Oct १५, २०१७ १५:३० Asia/Kolkata

मस्जिद पहली ऐसी सामाजिक संस्था है, जिसकी बुनियाद इस्लामी शासन की शुरूआत में ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीने में रखी।

यह ऐसी पवित्र संस्था है, जिसने 1400 साल के अपने इतिहास में काफ़ी उतार चढ़ाव देखे हैं। कभी इसमें ऐसे परिवर्तन हुए कि ज़ाहिरी रूप से इसने राजाओं के महलों की बराबरी की, लेकिन ईश्वर की इबादत के लिए एक पवित्र स्थल के रूप में इसकी मूल वास्तविकता हमेशा बाक़ी रही और बाक़ी रहेगी।

वास्तव में मस्जिद ज़मीन का वह पवित्र टुकड़ा होता है, जिसे क़िबला रूख़ होकर ईश्वर की इबादत के लिए विशेष किया जाता है। ज़्यादातर उसके चारो ओर एक दीवार बनाई जाती है और कभी उसके चारे ओर यह दीवार नहीं बनाई जाती है। मस्जिदों में कहीं रेश्मी क़ालीन तो कहीं चटाईयां बिछाई जाती हैं। कभी ज़मीन के इस टुकड़े में गुंबदों, मीनारों और दीवारों के साथ विशाल एवं सुन्दर इमारतों का निर्माण किया जाता है तो कहीं इनमें से कुछ नहीं होता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि एक सामान्य मस्जिद का महत्व और उसकी पवित्रता उतनी ही होती है, जितनी एक भव्यशाली एवं विशाल मस्जिद की।

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पैग़म्बरे इस्लाम ने हिजरत के बाद और मदीना पहुंचते ही सबसे पहले इस्लामी शासन के केन्द्र के रूप में मस्जिद का निर्माण किया। यह ऐसा केन्द्र था जिसे लोग इबादत, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्र के रूप में पहचानते थे। ऐसा स्थान जहां शासक और प्रजा दोनों उपस्थित हों और ईश्वरीय आदेशों को पहुंचाया जाए और उसकी शिक्षा दी जाए।

इस मस्जिद में पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके साथी इकट्ठा होते थे। पैग़म्बरे इस्लाम लोगों के मार्गदर्शन के लिए बहुत ही प्रेम और स्नेह से ईश्वरीय आदेशों को उन तक पहुंचाते थे। वे इन आदेशों पर सबसे पहले ख़ुद अमल करते थे, ताकि लोगों के सामने एक आदर्श पेश कर सकें। जो कोई भी पैग़म्बरे इस्लाम से मुलाक़ात करना चाहता था, वह मस्जिद में जाता था। इस पवित्र स्थल में पैग़म्बर ख़ुद या अपने किसी साथी के ज़रिए लोगों तक अपना संदेश पहुंचाते थे।

दूसरे शब्दों में मस्जिदुन्नबी, धार्मिक कर्तव्यों को अंजाम देने के अलावा, पहला शैक्षिक, राजनीतिक और सामाजिक केन्द्र भी थी। इसी मस्जिद से इस्लामी शासन की बुनियाद रखी गई और इस्लाम के सिद्धांतों को पेश किया गया।

पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीना पहुंचने के बाद, क़ुबा नाम के इलाक़े में मस्जिद के निर्माण की बुनियाद रखी। इतिहास की परमाणित किताबों में इस मस्जिद के निर्माण के बारे में उल्लेख है कि, सोमवार का दिन था, जब पैग़म्बरे इस्लाम क़ुबा के इलाक़े में पहुंचे। क़ुबा मदीने का हरा भरा उपनगरीय इलाक़ा था। क़ुबा में खजूरों के काफ़ी बाग़ थे और आज भी हैं। इस इलाक़े के लोगों ने सबसे पहले पैग़म्बरे इस्लाम का स्वागत किया। अंतिम ईश्वरीय दूत जब इस इलाक़े में पहुंचे तो आप वहां कुछ दिन ठहरे, ताकि हज़रत अली हज़रत फ़ातेमा सहित पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ अन्य परिजनों के साथ वहां पहुंच जाएं। जब वे लोग वहां पहुंच गए तो पैग़म्बरे इस्लाम उनके साथ मदीने गए, जिसका उस समय यसरब नाम था।

पैग़म्बरे इस्लाम ने क़ुबा में चार दिन के अपने प्रवास के दौरान, वहां एक मस्जिद की बुनियाद रखी और गोल पत्थरों से एक दीवार बना दी। इस प्रकार, क़ुबा पहली मस्जिद है, जिसका निर्माण पैग़म्बरे इस्लाम ने किया। हज़रत (स) ने क़ुबा में नमाज़ पढ़ने के बारे में फ़रमाया था, जो कोई भी मेरी इस मस्जिद क़ुबा में आएगा और दो रकअत नमाज़ पढ़ेगा, तो वह उमरे का सवाब लेकर वापस लौटेगा। पैग़म्बरे इस्लाम जब मदीने के केन्द्र में रहने लगे, तो हर सप्ताह शनिवार को और कभी सोमवार को मस्जिदे क़ुबा में जाकर नमाज़ अदा करते थे।

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क़ुबा में चार दिन बिताने के बाद, शुक्रवार के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मदीने में प्रवेश किया, मदीना वासियों ने पैग़म्बरे इस्लाम का भव्य एवं ऐतिहासिक स्वागत किया। लोग समूहों में आकर हज़रत से अनुरोध करते थे कि वे उनके यहां मेहमान रहें। लोग पैग़म्बरे इस्लाम के ऊंट की रस्सी पकड़ लिया करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने लोगों से कहा, ऊंट को आज़ाद छोड़ दो, उसे आदेश दिया गया है, जहां भी वह बैठ जाएगा, वहीं मेरा ठिकाना होगा।

