Sep ०४, २०१७ १४:३१ Asia/Kolkata

इस्लामी गणतंत्र ईरान ने सुरक्षा, स्थिरता और राजनैतिक स्वाधीनता क़ायम करने में आतंकवाद से संघर्ष की अहमियत के मद्देनज़र अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से संघर्ष के लिए हमेशा द्विपक्षीय व बहुपक्षीय समझौतों को क़ुबूल किया और इस तरह के समझौतों पर दस्तख़त के लिए हमेशा तय्यार रहा है।

लेकिन इसके साथ ही इस्लामी गणतंत्र ईरान इस बात पर बल देता है कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से संघर्ष के लिए ज़रूरी है कि आतंकवादी अपराधों की एक स्पष्ट परिभाषा होनी चाहिए। इसी तरह ईरान इस बात पर बल भी देता है कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय क़ानून, संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को ख़त्म करने से संबंधित सभी प्रस्ताव का पालन होना चाहिए।

इस परिप्रेक्ष्य में ईरान संविधान की धारा 123 और जून 2001 में ईरानी संसद में पारित प्रस्ताव के तहत अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से संघर्ष के लिए इस्लामी कॉन्फ़्रेंस संगठन के कन्वेन्शन में शामिल हुआ। यह कन्वेन्शन जुलाई 1999 में बोर्किनाफ़ासो में इस्लामी सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक में पारित हुआ। इस बात के मद्देनज़र कि इस्लाम हर तरह के आतंकवाद की निंदा करता है, इस्लामी गणतंत्र ईरान इस कन्वेन्शन के अनुच्छेदों को उन स्थानों पर लागू करने योग्य समझता हैं जहां ये अनुच्छेद इस्लामी शरीआ के मानदंडों के ख़िलाफ़ न हों और संघर्ष के इस मार्ग में देशों की सुरक्षा, स्थिरता, संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान पर बल देता है। इसी तरह ईरान चरमपंथ से संघर्ष पर भी बल देता है।

इस संदर्भ में इस्लामी गणतंत्र ईरान के राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पेश किया था जिसका लक्ष्य हिंसा व चरमपंथ को नकारना और दुनिया को हिंसा से पाक करना है। यह प्रस्ताव 19 दिसंबर 2013 को संयुक्त राष्ट्र संघ के 190 देशों के समर्थन से पारित हुआ। हालांकि इस प्रस्ताव का ज़ायोनी शासन जैसे विरोधियों ने विरोध किया लेकिन इस प्रस्ताव के पक्ष में बहुमत के मद्देनज़र, यह आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के कुछ अहम प्रस्तावों में शामिल हुआ। ऐसा प्रस्ताव जिसका प्रैक्टिकल प्लान तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने तय्यार किया था।

पूर्व ईरानी सांसद ज़ोहरा इलाहियान इस प्रस्ताव के बारे में कहती हैं, “इस्लामी गणतंत्र ईरान की ओर से दुनिया के हिंसा व चरमपंथ से पाक होने से संबंधित प्रस्ताव कि जो ख़ुद भी विश्व साम्राज्य द्वारा समर्थित चरमपंथ का हमेशा निशाना बना है, आतंकवाद व हिंसा से पीड़ित लोगों के अधिकार की रक्षा की दृष्टि से उठाया गया अहम क़दम है।”

ज़ोहरा इलाहियान जो ईरान की आठवीं सरकार में संसद के विदेश नीति आयोग की सदस्य रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ईरान के स्थान की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “संयुक्त राष्ट्र महासभा में ईरान की ओर से पेश प्रस्ताव के इस्राईल की ओर से विरोध ने विश्व जनमत के सामने एक और सच्चाई से पर्दा उठा दिया। इस विरोध से दुनिया वालों को यह बात समझ में आ गयी कि कौन कौन से शासन हिंसा व चरमपंथ के समर्थक हैं।                

इस्लामी गणतंत्र ईरान ने दिसंबर 2014 में हिंसा व चरमपंथ के ख़िलाफ़ पहली अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस की मेज़बानी की। इस कॉन्फ़्रेंस में ईरानी राष्ट्रपति डॉक्टर हसन रूहानी ने दुनिया के हिंसा व चरमपंथ से पाक होने पर आधारित प्रस्ताव के विश्व स्तर पर स्वागत और उसके संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित होने की ओर इशारा करते हुए कहा, “सभी देशों व शांति के समर्थक धड़ों को चाहिए कि हिंसा व चरमपंथ से संघर्ष के लिए जितना मुमकिन हो सहयोग करें और गंभीरता दिखाएं।”

