Oct १५, २०१७ १४:३६ Asia/Kolkata

जैसाकि हम बता चुके हैं कि दुनिया के हर धर्म में उपासना को विशेष महत्व प्राप्त रहा है।

उपासना के कारण उपासना स्थल भी सम्मानीय दृष्टि से देखे जाते हैं।  पूरे विश्व में हर धर्म के मानने वाले अपने धर्मस्थल को विशेष महत्व देते हैं और उसकी सफाई सुथराई के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं।  मुसलमान जिस स्थान पर ईश्वर की उपासना करते हैं उसे मस्जिद कहा जाता है।  मुसलमानों में इसे ईश्वर के घर के नाम से भी जानते हैं।  स्वयं ईश्वर ने इसे अपने घर के नाम से संबोधित किया है।  मस्जिद के संबन्ध में ईश्वर कहता है कि वहां पर अर्थात मस्जिद में ऐसे लोग उपस्थित होते हैं जो पवित्र रहना चाहते हैं और ईश्वर पवित्र लोगों को पसंद करता है।  इस प्रकार से पता चलता है कि पवित्र होकर मस्जिद की ओर जाना एक इस्लामी परंपरा है।  महापुरूषों के कथनों में ऐसे लोगों को ईश्वर का दर्शन करने वाला बताया गया है जो अपने घरों से वुज़ू करके मस्जिद जाते हैं।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि क्या तुम चाहते हो कि मैं तुमको ऐसी चीज़ के बारे में बताऊं जो, तुम्हारे पापों के प्रायश्चित तथा तुम्हारी अच्छाइयों में वृद्धि का कारण बने? लोगों ने कहा कि हां ईश्वर के दूत अवश्य बताइए।  आपने कहा कि हर वह इन्सान जो, पवित्र होकर अपने घर से निकलकर मस्जिद जाए और मस्जिद में नमाज़ के इन्तेज़ार में बैठे, ऐसे इन्सान के लिए ईश्वर के फरिश्ते दुआ करते हैं।

इससे यह पता चलता है कि आत्मा की पवित्रता और आत्मशुद्धि की पहली सीढ़ी शरीर की पवित्रता है। अतः एक मुसलमान को अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिए पहले शारीरिक रूप में पवित्र होना होगा।  स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी आत्मिक पवित्रता के बारे में सूरए तौबा की आयत संख्या 108 का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि आत्मा की शुद्धि के लिए प्रयासरत व्यक्ति, नमाज़ के दौरान इस विषय की ओर ध्यान देता है कि आत्मा की अपवित्रता, शरीर की अपवित्रता से कहीं अधिक ख़तरनाक है।

मस्जिद के संबन्ध में पवित्र क़ुरआन के सूरे आराफ़ की आयत संख्या 31 में कहा गया है कि हे आदम की संतान, मस्जिद जाते समय अपने आप को सजाओ संवारो।  अर्थात स्वच्छ और पवित्र कपड़े पहनकर मस्जिद जाया करो।  इस आयत में बताया गया है कि मस्जिद में जाने से पहले मनुष्य स्वयं को पवित्र करे फिर अच्छे और साफ़ कपड़े पहनकर मस्जिद जाए।  जिस प्रकार से मनुष्य किसी महफ़िल या कार्यक्रम में अच्छे कपड़े पहनकर जाता है उसी प्रकार से उसे चाहिए कि जब वह सृष्टि के बनाने वाले की सेवा में उपस्थित हो तो अच्छे ढंग से उसके सामने जाए।

इतिहास में मिलता है कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम जब भी मस्जिद जाया करते थे, अच्छे कपड़े पहनकर जाते थे।  उनसे पूछा गया कि हे पैग़म्बरे इस्लाम की संतान आप नमाज़ के लिए क्यों अच्छे कपड़े पहनकर जाते हैं तो वे कहा करते थे कि ईश्वर सुन्दर है और वह सुन्दरता को पसंद करता है।  यही कारण है कि मैं भी नमाज़, अच्छे कपड़ों में पढ़ता हूं।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक स्थान पर कहते हैं कि साफ कपड़े पहनने से दुख दूर होते हैं और नमाज़ के समय साफ कपड़े पहनना सराहनीय काम है।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) जहां पूरी सफाई और पवित्रता के साथ मस्जिद जाया करते थे वहीं पर वे अपने कपड़ों में इत्र भी लगाते थे।  लोगों से भी कहा गया है कि जब वे नमाज़ पढ़ने जाएं तो अपने कपड़ों पर इत्र लगाया करें।  नमाज़ के दौरान इत्र लगाने के महत्व के बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि वह नमाज़ जो खुशबू के साथ पढ़ी जाए उसका महत्व उस नमाज़ से 70 गुना अधिक है जो बग़ैर इत्र लगाए पढ़ी जाए।  खुशबू के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि सुगंध, हृदय को मज़बूत करती है।

जैसाकि पहले भी बताया जा चुका है कि आत्मा की पवित्रता के लिए शरीर की पवित्रता बहुत ज़रूरी है विशेषकर मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने के लिए शरीर को हर प्रकार की गंदगी से दूर करना आवश्यक है।  ईश्वर ने अपने दूत ईसा बिन मरयम को भेजे संदेश में कहा था कि बनी इस्राईल से कह देना कि वे लोग पवित्र हृदय, पवित्र हाथों और झुकी हुई नज़रों के साथ मेरी सेवा में उपस्थित हों।

