इस्लाम और मानवाधिकार- 50
बच्चों के मामलों और उनके अधिकारों के बारे में लगभग समस्त धर्मों और मतों में बल दिया गया है।
लेकिन यहां यह सवाल पैदा होता है कि इतने सारे मतों और विचारधाराओं के बीच किस मत और विचारधारा में बच्चों के अधिकारों पर भरपूर ध्यान दिया गया है और बेहरतीन बातों और विचारों से हटकर व्यवहारिक क़दम उठाया गया है। मोटे तौर पर आज किस मत और विचारधारा के मुताबिक़ हम व्यवहार करें और किस प्रशासनिक व्यवस्था को स्वीकार करें। इस सिलसिले में अंतिम एवं व्यापक ईश्वरीय धर्म के रूप में इस्लाम का अध्ययन करना बेहतर होगा।

इस्लाम की शिक्षाओं के मुताबिक़, लड़की हो या लड़का समस्त बच्चों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। इस्लाम बच्चों के ख़िलाफ़ हर प्रकार की हिंसा और उन पर अत्याचार से रोकता है। ईश्वर ने बेटी के सम्मान में क़ुराने मजीद में एक संपूर्ण सूरा कौसर नाज़िल किया है। इसके अलावा अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम और उनके उत्तराधिकारी इमामों की हदीसों में बेटे को नेमत तो बेटी को रहमत बताया गया है। हालांकि इस्लाम से पहले अरबों और अन्य समुदायों के बीच, बच्चों की स्थिति अच्छी नहीं थी और उन्हें मूल अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। उस वक़्त के लोग किसी भी बहाने से जैसे कि भुखमरी और कम आय के बहाने बच्चों की हत्या कर दिया करते थे या उन्हें बेच दिया करते थे। इस बीच, लड़कियों की स्थिति सबसे अधिक दयनीय थी। अरब समाज के विशिष्ट लोग लड़की को परिवार के लिए अपमान का कारण समझते थे। वे अपनी बेटियों को ज़िंदा ही दफ़्न कर दिया करते थे।
ईश्वर क़ुरान में इस संदर्भ में कह रहा है कि जब कभी उन लोगों में से किसी को लड़की होने की शुभसूचना दी जाती थी, तो उसका चेहरा काला पड़ जाता था और वह ख़ून का घूंट पीकर रह जाता है, इस ख़बर के बाद लोगों से मुंह छुपाए फिरता है और सोचता है कि अपमान सहन कर इस बच्ची को अपने पास रखे या उसे ज़मीन में दफ़्न कर दे? वे कितना बुरा फ़ैसला किया करते थे। इस्लाम ने बहुत ही अच्छी भाषा का प्रयोग करके इस संदर्भ में लोगों को जागरुक किया और उन्हें बुरी आदतों के प्रति सचेत किया। इस्लाम ने समाज में बच्चों के महत्व को उजागकर किया और मां-बाप से बच्चों को नष्ट न करने की सिफ़ारिश की और उनसे कहा कि बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें। क़ुरान में उल्लेख है कि निर्धनता के डर से अपने बच्चों की हत्या न करो, क्योंकि उन्हें और तुम्हें रिज़्क़ देने वाले हम हैं। बच्चों का क़त्ल महापाप है।

इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, जो बच्चों पर रहम न करे वह हम में से नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस्लाम की ओर से यह सिफ़ारिशें उस समय की गईं कि जब न कोई बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने वाली न कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था थी और न ही कोई कन्वेंशन। इस्लाम ने बच्चों की हर प्रकार की शारीरिक, आत्मिक और मानसिक ज़रूरतों को मद्देनज़र रखते हुए, उनकी प्रगति के लिए भूमि प्रशस्त की है।
इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा ईश्वर की ओर से मां-बाप के पास एक अमानत होता है। इस अमानत का सम्मान किया जाना चाहिए और उसके सम्मान में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, इसलिए कि उसकी स्वस्थ आत्मा उसका सम्मान करने में है। बच्चे की नैतिक परवरिश भी उसके सम्मान के साथ की जा सकती है। बच्चे भी समस्त इंसानों की भांति इस बात को पसंद करते हैं कि उनका सम्मान किया जाए। इसलिए, पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, अपने बच्चों से मोहब्बत करो और उन पर दया करो और उनसे किए गए वादों को पूरा करो। इसी प्रकार वे फ़रमाते हैं, अपने बच्चों का नाम सम्मान के साथ लो और उन्हें बैठने की जगह दो और उनके साथ कठोरता प्रदर्शन मत करो।
पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फ़रमाते हैं, अगर कोई अपने बच्चे को चूमेगा तो उसका यह काम पुण्य माना जाएगा। वास्तव में इन सिफ़ारिशें में बच्चों का सही और पूर्ण सम्मान करने की बात कही गई है। इन सिफ़ारिशों पर अमल करके मां-बाप अपने बच्चों का सम्मान कर सकते हैं और उनकी मानसिक ज़रूरतों की आपूर्ति कर सकते हैं।
बच्चों के अधिकारों के कन्वेंशन के 18वें अनुच्छेद में बच्चों के अधिकांश अधिकारों के सम्मान की ज़िम्मेदारी मां-बाप पर डाली गई है। इस्लाम की शिक्षाओं में भी बच्चों के प्रति सबसे अधिक मां-बाप को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया है। इसलिए कि बच्चा घर में बरकत और रहमत है, जिसे ईश्वर ने मां-बाप को वरदान के रूप में दान किया है। इस्लामी धर्मशास्त्र में बच्चे की देखभाल और उसकी ज़िम्मेदारी को बच्चे के महत्वपूर्ण अधिकारों में माना गया है। बच्चे को दूध पिलाने के ज़माने में यह ज़िम्मेदारी मां पर अधिक होती है। हालांकि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, बच्चों की परवरिश, मां-बाप दोनों की संयुक्त ज़िम्मेदारी है।
क़ुरान के सूरए बक़रा की 233वीं आयत में इस संदर्भ में उल्लेख किया गया है कि माएं दो साल तक अपने बच्चों को दूध पिलाएं, जो कोई चाहता है कि अपने बच्चे को इस पूरी अवधि में दूध पिलाया जाए, तो इस अवधि में मां के खाने पीने और पहनने की ज़िम्मेदारी बच्चे के अभिभावक पर होगी, किसी पर भी उसकी क्षमता से अधिक ज़िम्मेदारी नहीं डाली जानी चाहिए, मां को बच्चों की देखभाल के लिए अत्यधिक कठिनाई में नहीं पड़ना चाहिए और न ही बाप को बच्चे के लिए हद से ज़्यादा नुक़सान उठाना चाहिए, अगर बच्चे का बाप जीवित न हो तो उसके अन्य अभिभावक को उसकी देखभाल करनी चाहिए और अगर पति और पत्नी आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय लें तो उनके लिए कोई रुकावट नहीं है, इस स्थिति में अगर मां से बच्चे को दूध पिलवाना चाहो तो उन्हें उचित मेहनताना अदा करो और ईश्वर से डरो और यह जान लो कि ईश्वर तुम्हारे चरित्र से अवगत है।

