Oct १८, २०१७ १७:२५ Asia/Kolkata

विकलांग उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसका कोई अंग ठीक से काम न करता हो।

जो व्यक्ति , शारीरिक या मानसिक दृष्टि से अक्षम हो सकता है उसे विकलांग कहा जाता है।

हमारे समाज में बहुत से ऐसे लोग भी रहते हैं जो शारीरिक या मानसिक दृष्टि से असमर्थ हैं। ऐसे लोगों को विकलांग, अपंग या अपाहिज कहा जाता है। हालांकि देखने में ऐसा लगता है कि वे किसी काम के करने में सक्षम नहीं हैं जबकि देखा यह गया है कि इस प्रकार के लोग दूसरे आयामों से कभी स्वस्थ्य आदमी से भी अधिक सशक्त होते हैं। उदाहरण स्वरूप वे लोग जो जन्मजात अंधे होते हैं, सामान्यत: उनकी स्परण शक्ति बहुत तेज़ होती है। इस प्रकार के बहुत से अन्य उदाहरण हमें अपने जीवन में मिल जाएंगे।

ईश्वर ने स्वस्थ्य लोगों को यह आदेश दिया है कि वे अपंगों या विकलांगों का ध्यान रखें, उनकी सहायता करें और उनको उनके अधिकार दिलाएं।

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इस्लामी शिक्षाओं में विकालांगों के अधिकारों पर विशेष रूप से बल दिया गया है। पवित्र क़ुरआन के अतिरिक्त पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कथनों और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में भी विकलांगों की सहायता करने के लिए लोगों को प्रेरित किया गया है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि विकलांगों की रीरिक अक्षमता, उनकी प्रगति में बाधा होती है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं लगता। इस्लाम का कहना है कि विकलांग भी एक इन्सान है इसलिए इन्सान होने के नाते उसको अधिकार मिलने चाहिए।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) के जीवन का अध्ययन करने से हमें पता चलता है कि वे अपंग या विकलांगों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया करते थे। इस प्रकार के लोगों वे इस बात के लिए प्रेरित करते थे कि वे अपनी निहित क्षमताओं का सदुपयोग करें। उनका मानना था कि विकलांग, अपनी किसी एक क्षति की भरपाई अपने भीतर छिपी हुई अन्य क्षमताओं को उजागर करके कर सकते हैं।

एक बार एक अंधे व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम के पास आकर कहा कि मैं भी चाहता हूं कि मस्जिद में आकर आपके साथ नमाज़ पढ़ा करूं किंतु मैं अंधा हूं इसलिए यह मेरे लिए संभव नहीं है। उसकी बात सुनकर पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि तुम एक रस्सी लोग जिसका एक सिरा अपने दरवाज़े पर बांध दो और उसी के सहारे मस्जिद आ जाया करो। उसने वैसा ही किया और फिर वह रोज़ नमाज़ पढ़ने पस्जिद आने लगा। इमाम मुहम्मद बाक़िर के एक साथी अबूबसीर थे।अबूबसीर अंधे थे। अंधा होने के बावजूद अबूबसीर इमाम बाक़िर से शिक्षा प्राप्त करते थे। हालांकि वे देख नहीं सकते थे किंतु उनकी सम्रण शक्ति बहुत ही तेज़ और शक्तिशाली थी। वे बातों को बहुत ही जल्दी याद कर लिया करते थे। अबूबसीर अपने काल के प्रसिद्ध विद्वान थे। अबूबसीर ने न देख पाने की अपनी कमी की भरपाई दूसरे माध्यम से की और शिक्षा अर्जित की। शिक्षा प्राप्त करने में उनका अंधापन बाधा नहीं बन सका।

