Oct २९, २०१७ १६:०९ Asia/Kolkata

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम बूढ़े लोगों के अधिकार के बारे में फ़रमाते हैं, “वृद्ध लोगों का अधिकार यह है कि उसकी वृद्धावस्था का सम्मान करो।

अगर इस्लाम लाने में वह अग्रणी हो, तो सराहना करो, उन्हें अपने से आगे रखो, मतभेद की स्थिति उनके साथ आक्रमक रवैया मत अपनाओ, रास्ता चलते समय उनसे आगे न चलो, उन्हें मूर्ख न समझो, अगर अज्ञानता भरा व्यवहार किया तो धैर्य से काम लो, वृद्ध व्यक्ति के लंबे अतीत के मद्देनज़र उनका सम्मान करो क्योंकि उम्र व साल का अधिकार भी उसी तरह है जिस तरह इस्लाम में अग्रणी रहने के अधिकार को प्राथमिकता हासिल है।”

इंसान ज़िन्दगी के शुरु में एक कमज़ोर प्राणी होता है जो बड़े आश्चर्य के साथ विकास के चरण को एक के बाद एक तय करता है। जवानी में शारीरिक दृष्टि से और प्रौढ़ अवस्था में भावनात्मक दृष्टि से परिपक्वता तक पहुंचता है। उसके बाद ढलना शुरु होता है और फिर अक्षमता की ओर पलटता है। इस बारे में पवित्र क़ुरआन के रूम नामक सूरे की आयत नंबर 54 में ईश्वर कहता है, “ईश्वर ने तुम्हें पैदा किया इस हालत में कि तुम कमज़ोर थे। उसके बाद उसने तुम्हें ताक़त दी और फिर शक्ति के बाद तुम्हें वृद्धावस्था में पहुंचाया। वह जो चाहता है पैदा करता है। वह सर्वज्ञानी व सर्वसमर्थ है।”

इस्लाम में वृद्ध लोगों विशेष सम्मान हासिल है और समाज के हर व्यक्ति पर उनकी देखभाल ज़रूरी है। इसलिए इस्लाम ने कुछ क़ानून बनाए हैं ताकि इंसानों को उन क़ानूनों का ज्ञान हो और उनका सम्मान करें। बूढ़े लोगों के सम्मान इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वृद्ध व्यक्ति अपने कांधे पर इंसानी ज़िम्मेदारी को उतार चढ़ाव भरे जीवन में अच्छी तरह अंजाम देते हुए, मूल्यवान अनुभव के साथ समाज के दूसरे लोगों के साथ खड़ा होता है।

एक बुद्धिमान व्यक्ति का कहना है, “मानवता अपने नैतिक विकास में वृद्ध लोगों की ऋणी है। वृद्धावस्था में इंसान बेहतर व समझदार हो जाता है और अपने अनुभव को बाद वाली पीढ़ी के हवाले करता है। वृद्धावस्था न हो तो मानवता ठहर जाएगी।”

वृद्ध लोगों के संबंध में समाज पर कुछ दायित्व बनते हैं। दूसरे शब्दों में समाज और परिवार पर वृद्ध लोगों का अधिकार रहेगा।

यहां पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम बूढ़ों के संबंध में व्यवहार और उनकी मर्यादा की रक्षा पर बल दे रहे हैं। बूढ़े मां-बाप जिन्होंने जवानी में परिवार गठित कर उम्र के रूप में मौजूद अपनी संपत्ति को बच्चों के पालन-पोषण में लगा दी, अगर बुढ़ापे में नज़रअंदाज़ किए जाएं तो वे मानसिक व आत्मिक दबाव का शिकार होंगे। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की नज़र में बूढ़ों के साथ सम्मान में, उनके साथ दुश्मनी न करना भी शामिल है। क्योंकि स्वाभाविक रूप से जैसे इंसान की उम्र गुज़रती जाती है वह अक्षम होता जाता है और उसे दूसरों से अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। हो सकता है कि इनमें से कुछ अपेक्षाएं सही न हों या उन्हें पूरा करना बहुत कठिन हो। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि चूंकि इस बात की संभावना है कि यह भावना उसे दूसरों के साथ टकराव की स्थिति में खड़ा कर दे, इसलिए उनके सम्मान का तक़ाज़ा यह है कि उनके साथ दुश्मनी न की जाए, किसी काम में बूढ़ों से आगे न बढ़ो और उनसे अतार्किक बात न करो। बल्कि उनकी मदद की ओर तेज़ी से बढ़ो। बूढ़ों के संबंध में जो बात हमारे दृष्टिकोण को बदल सकती है वह यह कि हम भी एक न एक दिन बूढ़े होंगे और बुढ़ापे का अनुभव करेंगे।           

बूढ़ों का आम तौर पर सम्मान अनिवार्य है और अगर वे बूढ़े मां-बाप हों तो यह कर्तव्य दुगुना हो जाता है। मां-बाप को बुढ़ापे में दूसरों से ज़्यादा ध्यान की ज़रूरत होती है और इसी तरह बूढ़ों का समाज के एक एक सदस्य पर अधिक अधिकार है। इसलिए क़ुरआन हमें इस ओर से सचेत करते हुए कह रहा है कि अपने बूढ़े मां-बाप के संबंध में उफ़ शब्द भी मुंह से न निकालो।

इसरा सूरे की आयत नंबर 44 में ईश्वर कह रहा है, जब मां बाप में कोई एक या दोनों बूढ़े हो जाएं तो उनके साथ उफ़ भी न कहो। उन पर चीख़ो-चिल्लाओ नहीं। उन्हें अपने पास से दूर मत करो। उनके साथ सम्मान से बात करो। उनके सम्मान में अपने कांधे को झुकाए रखो और कहो! हे पालनहार! उनके साथ उसी तरह कृपा कर जिस तरह उन्होंने बचपन में मेरा प्रशिक्षण व पालन पोषण किया।