पैग़म्बरे इस्लाम ने कई स्थानों पर क़ुरान का हवाला देकर इस बात पर बल दिया है कि बच्चों के अपने जन्म सिद्ध अधिकार हैं, जिनका सम्मान किया जाना चाहिए और उनके प्रति उचित तरीक़े से अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा किया जाना चाहिए। यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम नमाज़ पढ़ते वक़्त भी बच्चों के अधिकारों का सम्मान करते हुए उन्हें खेलने से नहीं रोकते थे, इसलिए कि वे इसे उनका अधिकार मानते थे।
बच्चों को उचित भोजन दिया जाना, उनके अधिकारों में से है। बच्चों के अधिकारों के कन्वेंशन के 24वें अनुच्छेद के मुताबिक़, इस कन्वेंशन में शामिल देशों की ज़िम्मेदारी है कि स्वच्छ पानी और सही भोजन उपलब्ध करवाकर बच्चों की बीमारियों पर नियंत्रण किया जाए और उन्हें कुपोषण से बचाया जाए।
पैग़म्बरे इस्लाम के मुताबिक़, इस्लाम में भूखे का पेट भराने से बेहतर कोई पुण्य काम नहीं है। अब अगर ख़ुद अपने ही बच्चों के पेट भराने की बात हो तो यह एक ज़िम्मेदारी है, जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, बाप के ऊपर बच्चे के अधिकारों में से है कि उसे स्वच्छ और स्वास्थवर्धक भोजन कराए। हां अगर मां-बाप बच्चों के लिए उचित भोषन उपलब्ध न करा सकें तो यह समाज के अन्य लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे उनके लिए भोजन उपलब्ध करवाएं। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, अगर कोई ऐसी स्थिति में सो जाए कि उसका पेट भरा हुआ, लेकिन उसका पड़ोसी भूखा हो तो वह यह समझ ले कि उसका मुझ पर ईमान नहीं है।
बच्चों के अधिकारों के कन्वेंशन के सातवें अनुच्छेद में बच्चे के जन्म के तुरंत बाद, उसका पंजीकृत होना चाहिए और उसका नाम रखने और उसे नागरिकता दिलाने और मां-बाप की पहचान का अधिकार होना चाहिए। इस्लाम में भी बच्चे के जन्म के बाद, मां-बाप की कुछ पहली ज़िम्मेदारियों में से है कि बच्चे का उचित नाम रखें। इमाम अली रज़ा (अ) इस संदर्भ में फ़रमाते हैं, बाप अपने बच्चे के लिए सबसे पहला पुण्य कार्य यह कर सकता है कि उसके लिए एक अच्छे नाम का चयन करे, तुममें से हर कोई अपने बच्चे के लिए अच्छा नाम रखे।
इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, बच्चे का अपने मां-बाप पर यह अधिकार है कि वे उसका अच्छा नाम रखें। वास्तव में बच्चे के लिए अच्छे नाम के चयन को इस्लाम में पुण्य कहा गया है, इसलिए कि इससे बच्चे की मानसिकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उसका व्यक्तित्व निखरता है और दूसरों के मज़ाक़ और कटाक्ष से बचता है। इस्लाम के मुताबिक़, सुन्दर नाम से बच्चे को मानसिक सुरक्षा और सुविधा प्राप्त होती है। जैसा कि इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने जब सुना कि किसी ने अपने बेटे का नाम मोहम्मद रखा है तो उन्होंने फ़रमाया, अपने बच्चे को गाली मत देना, उसे मारना नहीं और उसे बुरा भला नहीं कहना।