इस भाग में हम संसार में मुसलमानों की सबसे बड़ी मस्जिद, मस्जिदुल हराम के बारे में कुछ बातें बताने जा रहे हैं।  पवित्र काबा जिन पत्थरों से बना हुआ है उनका रंग काला है।  यह काले पत्थर उस समय दिखाई देते हैं जब काबे के ऊपर लगे कपड़े या उसके ग़िलाफ़ को हटाया जाए।  पवित्र काबे का कई बार पुननिर्माण हो चुका है।  सन 1040 हिजरी क़मरी में अर्थात लगभग 4 शताब्दियों पहले इसमें जो पत्थर लगाए गए थे उनमें से बड़े पत्थरों की लंबाई 190 सेंटीमीटर, चौड़ाई 50 सेंटीमीटर और ऊंचाई 28 सेंटीमीटर है जबकि छोटे पत्थरों की लंबनाई 50 और चौड़ाई 40 सेंटीमीटर है।

सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के सुपुत्र हज़रत इस्माईल ने पवित्र काबे की दीवारों की सुरक्षा के उद्देश्य से उसपर ग़िलाफ़ चढ़ाया था।  वर्तमान समय में पवित्र काबे का पर्दा या ग़िलाफ़ काले रंग का है।  उसपर सोने से पवित्र क़ुरआन की आयतें लिखी हुई हैं।  हर साल ज़िलहिज के महीने में पवित्र काबे का पर्दा बदला जाता है।  यह वह समय होता है जब हज के लिए आने वाले अरफ़ा में होते हैं।  वैसे काबे के भीतर भी एक पर्दा है किंतु वह हर साल नहीं बदला जाता।  इसका मुख्य कारण यह है कि वह आम लोगों के हाथों से बचा रहता है अतः जल्दी ख़राब नहीं होता।

पवित्र काबे में ही ज़मज़म भी है।  ज़मज़म के बारे में कहा जाता है कि जब ईश्वर के आदेश से हज़रत इब्राहीम, अपनी धर्मपत्नी हाजरा और बेटे इस्माईल को लेकर मक्के की वादी में आए तो उन्होंने अपने बीवी बच्चे को वहीं पर छोड़ दिया।  कुछ समय के बाद हाजरा के पास पानी ख़त्म हो गया।  जब पानी ख़त्म हो गया तो हाजरा पानी की तलाश में निकलीं।  वह सफ़ा और मरवा पहाड़ियों के बीच तेज़ी से कई बार गईं और फिर वापस आ गईं।  उन्हें कहीं भी पानी नहीं मिला।  बाद में निराश होकर वे अपने बेटे इस्माईल के पास आ गईं।  इसी बीच उन्होंने देखा कि उनके बेटे के पैर के नीचे से एक सोता फूटा।  वह पानी चारों ओर फैलने लगा।  बाद में जुरहुम नामाका क़बीला उसी स्थान के निकट रहने लगा जहां से ज़मज़म का सोता फूटा था।  आरंभिक वर्षों में तो ज़मज़म के पानी से स्थानीय लोग अपनी आवश्यकताएं पूरी करते थे।  वैसे उन लोगों के लिए पानी बहुत ज़रूरी है जो और दुनिया के कोने-कोने से  हज के लिए मक्के जाते हैं।  ऐसे में यहां पर इस प्रकार से पानी के प्रबन्ध की आवश्यकता थी।  इस्लाम के उदय से भी पहले मक्के के रहने वालों में उस व्यक्ति को बड़े ही मान और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था तो लोगों के लिए पानी उपलब्ध कराता था।  पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब ने पहली बार काबे में हाजियों के लिए पानी का उचित प्रबंध करवाया था।  हज पर आने वाले लोग यहां पर ज़मज़म के पानी से लाभान्वित होते थे।  आज भी हज के लिए जाने वाले लोग ज़म़जम के पानी का प्रयोग करते हैं। 

ज़मज़म के पानी को मुसलमानों में विशेष महत्व प्राप्त है।  इसे आबे ज़मज़म कहते हैं।  आबे ज़मज़म के महत्व के बारे में बहुत से कथन मौजूद हैं।  इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि ज़मज़म, संसार का सबसे बेहतरीन कुंआ है।  अपने जीवनकाल में पैग़म्बरे इस्लाम स्वयं, ज़मज़म के पानी का प्रयोग किया करते थे।  वे कहीं भी होते अपने साथियों से कहा करते थे कि वे उनके लिए आबे ज़मज़म लेकर आएं।  पैग़म्बरे इस्लाम आबे ज़मज़म को पीते भी थे और इससे वुज़ू भी किया करते थे।  मुसलमानों में शताब्दियों से यह प्रथा चली आ रही है कि जब वे हज करने के लिए जाते हैं तो अपने घरों की वापसी के समय आबे ज़मज़म लाते हैं।  इसे वे अपने मिलने वालों और रिश्तेदारों को तोहफ़े के रूप में देते हैं।  कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम भी लोगों को आबे ज़मज़म उपहार के रूप में दिया करते थे।