जिन बातों का इस आयत में ऐसे मां बाप के संबंध में उल्लेख है जो बूढ़े हो चुके हैं, ज़रूरी है कि मां बाप के दोस्तों का भी सम्मान करें। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, बाप के दोस्त का हाल चाल पूछना बाप के साथ भलाई करने जैसा है।

इस्लाम में बुढ़ापे में मां बाप का ख़र्च वहन करना औलाद की ज़िम्मेदारी निर्धारित की गयी है ताकि औलाद यह जान ले कि मां बाप की सेवा उस पर अनिवार्य है और उसे इस कर्तव्य के अंजाम देने में किसी तरह की लापरवाही नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही इस्लाम मां बाप से चाहता है कि वह अपने बच्चों का लालन पालन इस तरह करें कि वे समाज और बूढ़ों के संबंध में अपने बहुआयामी कर्तव्य को निभाएं।

पवित्र इस्लाम में बूढ़ों को बहुत अहमियत दी गयी है। इसी प्रकार बूढ़ों के साथ सम्मानजनक व्यवहार और उनकी मर्यादा की रक्षा पर बहुत बल दिया गया है। यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “बूढ़े मुसलमान का सम्मान ईश्वर का सम्मान करने की तरह है।” एक और स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “जो कोई एक बूढ़े व्यक्ति के स्थान को उसकी उम्र के मद्देनज़र पहचाने और उसका सम्मान करे तो ऐसे व्यक्ति को ईश्वर प्रलय के दिन के भय से सुरक्षित रखेगा।”

बड़ों का सम्मान और छोटों के साथ मेहरबानी इस्लाम के नैतिक मूल्यों में हैं। जैसा कि इस बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है, “जो कोई हमारे बड़ों का सम्मान न करे और हमारे छोटे के साथ मेहरबानी न करे वह हममें से नहीं है।”

बड़ों के साथ शिष्टाचार का भाग यह भी है कि उन्हें नाम से न पुकारें, उनके सम्मान में खड़े हो जाएं, उनके आगे न चलें, उनसे सख़्त लहजे में बात न करें, उनकी ज़रूरत को पूरा करें, उनकी सेवा को महाकर्तव्य समझें और बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें।      

हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी अपने समय के हालात और लोगों के दुर्व्यवहार की आलोचना करते हुए दो अहम बातों की ओर इशारा करते हैं। एक छोटों की ओर से बड़ों का अपमान और अमीरों की ओर से ज़रूरतमंदों का नज़रअंदाज़ किया जाना। हज़रत अली फ़रमाते हैं, “ऐसे दौर में जी रहे हैं छोटे बड़ों का सम्मान नहीं करते और अमीर निर्धन की मदद नहीं करता।”

पैग़म्बरे इस्लाम के इन कथनों से भी इस्लाम में बूढ़ों को हासिल स्थान का पता चलता है कि तुम्हारे बूढ़ों के वजूद से बरकत व भलाई है और एक परिवार में बूढ़े व्यक्ति की हैसियत उसी तरह है जिस तरह एक जाति में एक ईश्वरीय दूत की होती है। बूढ़े लोगों के वजूद से मिलने वाली अनुकंपाओं के बारे में आम तौर पर लोग उनके जीवन में अपरिचित होते हैं और जब तक उनके संवेदनशील स्थान व समस्याओं के हल में उनके महत्वपूर्ण योगदान को समझते हैं उस वक़्त तक वह हमारे बीच नहीं रहते। बहुत से मतभेद, झगड़े और पारिवारिक विवाद जो परिवार के बुज़ुर्ग के देहांत के बाद सिर उठाते हैं, इसी प्रकार बहुत से संपर्क जो ख़त्म हो जाते हैं, या ठंडे बस्ते में चले जाते हैं, उसका कारण उस हस्ती का देहांत होता है जो परिवार में मोहब्बत का स्रोत होता है।

अगर हम इस बात को मानते हैं कि परिवार के बुज़ुर्ग का वजूद ध्रुव की हैसियत रखता है, परिवार में एकता, प्रेम, संपर्क और परिवार के सदस्यों की आवा-जाही का आधार बनता है तो उनके स्थान की रक्षा होनी चाहिए।              

उम्र का बड़ा हिसा बलिदान, मेहरबानी, ख़ुद को मिटा कर औलाद का पालन पोषण करने वाले के अधिकार को पहचाने का तक़ाज़ा है कि परिवार में उसका सम्मान हो। उसके साथ ऐसा व्यवहार न हो जिससे उसे दुख पहुंचे। जो बात वह अनुभव के आधार पर कहे उसकी अनदेखी न होने पाए।

जिस तरह घर के बुज़ुर्ग को दुख पहुंचाने और पिता का औलाद को आक़ करने अर्थात अपने वंश से निकालने को बुरा कहा गया है, उसी तरह उनके साथ भलाई की अनुशंसा की गयी है। पिता की सेवा बच्चों के स्वर्ग में जाने की गैरंटी है।

इब्राहीम बिन शुऐब कहते हैं कि मैंने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से कहा, “मेरे पिताजी बहुत बूढ़े व कमज़ोर हो गए हैं। जब उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत होती है तो उन्हें कांधे पर बिठा कर ले जाता हूं।” इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “अगर उनके काम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी संभाल सकते हैं तो संभालो! यहां तक कि अपने हाथ से उनके मुंह में लुक़मा दो कि ऐसा करने से तुम्हें स्वर्ग में जगह मिलेगी।”