, फ़ाराबी, इब्ने सीना और अन्य विद्वानों की भांति दर्शशास्त्र और अन्य विषयों में इतने दक्ष हैं कि जो कुछ कहेंगे वह बहुत ही नपा तुला होगा? क्या पूर्णतः और असीमित अभिव्यक्ति का बचाव किया जा सकता है और उसे हर किसी के लिए और हर परिस्थिति में लागू किया जा सकता है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी धार्मिक और राजनीतिक मामलों में समाज के विभिन्न लोगों के लिए अपने विचारों को प्रकट करने की आज़ादी है, जिसे इस्लाम में बहुत महत्व दिया गया है। यह व्यक्तिगत भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रतिभा के विकास का कारण बनती है। यही कारण है कि इस्लाम की शिक्षाओं, क़ुरान की विभिन्न आयतों और रिवायतों में उसे न केवल एक अधिकार के रूप में बल्कि एक धार्मिक ज़िम्मेदारी के रूप में सबके लिए अनिवार्य किया गया है।
धार्मिक शिक्षाओं, मूल अधिकारों के स्रोतों और विश्व के अनेक बुद्धिजीवियों के अनुसार, अभिव्यक्ति की आज़ादी उस वक़्त प्रासंगिक होती है, जब उसे तार्किक रूप में लागू किया जाए। इसलिए असीमित और अनियंत्रित आज़ादी लोगों की बर्बादी का कारण बनती है।