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन, विकलांगों को अन्य काम करने के लिए इसलिए प्रेरित किया करते थे कि वे लोग अपनी किसी एक कमी के कारण ऐसा न हो कि ईश्वर की दी हुई अन्य क्षमताओं से ही लाभ न उठाएं। कहीं ऐसा न हो कि अपनी एक कमी के कारण वे स्वयं को अयोग्य समझ बैठें और समाज से अलग-थलग होकर एकांत में रहने लगें। इस प्रकार वे लोग अवसाद जैसी मुश्किल का शिकार हो सकता हैं और फिर वे अपने भीतर निहित क्षमताओं का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि जो भी व्यक्ति किसी अंधे का हाथ पकड़कर उसे चालीस क़दम तक पहुंचाए तो ईश्वर इसके बदले उसे अच्छा बदला देगा। वे कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी अंधे को कुंए में गिरने या गढ़ढे में गिरने से बचाता है तो केवल इस भलाई के कारण प्रलय के दिन उस व्यक्ति के कर्मों का भार अन्य लोगों के सदकर्मों से कहीं अधिक होगा। पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि उस व्यक्ति का यही काम उसके कई पापों का प्रायश्चित बन जाएगा। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि जो भी व्यक्ति किसी अपंग या विकलांग की सहायता करता है ईश्वर उसके कामों में उसकी सहायता करता है। विकलांगों के बारे में पैग़्म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के वकतव्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विकलांगों की सहायता एक सदकर्म है जिसे ईश्वर बहुत पसंद करता है।

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हज़रत अली अलैहिसस्लाम अपने एक गर्वनर मालिके अशतर को संबोधित करते हुए कहते हैं कि तुम विकलांगों का विशेष ध्यान रखना। उनके अधिकारों का हनन न होने देना। हर शहर में विकलांगों के लिए सरकारी ख़ज़ाने से एक राशि निर्धारित करके कोष बनाओ। उनकी समस्याओं के समाधान के बारे में सोचो और उन्हें उनके हाल पर न छोड़ो। विकलांगों के बारे में इमाम हसन अलैहिस्सलाम का कथन है। हे लोगो, यह देखा जा रहा है कि तुमने बिना किसी कारण के ईश्वर के साथ समझौता तोड़ लिया है। यही कारण है कि नगर के अंधों, बहरों , गूंगों और अपंगों का कोई पूछने वाला नहीं रहा है। उनकी समस्याओं पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है। तुम लोग अपनी अपनी क्षमता के अनुसार भी विकलांगों की सहायता नहीं कर रहे हो। तुम उनके विकास के लिए कोई प्रयास नहीं करते। अगर कुछ भी नहीं कर सकते तो कम से कम उन लोगों का तो आभार प्रकट करो जो विकलांगों की सेवा करते हैं। इन कथनों से यह बात समझ में आती है कि इस्लाम ने विलांग का कितना ध्यान रखा है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम , विकलांगों के लिए अलग से एक बजट रखते थे। जिस समय हज़रत अली शासन करते थे उस समय की बात है। एक बार वे बाज़ार से गुज़र रहे थे उन्होंने देखा कि एक कमज़ोर व्यक्ति दीवार के सहारे बैठा है। देखने में वह निर्धन लग रहा है। इमाम अली उसके पास गए। उन्होंने उस व्यक्ति का हालचाल पूछा। बातों से उन्हें पता चला कि वह बेसहारा है और उसका कोई नहीं है। उस व्यक्ति की यह स्थिति देखकर इमाम ने आदेश दिया कि इस बेसहारा इन्सान के लिए एक राशि निर्धारित की जाए जो हर महीने उसतक पहुंचाई जाए। फिर उन्होंने कहा कि जिस तरह से इस इन्सान ने अपनी जवानी के दौरान काम करके समाज को पहुंचाया उसी प्रकार अब समाज का दायित्व बनता है कि वह उसका ध्यान रखे। इस प्रकार के लोगों की पूरी ज़िम्मेदारी समाजके कांधों पर है।

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समाज के लोगों के एक- दूसरे के प्रति कर्तव्य होते हैं जिनका निर्वाह उनकी ज़िम्मेदारी है। जैसे समाज पर विकालांगों के प्रति कुछ अधिकार होते हैं वैसे ही इन लोगों के समाज के प्रति कुछ दायित्व हैं। यह दायित्व मुख्यात: नैतिक हैं। विकलांगों या अपंगों को चाहिए कि वे धैर्य और संयम से काम ले, अपने मनोबल को ऊंचा रखने का प्रयास करें। अपना जितना भी काम वे स्वयं कर सकते हैं उनको स्वयं करे दूसरों पर न डालें। हर हाल में ईश्वर को याद करते रहें। विकलांगों के लिए ऐसे केन्द्र बनाए जाने चाहिए जाहं पर उनकी क्षमताओं और योग्यताओं को विकसित किया जा सके। हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी बनती है कि हत विकलांगों की आवश्यकता की वस्तुओं को उपलब्ध कराएं और इस ओर अधिक से अधिक ध्यान दें।