मस्जिद और उपासना- 5
आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने आपको यह बताया था कि मस्जिद आम लोगों के इकट्ठा होने की सबसे अहम जगह है।
यह जगह ईश्वर पर आस्था बढ़ाने की बेहतरीन जगह है। यह मुसलमानों की सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक गतिविधियों में विस्तार का केन्द्र है। पैग़म्बरे इस्लाम की पहल पर मस्जिदुन नबी का निर्माण हुआ और यह जगह मुसलमानों के लिए उपासना का स्थल होने के साथ साथ राजनीति, न्यायिक कार्यवाही और शिक्षा का केन्द्र भी बन गयी। इस बात में शक नहीं कि मस्जिद सबसे पहले उपासना व धार्मिक संस्कारों को अंजाम देने की जगह है और इस जगह पर सबसे बड़ी उपासना हर दिन पांच वक़्त की नमाज़ा का आयोजन है। इस्लाम के उदय के आरंभिक दिनों में मुसलमान हर दिन बड़े शौक़ से मस्जिदुन नबी जाते और सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते हुए ईश्वर के निकट होते। मस्जिदुन नबी का निर्माण पूरा होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत बिलाल को अज़ान कहने का आदेश दिया ताकि लोग नमाज़ को मस्जिद में सामूहिक रूप से पढ़ें। इस्लाम में सबसे पहली अज़ान कहने वाले हज़रत बिलाल हब्शा के रहने वाले थे जो अब सूडान कहलाता है। हज़रत बिलाल ने अपनी मधुर व सम्मोहित करने वाली आवाज़ से मदीना के माहौल को आध्यात्म से भर दिया। उस समय मदीना में ऐसे लोग थे जिनकी आवाज़ हज़रत बिलाल से अधिक मधुर थी और लहजा अधिक साफ़ था लेकिन हज़रत बिलाल के पाक मन और निष्ठा ने उन्हें इस स्थान पर पहुंचाया। आवाज़ वह आवाज़ है जो हर दिन पूरी दुनिया में मस्जिदों के मीनारों से कान में पहुंचती है और एकेश्वरवाद, पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी और नमाज़ के आयोजन की याद दिलाती है। वाणी का पहला वाक्य ईश्वर के नाम से शुरु होता है। उसके अनन्य होने पर बल देता और पैग़म्बरे इस्लाम के अंतिम ईश्वरीय दूत होने पर गवाही के साथ आगे बढ़ता है और लोगों को मुक्ति, सदकर्म, नमाज़ और ईश्वर को याद करने का निमंत्रण देते हुए संपन्न होता है। अज़ान ईश्वर के नाम से शुरु होती है और ईश्वर के नाम पर समाप्त होती है। इसके हर वाक्य छोटे लेकिन बहुत ही अर्थपूर्ण हैं। इसका अर्थ स्पष्ट, सार्थक व जागरुक बनाने वाला है।

जिस तरह सृष्टि का हर अंग ईश्वर का गुणगान करता है उसी तरह मस्जिद अपने पूरे अस्तित्व से ईश्वर का गुणगान करती है। लेकिन मस्जिद का मुणगान दूसरी चीज़ों की तुलना में भिन्न है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “अगर कोई व्यक्ति मस्जिद से कोई कंकर भी बाहर ले जाए तो उसे चाहिए कि मस्जिद में वापस रख दे।” वास्तव में कंकर भी मस्जिद का अंग समझे जाते हैं और चूंकि मस्जिद ईश्वर की उपासना की जगह है इसलिए उसमें मौजूद छोटे छोटे कंकर का भी ईश्वर से संबंध है।
इसलिए मस्जिद से कंकर समान किसी चीज़ को बाहर ले जाना सही नहीं है। यहीं पर इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम के इस स्वर्ण कथन से ईश्वर के निकट नमाज़ पढ़ने वाले के स्थान को भी समझ सकते हैं। आप फ़रमाते हैं, “जो भी मस्जिद जाता है तो उसका पैर ज़मीन में जिस ख़ुश्क और गीली चीज़ पर पड़ता है, ज़मीन की सारी परतें ईश्वर का गुणगान करती हैं।”