इसलिए यह कह सकते हैं कि इस्लामी गणतंत्र ईरान की सरकार ने अब तक आतंकवाद व आतंकवादी गुटों के ख़िलाफ़ संघर्ष के मार्ग में बड़े महत्वपूर्ण क़ानूनी क़दम उठाए हैं। ईरान ख़ुद भी आतंकवाद की सबसे ज़्यादा बलि चढ़ने वाले देशों में से हैं। इस देश के बहुत से बेगुनाह इंसान, विद्वान व बुद्धिजीवी आतंकवादी हमलों की भेंट चढ़ चुके हैं। ईरान की ओर से आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए उठाए गए क़ानूनी क़दमों में आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों में उसका शामिल होना, तुर्की, सीरिया और श्रीलंका जैसे देशों के साथ आतंकवाद व सुनियोजित अपराध के संबंध में सहयोग का समझौता करना, आतंकवाद और उसके नमूनों को जुर्म क़रार देने पर आधारित देश में क़ानून पारित करना, संयुक्त राष्ट्र संघ के 1989 और 1994 के प्रस्ताव के क्रियान्वयन को अनिवार्य बनाना और संयुक्त राष्ट्र संघ की आतंकवाद निरोधक समिति को रिपोर्ट भेजने की ओर इशारा कर सकते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के ख़िलाफ़ तंत्र में ईरान के उचित स्थान के बावजूद अमरीकी सरकार ईरान के ख़िलाफ़ आतंकवाद को हथकंडे के रूप में इस्तेमाल करती है जिससे अमरीका की दोहरी नीति का पता चलता है। मिसाल के तौर पर अमरीका ने 1979 में इराक़ के बासी शासन को आतंकवाद के समर्थक शासन की सूचि में शामिल किया लेकिन 1982 में जब अतिक्रमणकारी सद्दाम शासन के मुक़ाबले में कई अभियान में ईरान को कामयाबी मिली और सद्दाम को अमरीकी मदद की ज़रूरत पड़ी तो अमरीकी विदेश मंत्रालय ने इराक़ के बासी शासन के नाम को आतंकवाद की समर्थक सरकारों की लिस्ट से निकाल दिया। लेकिन 1990 में जब सद्दाम ने कुवैत पर हमला किया कि जिसे अमरीका का समर्थन हासिल था, अमरीकियों ने एक बार फिर इराक़ सरकार को आतंकवाद की समर्थक सरकारों की लिस्ट में शामिल कर दिया। अमरीका के इस विरोधाभासी व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि इराक़ सरकार के नाम को आतंकवाद की समर्थक सरकारों की अमरीकी लिस्ट में शामिल करने और फिर उसके नाम को इस लिस्ट से निकालने में आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। यही रवैया लीबिया और क्यूबा के बारे में भी है। जहां अमरीका के हित होते हैं वहां वह सरकारों पर आतंकवाद के समर्थक होने का लेबल लगा देता या उसे हटा देता है।                       

अमरीका ईरान पर आतंकवाद का समर्थन करने का इसलिए इल्ज़ाम लगाता है क्योंकि ईरान क्षेत्र में प्रतिरोध के मोर्चे का समर्थन करता है। अमरीका ने 1984 में ईरान सरकार के नाम को आधिकारिक रूप से आतंकवाद की समर्थक सरकारों की लिस्ट शामिल किया और इस बहाने से उसने ईरान के ख़िलाफ़ बहुत सी पाबंदियां लगायीं। इन पाबंदियों के अलावा आतंकवाद के बहाने अमरीकी अदालतों में ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी नागरिकों के मुक़द्दमे भी आतंकवाद के विषय पर ईरान और अमरीका के बीच विवाद का एक और आयाम है। अमरीका ऐसी हालत में यह दावे कर रहा है जब बहुत से राजनैतिक टीकाकारों का मानना है कि क्षेत्र में आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में ईरान ने बहुत बड़ा योगदान दिया है और ख़ास तौर पर हालिया वर्षों में आतंकवादी गुट दाइश के ख़िलाफ़ संघर्ष में ईरान के योगदान का कोई इंकार नहीं कर सकता। मॉस्को स्थित नैश्नल रिसर्च यूनिवर्सिटी हाइअर स्कूल ऑफ़ इक्नॉमिक्स के मानव शास्त्र संकाय के प्रोफ़ेसर व पश्चिम एशिया व उत्तरी अफ़्रीक़ा के इतिहास के माहिर ग्रेगरी लोक्यानोफ़ इस सच्चाई की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “ अमरीकी अधिकारी इस्लामी गणतंत्र ईरान के ख़िलाफ़ अपने कठोर बयान के ज़रिए हक़ीक़त में क्षेत्र में दाइश के ख़िलाफ़ प्रभावी संघर्ष के मार्ग में रुकावट बन रहे हैं। यह सच्चाई कि ट्रम्प सरकार दाइश के ख़िलाफ़ संघर्ष के साथ साथ क्षेत्र में ईरान के बढ़ते प्रभाव को भी रोकना चाहती है, अरचनात्मक दृष्टिकोण है। क्योंकि आज ईरान आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में चाहे वह इराक़, सीरिया या अफ़ग़ानिस्तान में हो, महत्वपूर्ण क्षेत्रीय घटक समझा जाता है और इस संदर्भ में रूस भी तेहरान के साथ प्रभावी सहयोग कर रहा है।  

इस सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है कि अगर ईरान की मदद न होती तो आज बग़दाद, अर्बील और दमिश्क़ में दाइश का ध्वज लहरा रहा होता। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में ईरान का कारनामा है।

 

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