मस्जिद और उपासना-2
मस्जिद वह आतिथ्य गृह है जिसका मेज़बान महान व सर्वसमर्थ ईश्वर है और वहां वह अपनी असीम कृपा से अपने मेहमानों का आतिथ्य सत्कार करता है।
मेहमान इस पवित्र गृह में निष्ठा के साथ उसकी उपासना करके उसका सामिप्य प्राप्त करते हैं। मस्जिद महान ईश्वर के बंदों व मेहमानों के लिए वह बाज़ार है जिसमें वे अपनी उम्र के कुछ भाग को बिताते और उसके बदले में परलोक ख़रीदते हैं। हदीस में है “कि मस्जिदें परलोक के बाज़ार हैं।“
मस्जिदें ईश्वर का घर, उपासना स्थल और ज़मीन पर बेहतरीन स्थान हैं। मस्जिद वह केन्द्र है जहां से ज़मीन पर ईश्वरीय प्रकाश फैलते हैं। जैसाकि पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि मस्जिदें ईश्वरीय प्रकाश हैं अर्थात मस्जिदें वे केन्द्र हैं जहां से ईश्वरीय प्रकाश फैलता है। मस्जिद वह स्थान है जो इंसान के दिल को उसके रचयिता से जोड़ता है और अच्छाई व परिपूर्णता की ओर उसके निमंत्रण को सुनने का स्थान है। इसी कारण रवायतों में इस बात की बहुत सिफारिश की गयी है कि मुसलमान मस्जिदों में अधिक जायें और अनिवार्य नमाज़ें वहां पढ़ें।
शिष्टाचार यह है कि हम इस ईश्वरीय निमंत्रण को स्वीकार करें और जिस घर को महान ईश्वर ने अपना घर कहा है उसमें जायें और वहां प्रार्थना करें क्योंकि महान ईश्वर ने मस्जिद को अपनी मुलाक़ात का स्थान कहा है और इस स्थान पर वह अपने बंदों के साथ विशेष प्रकार का व्यवहार करता है।

ज़मीन पर विभिन्न प्रकार के स्थान हैं किन्तु इन स्थानों के मध्य एक ऐसा स्थान है जिसे विशेष महत्व प्राप्त है। जैसाकि एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत जीब्राईल से फरमाया” कौन सी ज़मीनें ईश्वर के निकट अधिक प्रिय हैं? तो उन्होंने जवाब दिया मस्जिदें।“
स्पष्ट है कि जब मस्जिद ज़मीन पर सबसे प्रिय स्थान है तो इंसान जब उसमें प्रविष्ट होता है तो वह महान ईश्वर की कृपा का पात्र बनता है। अतः हदीस में आया है कि अगर कोई वुज़ूअ करे और मस्जिद में जाये और ईश्वरीय बारगाह में हाज़िर होने के शिष्टाचार को अंजाम दे तो वह ईश्वरीय बंदों की पंक्ति में शामिल हो जाता है।
जो मस्जिद में जाना चाहता है उसे चाहिये कि अपनी क्षमता के अनुसार मस्जिद में उपस्थित होने के शिष्टाचार को जानने का प्रयास करे। क्योंकि जानकारी व ज्ञान जितना अधिक होगा उतना ही अधिक कार्य मूल्यवान होगा। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इस बारे में फरमाते हैं जब भी मस्जिद में जाओ तो जान लो कि तुम उस महाराजा के दरबार में आये हो जहां पवित्र लोगों के अलावा कोई क़दम नहीं रख सकता और सच्चे लोगों के अतिरिक्त उसमें किसी अन्य की उपस्थिति शोभनीय नहीं है। उसकी उपस्थिति में उसके सबसे निर्धन बंदे की भांति रहो और अपने दिल को हर उस चीज़ से खाली करो जो तुम्हारे ध्यान को ईश्वर की याद से हटाकर अपने में व्यस्त कर ले और तुम्हारे और उसके बीच दीवार बन जाये। क्योंकि वह सबसे पवित्र और सबसे शुद्ध हृदयों के अलावा किसी अन्य को स्वीकार नहीं करता है।
पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिद में हाज़िर होने के शिष्टाचार के बारे में अपने एक वफ़ादार साथी अबूज़र ग़फ़्फ़ारी से कहते हैं” हे अबूज़र ईश्वर की ओर बुलाने वाले के निमंत्रण को स्वीकार करो और मस्जिद को आबाद करने का प्रयास करो और उसका प्रतिदान ईश्वर की ओर से स्वर्ग है।“

पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन में मस्जिद को आबाद करने का जो शब्द आया है उसमें मस्जिद का निर्माण, उसकी मरम्मत, उसकी निगरानी व देखभाल और उपासना के लिए आना जाना भी उसमें शामिल है। इस आधार पर अबूज़र ग़फ्फारी ने जब पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा कि हे ईश्वरीय दूत हमारे मां- बाप आप पर क़ुर्बान मस्जिदों को किस तरह आबाद करें? तो पैग़म्बरे इस्लाम ने जवाब में फरमाया मस्जिद को आबाद करना यह है कि उसमें आवाज़ ऊंची न हो, उसमें बेकार की बात करने से परहेज़ किया जाये, उसमें क्रय- विक्रय अंजाम न दिया जाये, जब तक मस्जिद में हो उस वक्त तक अर्थहीन कार्यों व बातों को अंजाम देने से परहेज़ करो अन्यथा प्रलय के दिन अपने अलावा किसी और की भर्त्सना न करना।“
इन वाक्यों में पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिद में हाज़िर होने के कई शिष्टाचार की ओर अबूज़र ग़फ़्फ़ारी का ध्यान आकृष्ट करते हैं। पहला यह कि मस्जिद उपासना का स्थल है वहां ऊंची आवाज़ में बात करना उपासना करने में दूसरों की एकाग्रता में विघ्न उत्पन्न होने का कारण बनेगा और दूसरे पूरी तनमयता के साथ उपासना नहीं कर सकते। इसके अलावा लोगों के मध्य ऊंची आवाज़ में बात करने को एक प्रकार का अशिष्ट कार्य समझा जाता है और इंसान को मस्जिद में उचित व शोभनीय कार्य अंजाम देना चाहिये और उस कार्य से दूरी करना चाहिये जो इंसान के शिष्टाचार से मेल न खाता हो। इस आधार पर मस्जिद की आबादी यह है कि इंसान को उसमें उचित व अंदाज़ में रहना चाहिये और उसमें मौन रहने का प्रयास करना चाहिये और इंसान जब बात करना चाहे तो धीरे से बात करे ताकि उससे दूसरों को कष्ट न पहुंचे। दूसरी अर्थहीन बातों से परहेज़ करना चाहिये क्योंकि उसे एक प्रकार से मस्जिद का अपमान समझा जाता है। तीसरे मस्जिद में क्रय- विक्रय से परहेज़ करना चाहिये। क्योंकि अगर मस्जिद में ख़रीद- फ़रोख्त किया जायेगा तो उससे न केवल इंसान का ध्यान महान व सर्वसमर्थ की याद से निश्चेत हो जायेगा बल्कि उससे इंसान का ध्यान दुनिया और ख़रीद -फरोख्त की ओर अधिक जायेगा जबकि मस्जिद महान ईश्वर की याद का स्थान है और हर उस कार्य से दिल को ख़ाली करना चाहिये जो इंसान के ध्यान का महान ईश्वर के अलावा किसी और चीज़ की ओर जाने का कारण बने ताकि उसमें पूरी तरह महान ईश्वर की याद की भूमि प्रशस्त हो जाये।
