May ३०, २०१७ १५:२६ Asia/Kolkata

इमाम हसन अलैहिस्सलाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सुपुत्र थे। 

उनकी माता का नाम फ़ातेमा ज़हरा था।  वे पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बड़े नवासे थे।  अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद मुस्लिम समाज के संचालन जैसे महत्वपूर्ण कार्य का दायित्व उनसे छीन लिया गया।  हालांकि ईश्वरीय दायित्व के निर्वाह में उन्होंने भरसक प्रयास किया और यह काम उनकी आयु के अन्तिम समय तक जारी रहा।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम को करीमे अहलेबैत की उपाधि दी गई है।  इसका मुख्य कारण यह है कि इमाम हमेशा दीन-दुखियों और भूखों को खाना खिलाया करते थे।  कहते हैं कि उनके दस्तरख़ान पर हमेशा लोगों की भीड़ रहती थी।  इमाम हसन ने अपने जीवनकाल में तीन बार अपनी सारी संपत्ति ईश्वर के मार्ग में लोगों को देदी थी।  अपने इस कार्य से इमाम हसन ने यह बताने का प्रयास किया था कि उन्हें नश्वर संसार की धन-संपत्ति से कोई लगाव नहीं है।

 

इमाम की दान-दक्षिणा के बारे में बताया गया है कि वे कभी भी मांगने वाले को मना नहीं करते थे।  उनके दर से कोई भी मांगने वाला खाली हाथ वापस नहीं जाता था।  जब किसी ने उनसे यह पूछा कि आप क्यों किसी मांगने वाले को मना नहीं करते तो इसपर इमाम हसन ने कहा था कि मैं स्वयं ईश्वर की बारगाह मे सवाली हूं और उसकी कृपा के सहारे उससे कुछ मांगता हूं।  एसे में मुझको शर्म आती है कि एक ओर तो मैं, ईश्वर के सामने हाथ फैलाऊं और दूसरे ओर जो मेरी ओर हाथ फैला रहा है उसको मना करूं।  ईश्वर मुझको अपनी अनुकंपाएं देता है और मैं उनको मांगने वालों को दे देता हूं।

विख्यात धर्मगुरू शेख सदूक़ अपनी एक पुस्तक में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बारे में लिखते हैं कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि हसन बिन अली अपने समय के सबसे नेक और सदाचारी इंसान थे।  वे ग़रीबों और वंचितों की सहायात करते और भूखों को खाना खिलाते थे।  उन्होंने अपने जीवन में कम से कम 20 बार पैदल हज किया था।  इमाम हसन अलैहिस्सलाम के मुख पर विशेष प्रकार का तेज था।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई, इमाम हसन के मार्गदर्शन के बारे में एक कथन का उल्लेख करते हुए  कहते हैं कि एक बार ईद के दिन वे कहीं जा रहे थे।  इमाम हसन ने देखा कि एक स्थान पर कुछ लोग खेल रहे हैं।  उन्होंने देखा कि ईद जैसे महत्वपूर्ण दिन भी कुछ लोग इसके महत्व को अनदेखा करते हुए खेलकूद में व्यस्त हैं और हंस रहे हैं।  इमाम उन लोगों के निकट गए।  वहां पर जाकर उन्होंने खेलने वालों को संबोधित करते हुए कहा कि ईश्वर ने पवित्र    रमज़ान को अपने बंदों के लिए प्रतिस्पर्धा के लिए बनाया।  उन्होंने कहा कि ईश्वर चाहता है कि इस पवित्र महीने में उसकी इबादत करते हुए अन्य लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ने का प्रयास करो।  जो रमज़ान अभी गुज़रा है उसमे बहुत से लोग इस प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ने में सफल रहे।  इस प्रकार से यह लोग सफल हो गए।  हालांकि कुछ लोग उनके विपरीत आलस के कारण प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए।  वे लोग ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने में विफल रहे।  इमाम हसन ने कहा कि एसे में बड़े आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग ईद जैसे महान दिन खेलकूद में व्यस्त हैं।  आज जब कि सफल होने वाले अपना पुरस्कार प्राप्त कर रहे हैं कुछ लोग विफल होने के बावजूद हंस-खेल रहे हैं।  घाटा उठाने वालों का घाटा, उन्हें बहुत नुक़सान पहुंचाएगा।  आज ईद है।  ईद का दिन बहुत महान है।  यह क़यामत की भांति है।  यह वह दिन नहीं है जिसे इंसान निश्चेतता के साथ गुज़ार दे।  अंत में इमाम कहते हैं कि यदि अज्ञानता के पर्दे हमारी आंखों से हट जाएं और हम वास्तविक दृष्टि से देखें तो हमको पता चलेगा कि नेकी करने वाले किस तरह से अपना बदला ले रहे हैं।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम को अपने जीवनकाल में तत्कालीन शासक के उत्पीड़न का सामना रहा।  सच के मार्ग पर चलने के कारण माविया ने उन्हें हर हिसाब से सताया और परेशान किया।  उनके निष्ठावान साथियों की संख्या बहुत कम थी।  कम संख्या के आधार पर वे कोई भी अभियान नहीं चला सकते थे।  उनका इस बात से भलिभांति अनुमान था कि इस कम संख्या के सहारे यदि वे तत्कालीन शासक के विरुद्ध कोई भी अभियान चलाते हैं तो सारे साथी मारे जाएंगे और इस्लाम गंभीर ख़तरे में पड़ जाएगा।

