इस्लाम और मानवाधिकार- 53
आज युद्ध और शांति व बंदियों का विषय तथा इस प्रकार के मामलों में सरकारों के क्रियाकलाप मानवीय समाज की चिंताओं का मुख्य मुद्दा बन चुके हैं।
हर रोज़ युद्ध में मानवाधिकारों के हनन व सम्मान करने के विषय पर समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। इस संबंध में कुछ कट्टरपंथी मीडिया इस्लाम को युद्धोन्मादी धर्म के रूप में पेश करने का प्रयास कर रहे हैं। इस मार्ग में उन्होंने इस्लाम के विरुद्ध आतंकवाद और हिंसा प्रेम जैसे विषयों का प्रयोग किया है।

यह ऐसी स्थिति में है कि इस्लाम धर्म की शिक्षाएं न्याय, पवित्रता और एकेश्वरवाद की छत्रछाया में शांति और सुलह का निमंत्रण देने तथा शांतिपूर्ण ढंग से आपस में रहने के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं। पवित्र क़ुरआन सदैव मनुष्यों को शांतिपूर्ण और आपस में मेल जोल के साथ जीवन व्यतीत करने का निमंत्रण देता है। हे ईमान वालों, सभी लोग शांति और सुलह का भाग बन जाओ और शैतानी कार्यों का अनुसरण न करो कि वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। पवित्र क़ुरआन ईश्वरीय पुस्तकों का अनुसरण करने वालों को संयुक्त सिद्धांत कि जो शांति पूर्ण ढंग से रहने का सबसे बड़े आधार और ढांचा है, अह्वान करता है। हे ईश्वरीय पुस्तकों पर ईमान रखने वालों, उस बात की ओर आ जाओ जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है, कि एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की पूजा न करें और किसी भी चीज़ को उसका समकक्ष न बनाएं, और हम में से कोई भी एक ईश्वर के अतरिक्त किसी दूसरे को ईश्वर स्वीकार न करें।
पवित्र क़ुरआन प्रतिरोधक तत्परता पर बल देते हुए पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश देता है कि यदि शत्रु शांति का रास्ता अपनाते हैं तो आप भी शांति और सुलह का स्वागत करें। और यदि सुलह की ओर से रुझहान दिखाएं तो आप भी सुलह का भाग हों, ईश्वर पर भरोसा करें, कि वह सुनने वाला और जानकार है। पवित्र क़ुरआन सुलह व सफ़ाई तथा आपसी मेलजोल को मनुष्य के सौभाग्य तथा उसकी भलाई का स्रोत समझता है और कहता है कि सुलह व सफ़ाई बेहतर है। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन ने विभिन्न अवसरों और स्थलों पर शांति व सुरक्षा, मित्रता, भाई चारे और आपसी मेलजोल का आदेश दिया है।

पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने भी अपने दुश्मनों के साथ क्षमा शीलता, दया और अच्छे व्यवहार के साथ बर्ताव किया। पैग़म्बरे इस्लाम के बर्ताव की परंपरा इस बात की गवाह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके अनुयायियों ने कभी भी युद्ध में पहल नहीं की या किसी पर पहले हमला नहीं किया बल्कि समस्त युद्ध इस्लामी जगत और अपने बचाव के लिए लड़े, उनके युद्ध अतिक्रमण को रोकने तथा धर्म के दुश्मनों के उल्लंघनों के जवाब में थे।
शैख़ जवाद बलाग़ी ने लिखा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निकट सबसे पहले सुलह है और जब भी अनेकेश्वरवादी सुलह व शांति और स्वभाविक जीवन गुज़ारने में रुचि रखते थे तो उनके साथ सुलह व शांति से काम लेते थे और यदि उनको पता भी रहता था कि युद्ध की स्थिति में जीत उनकी ही होगी।
दुश्मनों के दुष्प्रचार के बावजूद, हर वस्तु से अधिक पैग़म्बरे इस्लाम की मानवता प्रेमी शैली व उनका बेहतरीन शिष्टाचार, इस्लाम की प्रगति में सबसे प्रभावी रहा है, यहां तक कि कहा गया कि हुदैबिया शांति समझौते के बाद जितने लोगों ने भी इस्लाम स्वीकार किया, उनकी संख्या बीस साल पहले मुसलमान होने वालों से अधिक थी।
मुसलमानों ने कभी भी दूसरों के सम्मान, मानवीय सिद्धांतों के सम्मान तथा शांतिपूर्ण ढंग से रहने को हाथ से जाने नहीं दिया जबकि ग़ैर मुसलमानों ने उनके साथ इसके विपरीत बर्ताव किया। राबर्टसन लिखते हैं कि दूसरे ख़लीफ़ा के काल में जब मुसलमानों ने बैतुल मुक़द्दस पर विजय प्राप्त कर ली उन्होंने ईसाइयों को किसी भी प्रकार का कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया किन्तु इसके विपरीत जब ईसाइयों ने दोबारा इस शहर पर नियंत्रण स्थापित कर लिया तो उन्होंने पूरी शक्ति के साथ मुसलमानों का बडी निर्दयता के साथ जनसंहार किया और यहूदी भी जब वहां पहुंचे तो उन्होंने ने भी बेपरवाह होकर समस्त चीज़ों को आग लगा दी।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में यह बात स्पष्ट थी कि पैग़म्बरे इस्लाम के लिए शांति और लोगों को धर्म की ओर बुलाना, प्राथमिकता रखता था और इसको सुलहे हुदैबिया जैसे शांति समझौते की देन कहा जा सकता है।
पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों में युद्ध के बारे में बयान किया गया है और यह बताया गया है कि इस्लामी शिक्षाओं में युद्ध करने की शैली और युद्ध के बारे में बातें की गयी हैं। इन्हीं मामलों में से एक युद्ध के दौरान पुरुषार्थ से काम लिया जाए। यह कि युद्धरत पक्ष, युद्ध के दौरान दुश्मनों को धोखा न दें और इसी प्रकार युद्ध आरंभ करने वाले न हों। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जब दुश्मनों के मुक़ाबले के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम को सेनापति बनाकर भेजा तो उनसे बल देकर कहा कि दुश्मनों से आमने सामने का मुक़ाबला करना और अचानक पीठ पीछे हमला न करना । सबसे पहले उसे इस्लाम का निमंत्रण देना या उसे युद्ध के लिए बता देना ताकि वह युद्ध के आरंभ होने की ओर से निश्चेत न रहे। युद्ध के दौरान कभी धोखाधड़ी और चालबाज़ी से काम मत लेना।
पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत संख्या 190 में आया है कि जो लोग तुम से युद्ध करते हैं तुम भी उनसे ईश्वर के मार्ग में जेहाद करो और ज़्यादती न करो कि ईश्वर ज़्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता।

इस आयत से यह समझा जाता सकता है कि इस्लाम की दृष्टि में युद्ध ईश्वर के लिए होना चाहिए या किसी धरती पर क़ब्ज़ा करने या युद्ध में प्राप्त होने वाली धन संपत्ति के लिए। इस शब्द का अर्थ कि “जो लोग तुम से युद्ध करते हैं”, इस विषय की ओर से इशारा करता है कि उन लोगों से युद्ध करना चाहिए जो तुमसे युद्ध करते हैं, न कि महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों और आम लोगों से। “ज़्यादती न करो” शब्द में भी युद्ध के आयाम छिपे हुए हैं। अर्थात युद्ध और युद्ध के उपकरण शत्रु के अनुरूप होने चाहिए, इसी प्रकार आवासीय क्षेत्रों पर हमला नहीं करना चाहिए, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों और हदीसों में इस बात को स्पष्ट रूप से बयान किया गया है।
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के हवाले से बयान किया गया है कि वे कहते हैं कि जैसे ही पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों के एक गुट को एक बस्ती में भेजने का फ़ैसला किया, ताकि उनको इस्लाम का निमंत्रण दे, उनको अपने सामने बिठाया और उनसे कहा कि ईश्वर के नाम से और ईश्वर के लिए, ईश्वर के मार्ग में और ईश्वरीय दूत के अनुयाइयों के रास्ते पर चलना, बूढ़े लोगों, बच्चों और महिलाओं को न मारना, पेड़ों को न काटना किन्तु यह कि इस काम के लिए मजबूर हो जाओ। यदि कोई मुसलमान, किसी अनेकेश्वरवादी को अवसर दे तो वह अनेकेश्वरवादी तुम्हारी शरण में है, ताकि यह कि ईश्वर का कलाम सुने। यदि ईश्वरीय कलाम सुनने के बाद उसने ईश्वरीय आज्ञापालन किया, वह धर्म में तुम्हारा भाई और यदि इससे मना किया तो उसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दो। कुछ युद्धों मं पैग़म्बरे इस्लाम ने अनेकेश्वरवादियों पर विजय के बाद उन मुसलमानों को अनेकेश्वरवादियों के बच्चों को जान से मारने से रोक दिया और इसके जवाब में उनके साथियों ने कहा कि क्या यह अनेकेश्वरवादियों के बच्चे नहीं हैं? उन्होंने इस बात की ओर संकेत करते हुए कि उनके अधिकतर साथी भी अनेकेश्वरवादियों के बच्चे थे, कहा कि हर मनुष्य पवित्र प्रवृत्ति के साथ पैदा होता है, यह उसके माता पिता उसको यहूदी और ईसाई बना देते हैं। महिलाओं और बच्चों की हत्या से रोकना और उनके अधिकारों के हनन से रोकना, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के आचरण में महत्वपूर्ण था जिसके बारे में धर्म शास्त्र की पुस्तकों में विस्तार से चर्चा की गयी है। महिलाओं के अतिरिक्त पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के आचरण में अंधे, बीमारों, पागल और रणक्षेत्र में उपस्थित होने में अक्षम लोगों पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।