इस उपाय में दो बिंदु छुपे हुए हैं, पहला यह कि जिस स्थान पर मस्जिदुन्नबी का निर्माण हुआ, उसका चयन ईश्वर की ओर से हुआ, यहां तक कि इसके चयन में ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम की कोई भूमिका नहीं थी। दूसरा यह कि इस उपाय से मदीने में रहने वाले क़बीलों के बीच इस विषय को लेकर कोई मनमुटाव नहीं हुआ, जो आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का ऊंट चल पड़ा, यहां तक कि वह बनी मालिक बिन नज्जार के मोहल्ले में पहुंचा और वहां पहुंचकर बैठ गया, इसी स्थान पर आज भी मस्जिदुन्नबी मौजूद है।

इस प्रकार, स्थान के चयन के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने वहां मस्जिद के निर्माण का आदेश दिया। मस्जिद के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम की सक्रिय भूमिका है। वे दूसरे लोगों से अधिक बढ़चढ़कर उसके निर्माण में व्यस्त थे। हालांकि उनके साथियों का आग्रह था कि पैग़म्बरे इस्लाम आराम करें और काम को उनपर छोड़ दें। लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम ने यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया और स्वयं निर्माण कार्य में लगे रहे। इसी कारण, दूसरे लोग भी पूरे जोश के साथ बढ़ चढ़कर काम में लगे रहे।

मस्जिदुन्नबी का डिज़ाइन एक विशेष डिज़ाइन था। इसकी इमारत में अन्य इमारतों या अन्य धर्मों के उपासना गृहों की कोई झलक तक नहीं थी, बल्कि वह बुनियादी तौर पर इस्लामी रूप में थी। निःसंदेह पैग़म्बरे इस्लाम ने सीरिया और मेसोपोटामिया की अपनी यात्राओं के दौरान, चर्चों और गिरजाघरों की इमारतें देखी थीं। लेकिन मस्जिद के निर्माण में उनके डिज़ाइन का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं किया।

मस्जिद की दीवारों को एक मीटर तक ऊंचाई तक पत्थर से चुना गया और बाक़ी के भाग को मिट्टी की ईंटों से बनाया गया। उसकी छत खजूर की शाख़ों से बनाई गई। बहुत ही सादा मस्जिद का निर्माण किया गया। इतिहास में है कि पैग़म्बरे इस्लाम से मस्जिद के निर्माण के बारे में सवाल किया गया तो आपने फ़रमाया, मेरी मस्जिद मूसा (अ) के सायबान की भांति ही एक सायबान है, जिसमें लकड़ियों का प्रयोग किया गया था। उसके सादा होने का कारण बताते हुए पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया था, शीघ्र ही मौत समस्त इंसानों को अपनी आग़ोश में ले लेगी।

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इस बीच, मस्जिद के भाग को ग़रीबों और निर्धनों के रहने के लिए विशेष कर दिया गया। उनमें से अधिकांश संख्या उन लोगों की थी, जो अपना सबकुछ और अपना घरबार छोड़कर मदीना पलायन करके पहुंचे थे। उन्होंने शिक्षा-दीक्षा के लिए निर्धनता को स्वीकार किया था। कुछ समय बाद वे असहाबे सुफ़्फ़ाह के नाम से प्रसिद्ध हो गए। मस्जिद के निर्माण के साथ पैग़म्बरे इस्लाम के निवास स्थल का भी निर्माण किया गया। उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ सथियों ने मस्जिद के निकट ही अपने कमरे बना लिए और मस्जिद के भीतर उनके दरवाज़े खोल दिए, नमाज़ के वक़्त वे इन्हीं दरवाज़ों से मस्जिद में प्रवेश करते थे। हिजरत के तीसरे साल, पैग़म्बरे इस्लाम ने आदेश दिया कि ऐसे समस्त दरवाज़ों को बंद कर दिया जाए, सिवाए हज़रत अली (अ) के घर के दरवाज़े के।

पैग़म्बरे इस्लाम के बाद और इस्लाम के फैलने एवं मुसलमानों की संख्या में वृद्धि होने के कारण, ख़लीफ़ाओं ने मस्जिदुन्नबी का विस्तार किया। यह विस्तार कार्य विभिन्न चरणों में हुआ और अब्बासी ख़िलाफ़त के अंत तक जारी रहा और मस्जिद का क्षेत्रफल 9000 वर्ग मीटर तक पहुंच गया। उस्मानी ख़िलाफ़त के दौरान, मस्जिदुन्नबी का कई बार विस्तार किया गया। 1265 में सुल्तान अब्दुल हमीद द्वारा शुरू किया गया निर्माण कार्य 13 वर्षों तक जारी रहा। आज जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों, मासूम इमामों और कुछ सहाबियों के नाम मस्जिद में लिखे हुए देखे जा सकते हैं, यह उस्मानी दौर की ही यादगार हैं। इन्हीं नामों में से एक अंतिम इमाम मोहम्मद मेहदी (अ) का नाम है। यह नाम इस तरह से लिखा गया था कि हयी शब्द कि जिसका अर्थ ज़िंदा है, उसके नीचे से उजागर रहे। लेकिन कुछ परिवर्तनों के कारण, यह शब्द काफ़ी हद तक धूमिल हो गया है।

आले सऊद शासन के दौरान भी मस्जिदुन्नबी का कई बार विस्तार एवं पुनर्निमाण किया जा चुका है। मस्जिदुन्नबी के कारण, मदीना का असमान्य रूप से सम्मान एवं महत्व है। इसिलए कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, हज़रत इब्राहीम ने मक्के को हरम एवं पवित्र बनाया और वहां के लोगों के लिए दुआ की। मैंने मदीने को हरम बनाया है।