 

इमाम हसन अलैहिस्सलाम के जीवनकाल की कठिनाइयों के बारे में ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहत हैं कि अपने काल की सामाजिक परिस्थितियों के कारण इमाम अली शहीद कर दिये गए।  उसके बाद इमाम हसन की इमामत का काल आरंभ हुआ।  जब उनकी इमामत या ईश्वरीय मार्गदर्शन का काल आरंभ हुआ तो उस समय वे बिल्कुल अकेले रह गए थे।  उनके बहुत थोड़े से अनुयाई थे।  इमाम हसन जानते थे कि अपने मुट्ठीभर साथियों के सहारे वे माविया से नहीं टकरा सकते क्योंकि एसा करने की स्थिति में उनकी शहादत के बाद इस्लाम की शुद्ध शिक्षाओं को नष्ट कर दिया जाएगा और इस्लाम के नाम पर अंधविश्वास और ग़लत परंपराओं को समाज में प्रचलित कर दिया जाएगा।  वे जानते थे कि इस स्थिति में सामाजिक पतन बहुत तेज़ी से होने लगेगा।  इमाम हसन यह भी जानते थे कि मेरी शहादत के बाद माविया के दुष्प्रचार के कारण लोग यह कहने लगेंगे कि इमाम ने माविया का विरोध क्यों किया?  उनको माविया के विरुद्ध नहीं उठना चाहिए था।  इन सब बातों को देखते हुए इमाम हसन ने धैर्य और संयम से काम लिया।  उन्होंने कठिनाइयों का डटकर मुक़ाबला किया।  उनकी इस शैली के बारे में आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि कभी-कभी ज़िंदा रहने की तुलना में शहीद हो जाना सरल होता है जबकि कभी-कभी ठीक इसके विपरीत, कठिन परिस्थितियों में शत्रु की चालों का मुक़ाबला करते हुए जीवित रहना बहुत कठिन कार्य बन जाता है।  इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने कुछ एसा ही किया था।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस बात को भलिभांति जानते थे कि उनकी शहादत के बाद हालात को माविया के अत्याचारी शासन के हित में मोड़ दिया जाएगा और उनकी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी।  इन्ही बातों के दृष्टिगत उन्होंने शांति समझौता किया था।  इस संबन्ध मे इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यह बात बहुत सी किताबों मे लिखा हुई है और मैंने भी कई बार कहा है कि इमाम हसन ने जिन परिस्थितियों में माविया के साथ शांति समझौता किया था यदि वैसी ही परिस्थितियां हज़रत अली के काल में होतीं तो वे भी यही काम करते।  इस हिसाब से कहा जा सकता है कि शांति समझौता का इमाम हसन का फैसला बिल्कुल सही था जिसकी आलोचना नहीं की जा सकती।

आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि इस शांति समझौते में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी शामिल थे।  यह काम इमाम हसन ने अकेले नहीं किया था।  अंतर केवल इतना है कि इमाम हसन आगे थे और इमाम हुसैन पीछे थे।  इमाम हुसैन इस शांति समझौते के समर्थक थे।  वे कहते हैं कि माविया के विरुद्ध युद्ध में विदित रूप से क्षति होती और इमाम इसन की शहादत की स्थिति में माविया अपने हथकण्डों से वह इस्लाम फैलाता जो उसके दृष्टिगत का है।  इस प्रकार से वास्तविक इस्लाम समाप्त हो जाता।  वह एसा व्यक्ति था जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के सभी सदस्यों की हत्या करवा सकता था जिसके बाद अस्ल इस्लाम समाप्त हो जाता और तथाकथित इस्लाम प्रचलित कर दिया जाता।  इन्ही बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि माविया के साथ शांति समझौता करके इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने इस्लाम को पूरी तरह से सुरक्षित बना दिया था।