एक रवायत में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मस्जिद में एक व्यक्ति को देखा जो अपने वाणों को छिल रहा था तो आपने उस व्यक्ति को इस कार्य से मना किया और फरमाया मस्जिद का निर्माण इस प्रकार के कार्यों के लिए नहीं किया गया है।“
एतिहासिक किताबों में आया है कि जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपने बेटे हज़रत इस्माईल के साथ मिलकर ख़ानये काबा का निर्माण कर रहे थे तो एक समय आया जब काबे की दीवार इतनी ऊंची हो गयी कि उस तक हज़रत इब्राहीम की पहुंच कठिन हो गयी तो हज़रत इस्माईल एक बड़ा पत्थर लाये। हज़रत इब्राहीम ने उस पर खड़े होकर काबे का निर्माण जारी रखा। उन लोगों ने काबे के पास इतने पत्थर इकट्ठा किये कि निर्माण करते- करते काबे के द्वार तक पहुंच गये। पैग़म्बरे इस्लाम के चचेरे भाई और पवित्र कुरआन के व्याख्याकर्ता इब्ने अब्बास कहते हैं” चूंकि हज़रत इब्राहीम उस पत्थर पर खड़े होते थे इसलिए वह मकामे इब्राहीम के नाम से प्रसिद्ध हो गया।“ इसी प्रकार इब्ने अब्बास के हवाले से आया है कि चूंकि हज़रत इब्राहीम उस पत्थर पर खड़े हुए तो दोनों पैर उसमें धंस गये। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के कदम का निशान होने के कारण इस पत्थर को मस्जिदुल हराम के बहुत पवित्र स्थलों में गिना जाता है। मकामे हज़रत इब्राहीम का पत्थर लगभग वर्गाकार है और उसकी लंबाई चालिस सेन्टीमीटर है जबकि ऊंचाई लगभग 50 सेन्टीमीटर है। उसका रंग मध्यम पीला और लाल है। मेहदी अब्बासी के काल से इस पत्थर को सोने से ढ़क दिया गया और उसे एक सुरक्षित स्थान पर रख दिया गया था ताकि उसे नुकसान न पहुंचे परंतु इस सुरक्षित स्थान को वर्ष 1965 में सऊदी अरब की सरकार के आदेश से ख़राब कर दिया गया और उस पर एक छोटी सी जाली लगा दी गयी। इस स्थान को खराब करने के लिए सऊदी अरब की सरकार ने यह बहाना बनाया कि इस स्थान ने मस्जिदुल हराम के बड़े भाग को घेर रखा है।

हज़ारों साल बीत जाने के बावजूद मकामे इब्राहीम आज भी सुरक्षित है जबकि इस दौरान बहुत सी प्राकृतिक घटनाएं घटी हैं। उसकी गणना ईश्वरीय निशानियों में होती है। महान ईश्वर ने उसके बारे में सूरे बक़रा की 125वीं आयत में फरमाया है कि काबे को लोगों के इकट्ठा होने और उनके लिए सुरक्षित स्थान करार दिया है और हमने कहा है कि मकामे इब्राहीम को नमाज़ पढ़ने का स्थान करार दो।“
मकामे इब्राहीम के काबे के पास होने से वास्तविकता खोजी लोगों का ध्यान एकेश्वरवाद का निमंत्रण देने वाले व्यक्ति की महानता की ओर जाता है। वास्तव में मकामे इब्राहीम का काबे के पास होना ईश्वरीय दूत के पद तक पहुंचने का चिन्ह है।
हजरे असवद नाम का एक पत्थर है जो खानये काबा का एक बहुत ही पवित्र व मूल्यवान पत्थर है। यह एक काला पत्थर है जिसकी मोटाई लगभग 50 सेन्टीमीर है जिसे चांदी के एक फ्रेम में रखा गया है। हज के समय हाजी उसके सामने से काबे की अपनी परिक्रमा आरंभ करते हैं और परिक्रमा का अंत भी वहीं होता हैं। परिक्रमा के बाद उसे चूमते हैं। वास्तव में हजरे असवद एक बड़ा ईश्वरीय चिन्ह है और उसके छूने व चूमने का अर्थ ईश्वर की बैअत है अर्थात उसके आदेश के पालन की पुनः वचनबद्धता है।
