Aug २७, २०१७ १६:१७ Asia/Kolkata

आतंकवाद पर प्रतिबंध और उस पर सज़ा वर्ष 1937 के जेनेवा कन्वेंशन को आतंकवाद के बारे में पहला कन्वेंशन कहा जा सकता है।

यद्यपि यह कन्वेंशन बाध्यकारी नहीं हो सका लेकिन बाद में आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष की अंतर्राष्ट्रीय संधियां इसी कन्वेंशन के आधार पर तैयार हुईं। अलबत्ता दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत ने पिछले सभी प्रयासों को निष्फल बना दिया लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के बाद आतंकवाद से संघर्ष का विषय एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी आयोग में पेश किया गया। सन 1947 से 1955 तक इस आयोग की कोशिशों से संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रस्ताव नंबर 1186 पारित हुआ जो अतिक्रमण और आतंकवाद से संबंधित है।

इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने वर्ष 1995, 1997 और 2003 में भी आतंकवाद के विरुद्ध विभिन्न प्रस्ताव पारित किए। महासभा ने इन वर्षों के दौरान कोशिश की कि स्पष्ट रूप से आतंकवाद के प्रतीकों को चिन्हित करे और उनके बारे में पहचान योग्य मानक निर्धारित करे। मानकों के निर्धारण में कार्यवाहियों की आपराधिक प्रवृत्ति और आम लोगों में आतंक पैदा करने को दो मूल मानदंड के रूप में स्वीकार किया गया। इस परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद के प्रतीकों को 13 कन्वेंशनों के ढांचे में आतंकी कार्यवाहियों के रूप में पेश किया गया। इन कन्वेंशनों में विमान अपचालन, बंधक बनान और परमाणु पदार्थों से संबंधित अपराध शामिल होते हैं।

आपराधिक क़ानूनों के विशेषज्ञ महदी ज़हूरियान आतंकवाद से संघर्ष की शैलियों के बारे में कहते हैं। आतंकवाद से संघर्ष विभिन्न रूपों में हो सकता है। आतंकवादियों के प्रत्यर्पण या उन्हें दंडित करने में क़ानूनी सहयोग, इसी तरह आतंकी कार्यवाहियों के लिए दोषियों को दंडित करना, आतंकवाद के आर्थिक संचालन में प्रयोग होने वाली संपत्तियों को ज़ब्त करना और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक क़ानूनों के विभिन्न स्वरूपों का प्रयोग इत्यादि इसमें शामिल हैं। वे कहते हैं कि आतंकवाद से संघर्ष के बारे में अधिकतर देश एकमत हैं और इसकी कुछ आंशिक बातों में उनके बीच मतभेद पाया जाता है। यही कारण है कि अनेक क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में इस बारे में बहुत से संयुक्त बिंदु पाए जाते हैं जबकि 19वीं सदी से पहले तक अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों में इस तरह की कोई बात दिखाई नहीं देती।

आतंकवाद से संघर्ष के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय संधियां और दस्तावेज़ हैं उन्हें क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों के दो समूहों में बांटा जा सकता है। अलबत्ता आज आतंकवाद को उसके अंतर्राष्ट्रीय प्रत्यय के बिना कम ही इस्तेमाल किया जा सकता है। आज आतंकवाद से संघर्ष से संबंधित समझौते और संधियां अधिकतर बहुपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आयाम लिए हुए हैं। इन्हीं में से एक 1977 का आतंकवाद से संघर्ष का यूरोपीय कन्वेंशन और 15 मई 2003 का उसका पूरक प्रोटोकोल है। अलबत्ता कुछ 1973 में आतंकी कार्यवाहियों से मुक़ाबले के लिए अमरीका व क्यूबा के बीच होने वाले समझौते जैसे कुछ तंत्र अब भी अपनी उपयोगिता बनाए हुए हैं। इस संबंध में विभिन्न सरकारों की ओर से भी अहम क़दम उठाए गए हैं।