सशस्त्र अंतर्राष्ट्रीय झड़पों में मानवाधिकार का विषय सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसमें युद्धबंदियों के साथ बर्ताव से लेकर मानवाधिकारों के सम्मान तक की बात की जाती है। इस्लाम धर्म में भी बंदियों के अपने एक विशेष अधिकार और क़ानून है। हर स्थिति में मुसलमानों पर इसके सम्मान और इसका पालन ज़रूरी है। जैसे बंदियों को खाना देना, बंदियों को न मारना, उस पर दबाव न डालना, बच्चों को अपनी मांओं से अलग कर देना तथा अन्य विषयों पर इस्लाम धर्म विशेष रूप से ध्यान दिया है।
इस्लाम धर्म में युद्ध के संस्कारों की समीक्षा करने से इस वास्तविकता का पता चलता है कि आज जो कुछ अंतर्राष्ट्रीय अधिकार व्यवस्था में चल रहा है और जिसका बड़ा ज़ोर व शोर से सम्मान किया जा रहा है, इसको चौदह शताब्दी पूर्व ही इस्लाम ने बयान कर दिया था। इस विषय का महत्व उस समय पता चलता है जब युद्ध के काल में मानवाधिकारों के सम्मान का कोई विषय पाया जाता है और न उस पर कोई ध्यान देता है।
युद्ध बंदियों के बारे में इस्लाम के नियम पूर्ण रूप से तार्किक व मानवीय हैं। युद्ध समाप्त होने के बाद मुसलमान समस्त युद्धबंदियों को पूरी सुरक्षा के साथ मुसलमान नेता के पास लाते थे और वह भी हालात को देखते हुए तीन में से एक काम उन पर लागू कर देता था। उनको बिना शर्त के स्वतंत्र कर देता था, या वे हर्जाना देकर आज़ाद हो जाया करते या उनको दास बना लिया जाता था।
अलबत्ता आवश्यकता पड़ने पर मुसलमानों के नेता या इमाम युद्ध बंदियों का आदान प्रदान भी करते थे। यद्यिप यह मामला दूसरे विषय के अंतर्गत आता था क्योंकि वास्तव में मुसलमान बंदी उसका हर्जाना समझे जाते हैं।
इस्लाम धर्म के क़ानून में किसी भी प्रकार के बंदी की हत्या करना अवैध है। सूरए मुहम्मद की आयत संख्या 4 में इस बात की ओर स्पष्ट रूप से संकेत किया गया हैः फिर जब काफ़िरों से मुक़ाबला हो तो उनकी गर्दनें उड़ा दो यहां तक कि जब घावों से चूर हो जाएं तो उनकी पानी की मश्कें बांध लो फिर उसके बाद चाहे भलाई करके छोड़ दिया जाए या हर्जाना ले लिया जाए यहां तक कि युद्ध शांत हो जाए। यह याद रखना और यदि ईश्वर चाहता तो स्वयं ही उनसे बदला ले लेता किन्तु वह एक दूसरे के माध्यम से आज़माना चाहता है और जो लोग उसके मार्ग में मारे गये वह उनके कार्यों को बर्बाद नहीं कर सकता है।

यह आयात स्पष्ट करती है कि दुश्मनों पर विजय और उनको बंदी बना लिए जाने के बाद, बंदियों को मारना अवैध है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) का आचरण और करनी भी इसी प्रकार थी और कुछ युद्धों में मुसलमानों के हित भी इसी में थे कि वह युद्ध बंदियों के लिए हर्जाना थे, कभी कभी बंदी को स्वतंत्र करा दिया जाता था ताकि वह मुसलमानों को लिखना पढ़ना सिखाए और कभी कभी स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम भी बिना शर्त के बंदियों को स्वतंत्र कर देते थे जैसा कि उन्होंने कई क़बीले के साथ ऐसा ही बर्ताव किया था।