हज़रत आदम पहले ईश्वरीय दूत हैं जिन्होंने काबे का निर्माण किया था और हजरे असवद को उन्होंने काबे के पूर्वी कोने में लगाया था। हज़रत हब्राहीम ने नये सिरे से उसका निर्माण किया। उस काल में हजरे असवद अबू क़ुबैस नामक पर्वत के निकट पड़ा हुआ था और उन्होंने उसे अपनी जगह पर लगाया।
महान ईश्वर के अंतिम दूत हज़रत मोहम्मद 35 साल के थे और उस समय वह आधिकारिक रूप से पैग़म्बरे घोषित नहीं हुए थे। एक बार बाढ़ आ गयी जिसके कारण खानये काबा खराब हो गया। कुरैश ने नये सिरे से काबे का निर्माण किया। हज़रत मोहम्मद भी काबे के निर्माण में उनकी सहायता करते थे वह उस समय मोहम्मद अमीन के नाम से विख्यात थे। उस समय जब काबे का निर्माण हो रहा था तो हजरे असवद को लगाने को लेकर कुरैश के कबीलों के बीच बहस हो गयी क्योंकि जो कोई भी हजरे असवद को लगाता उसे प्रतिष्ठित माना जाता। इसलिए हर क़बीला यह चाहता था कि उसके लगाने का सौभाग्य उसे प्राप्त हो। इस विवाद को ख़त्म करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी अबा अर्थात एक विशेषकर प्रकार की चादर बिछा दी और हजरे असवद को उसमें रखा और हर कबीले के सरदार ने चादर के एक कोने को पकड़ा और उसे लगाने के स्थान के निकट ले गया। उस समय हज़रत मोहम्मद ने उसे उठाया और उसे उसकी जगह पर लगा दिया। इस तरह यह विवाद इस प्रकार ख़त्म हो गया।
हिज्रे इस्माई भी खानये काबा का एक मूल्यवान भाग है। हिज्रे इस्माईल ख़ानये काबा से लगी एक जगह है जिस पर एक दीवार बनी हुई है। वास्तव में वह परिक्रमा करने वालों और काबे के बीच की दीवार है। कुछ रवायतों के अनुसार हिज्रे इस्माईल हज़रत इस्माईल और उनकी मां हज़रत हाजेरह के रहने का स्थान था और मरने के बाद उन्हें इस स्थान पर दफ्न कर दिया। चूंकि हज़रत इस्माईल अपनी मां से बहुत अधिक प्रेम करते थे इसलिए उन्होंने उनकी क़ब्र को ऊंचा कर दिया और उसके चारों ओर एक दीवार बना दी ताकि वह लोगों के पैरों के नीचे न पड़े। एक रवायत में पैग़म्बरे इस्लाम की एक धर्मपत्नी के हवाले से आया है कि मैं काबे में जाकर उसमें नमाज़ पढ़ना चाहती थी। पैग़म्बरे इस्लाम ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे हिज्र इस्माईल में पहुंचा दिया और फरमाया जब भी नमाज़ पढ़ा चाहो तो यहां नमाज़ पढ़ो कि हिज्र इस्माईल काबे का एक भाग है परंतु जब तुम्हारी जाति के लोग काबे का निर्माण कर रहे थे तो उन्होंने काबे की लंबाई कम कर दी और उसे काबे के बाहर करार दे दिया। पैग़म्बरे इस्लाम का यह कथन उन धर्मशास्त्रियों के लिए प्रमाण है जिनका मानना है कि हिज्रे इस्माईल के अंदर से परिक्रमा सही नहीं है और परिक्रमा के दौरान उसके अंदर से नहीं गुज़रना चाहिये।
इस समय हिज्रे इस्माईल अर्ध वृत्त एक छोटा घेरा है जिसके दीवार की ऊंचाई 1.32 मीटर और उसका अर्ध व्यास लगभग 5.8 मीटर और काबे से उसकी दूरी 2.22 मीटर है।