11 सितम्बर 2001 की घटना को आतंकवाद से संघर्ष के मैदान में एक अहम मोड़ समझा जा सकता है। इस घटना ने अमरीकी अधिकारियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि संयुक्त राष्ट्र संघ के सबसे अहम तंत्र यानी सुरक्षा परिषद को आतंकवाद के विरुद्ध बाध्यकारी प्रस्ताव पारित करने के लिए तैयार करें। इस परिप्रेक्ष्य में नाइन इलेवन की घटना के एक दिन बाद सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव नंबर 1368 को सर्वसम्मति से पारित किया। इस प्रस्ताव के पहले अनुच्छेद में आतंकी हमलों की निंदा करने के साथ ही इस प्रकार के हमलों को विश्व शांति व सुरक्षा के लिए एक ख़तरा बताया गया है। इस प्रस्ताव के चौथै अनुच्छेद में बल देकर कहा गया है कि इन हमलों को अंजाम देने वाले या इनके योजनाकारों की मदद व समर्थन करने वाले या उन्हें प्रशिक्षण देने वाले सभी लोगों को दोषी माना जाएगा।

इसके बाद अमरीका के नेतृत्व में सुरक्षा परिषद और अन्य वैश्विक शक्तियों ने आतंकवाद से संघर्ष का मार्ग प्रायः दबाव, धमकी, प्रतिबंध, सैन्य कार्यवाही और इस प्रकार के क़दमों के रूप में पेश किया है। यही प्रस्ताव वास्तव में अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीका के हमले और इस देश के अतिग्रहण के लाइसेंस में बदल गया और उसके बाद से ही आतंकवाद से संघर्ष के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद का दोहरा रवैया समस्याजनक बन गया है। उदाहरण स्वरूप आतंकी गुट एमकेओ के संबंध में राष्ट्र संघ के रवैये और इस गुट के साथ अमरीका के संबंध की ओर इशारा किया जा सकता है। इस आतंकी गुट ने ईरान की अत्याचारग्रस्त जनता के विरुद्ध असंख्य जघन्य अपराध किए हैं लेकिन इसे हमेशा अमरीका का समर्थन प्राप्त रहा है और इसकी आतंकी कार्यवाहियों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से कभी कोई क़दम नहीं उठाया गया है।

यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने गठन के समय से ही मानवाधिकार के समर्थन को कार्यसूचि में शामिल कर लिया था लेकिन नाइन इलेवन के बाद से आतंकवाद से संघर्ष के एजेंडे में जो युक्तियां शामिल की गईं उनमें से कई ने मानवाधिकार का गंभीर रूप से हनन किया है। इस बात को संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के प्रतिनिधि ग़ुलाम अली ख़ुशरू ने अप्रैल 2016 में राष्ट्र संघ में उठाया था। आतंकी कार्यवाहियों के चलते विश्व शांति व सुरक्षा के लिए उत्पन्न होने वाले ख़तरों के बारे में सुरक्षा परिषद की ओर से आयोजित होने वाली एक बैठक में उन्होंने गुट निरपेक्ष आंदोलन के सदस्य देशों की ओर से एक बयान पढ़ते हुए कहा था कि आतंकवाद को किसी  भी धर्म, राष्ट्र, सभ्यता या जाति से संबंधित नहीं किया जा सकता। इसी के साथ साम्राज्य और विदेशी अतिग्रहण के विरुद्ध और अपनी आज़ादी के लिए लोगों के क़ानूनी और वैध संघर्ष को आंतकवाद के समान नहीं समझा जाना चाहिए ताकि इसके माध्यम से निर्दोष लोगों पर अत्याचार और अतिग्रहण को जारी न रखा जा सके।

इस आधार पर आतंकवाद से वास्तविक संघर्ष के लिए ज़रूरी है कि पहले आतंकवाद की सही परिभाषा पेश की जाए। पिछले दो दशकों में तथाकथित आतंकवाद विरोधी कार्यवहियों के अनुभवों ने दर्शा दिया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ विशेष कर सुरक्षा परिषद को दबाव के कारण अपनाई जाने वाली अपनी सोच को अलग रख देना चाहिए और एक न्यायपूर्ण समाधान का मार्ग अपनाना चाहिए। ऐसा समाधान जिसे आतंकवाद से संघर्ष के लिए न्यायपूर्ण वैश्विक शांति कहा जाता है। आतंकवाद के सभी आयामों के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय लड़ाई वह लक्ष्य है जिसकी ओर सभी राष्ट्रों को बढ़ना चाहिए। सयुंक्त राष्ट्र संघ, मानवाधिकारों के उत्थान और उनके समर्थन के लिए सहयोग के माध्यम से बेहतरीन ढंग से आतंकवाद विरोधी प्रयास कर सकता है ताकि आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के नाम पर मानवाधिकारों का हनन न किया जा सके।

 

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