हमने इस बात की ओर इशारा किया था कि पैग़म्बरे इस्लाम के दौर में मस्जिद बहुत ही सादा तरीक़े से बनायी गयी थी। उसकी दीवारें पत्थर और ईंट की थीं और उसकी छत खजूर की डालों से छायी गयी थी। मस्जिद के फ़र्श पर रेत बिछी थी ताकि बारिश की वजह से छत से टपकने वाले पानी को फ़र्श सोख ले। इतिहास की किताब में है कि मस्जिदुन नबी का निर्माण पूरा होने के कुछ ही दिन के भीतर बारिश हुयी और मस्जिद का फ़र्श गीला हो गया। एक व्यक्ति अपने दामन में रेत लाया और उसे अपने पैरों के नीचे डाल दिया। जब पैग़म्बरे इस्लाम की नमाज़ ख़त्म हुयी तो उन्होंने उस व्यक्ति के इस काम को पसंद किया और कहा कि यह कितना अच्छा काम है। उस दिन से मस्जिदुन नबी का फ़र्श रेत का बन गया।
आज कल तो मस्जिदुन नबी का फ़र्श पक्का बना हुआ है और उस पर क़ालीन बिछी हुयी है। साथ ही विभिन्न साइज़ों के क़ालीन की बुनाई के लिए कारख़ाने भी लगाए गए हैं। मस्जिदुन नबी में आने-जाने के तीन द्वार हैं। वह द्वार जो मस्जिदुन नबी के अंत में हुआ करता था उस द्वार को उस वक़्त बंद कर दिया गया जब ईश्वर की ओर से क़िब्ले को बैतुल मुक़द्दस से मक्का की ओर बदलने का आदेश आया। इस द्वार की जगह पर मस्जिदुन नबी के उत्तर में एक दूसरा द्वार खोला गया।

एक दूसरा द्वार मस्जिदुन नबी के पश्चिमी छोर पर था जिसे बाबुल आतेका कहते थे। आतेका मक्का की एक महिला थीं जो मुसलमान होने के बाद मदीना पलायन कर गयी थीं। इस द्वार का नाम बाबुल आतेका इसलिए पड़ा क्योंकि इस द्वार के बिल्कुल सामने ही आतेका का घर था यह द्वार बाबुर्रहमा अर्थात कृपा के द्वार के नाम से भी मशहूर है। इसका नाम बाबुर्रहमा इसलिए पड़ा क्योंकि एक बार एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम से मिलने मस्जिदुन नबी आया और उसने बारिश न होने की वजह से पैग़म्बरे इस्लाम से निवेदन किया कि वे बारिश के लिए ईश्वर से दुआ करें। पैग़म्बरे इस्लाम ने दुआ की और एक हफ़्ता ख़ूब बारिश हुयी। वह व्यक्ति इस डर से कहीं बाढ़ न आ जाए फिर पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचा और उनसे निवेदन किया कि वे बारिश रुकने के लिए दुआ करें। पैग़म्बरे इस्लाम ने दुआ की और बारिश रुक गयी। चूंकि बारिश ईश्वर की कृपा का एक चिन्ह है इसलिए इस द्वार का नाम बाबुर्रहमा पड़ा। इस द्वार को बाबुन नबी भी कहा जाता है क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम इसी द्वार से मस्जिद में दाख़िल होते थे। मस्जिदुन नबी के पूर्वी भाग में एक द्वार था जिसे बाबुल जिबरईल कहते थे। इसका नाम बाबुल जिबरईल इसलिए पड़ा क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम ने बनी क़ुरैज़ा जंग के समय इसी द्वार पर ईश्वरीय फ़रिश्ते हज़रत जिबरईल का दर्शन किया था। इस द्वार को बाबुल उस्मान भी कहते थे क्योंकि उसी द्वार के सामने हज़रत उस्मान का घर था। बाबुल सलाम नाम का द्वार मस्जिद की पश्चिमी दीवार में बना था। लेकिन समय बीतने के साथ इन द्वारों की संख्या बढ़ती गयी। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ अनुयायी अपना घर मस्जिदुन नबी के किनारे बनवाते थे। इन घरों में आम तौर पर दो द्वार होते थे। एक द्वार बाहर की ओर और दूसरा द्वार मस्जिदुन नबी में खुलता था। स्थिति ऐसी ही रही यहां तक कि हिजरत के तीसरे साल पैग़म्बरे इस्लाम के आदेश से उन सभी घरों के दरवाज़े को जो मस्जिद की तरफ़ खुलते थे, बंद कर दिया गया सिवाए हज़रत अली अलैहिस्सलाम के घर के दरवाज़े के। आज मस्जिदुन नबी में बहुत ज़्यादा बदलाव हुआ है और वह बहुत बड़ी बन चुकी है। इस वक़्त इस पवित्र मस्जिद में 7 मुख्य दरवाज़े और 81 प्रवेश द्वार हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम का रौज़ा मस्जिदुन नबी के भीतर है। रवायतों में पैग़म्बरे इस्लाम के रौज़े के दर्शन पर बहुत बल दिया गया है और दर्शन करने का बहुत पुन्य बताया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस स्थान को स्वर्ग के बाग़ में से एक बाग़ कहा है। पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र, आपका मिंबर और मेहराब रौज़े के पवित्र स्थानों में हैं। पैग़म्बरे इस्लाम का शरीर उसी स्थान पर दफ़्न है जहां से आपकी आत्मा परमात्मा के दीदार के लिए संसार को छोड़ कर गयी थीं। पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र और पहले व दूसरे ख़लीफ़ाओं की क़ब्रे इस समय एक कमरे में हैं कि जिसके चारों ओर सोने की ज़रीह बनी हुयी है। इसके उत्तरी छोर पर एक स्थान है कि जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी हज़रत हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की क़ब्र है। इस स्थान को उन नक़्शे के आधार पर निर्धारित किया गया है जिसमें यह माना गया है कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अपने घर में दफ़्न हैं। कुछ दूसरी रवायतों में हज़रत फ़ातेमा की क़ब्र जन्नतुल बक़ी में माना गया है। इस रवायत पर सुन्नी संप्रदाय का विश्वास अधिक है। जिस चौकोर कमरे में पैग़म्बरे इस्लाम दफ़्न हैं, उसी के ऊपर हरे रंग का गुंबद बना हुआ है। यह गुंबर 4 मज़बूत खंबों पर टिका हुआ है।

मस्जिदुन नबी में एक और पवित्र स्थान वह है जहां पैग़म्बरे इस्लाम का मिंबर रखा हुआ है। रवायत में है कि पैग़म्बरे इस्लाम आरंभ में खजूर के तने के सहारे भाषण देते थे यहां तक एक साथी मिंबर बनाने का सुझाव दिया ताकि पैग़म्बरे इस्लाम थके नहीं और उस पर बैठ कर भाषण दें और लोग भी उन्हें देख सकें। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस बात को स्वीकार किया। उसके बाद मिंबर बनाने का आदेश दिया गया जिसमें तीन ज़ीने थे और ऊपर बैठने की जगह। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है कि जो कोई मेरे मिंबर के पास झूठ बोले चाहे वह झूठ एक दातुन की लकड़ी के लिए हो, वह नरक में जाएगा।
तीन ज़ीने वाला यह मिंबर मुआविया बिन अबू सुफ़ियान के शासन काल तक इस्तेमाल हुआ। मुआविया ने ख़ुद के सत्य पर होने को दर्शाने के लिए कोशिश की कि पैग़म्बरे इस्लाम के मिंबर को मदीने से सीरिया ले जाए लेकिन मदीना के लोगों ने इसका विरोध किया और उसे ऐसा करने से रोक दिया। उसके बाद बढ़ई ने उसी मिंबर में 6 ज़ीने और जोड़ दिए जिससे वह 9 ज़ीनों का मिंबर हो गया। इस मिंबर की अब्बासी शासकों के दौर में कई बार मरम्मत हुयी यहां तक कि 654 हिजरी क़मरी में मस्जिदुन नबी में आग लग गयी और यह मिंबर पूरी तरह जल गया। इतिहास के अनुसार, जले हुए मिंबर को उसी स्थान पर दफ़्न कर दिया गया जहां इस वक़्त मौजूदा मिंबर रखा हुआ है।

मस्जिदुन नबी में इस वक़्त जो मिंबर है वह मरमर का है और 12 ज़ीनों का है जिसे उस्मानी बादशाहों में से किसी ने 999 हिजरी क़मरी में भेंट किया था। इस मिंबर पर बने चित्रों पर सोने का पानी चढ़ा है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के दौर में मस्जिदुन नबी में मेहराब नहीं था और मुसलमान मेहराब के नाम से उन आयतों को जानते थे जिसमें हज़रत मरयम, हज़रत ज़करिया और हज़रत दाऊद का ज़िक्र था। यहां तक कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने जिस स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिदुन नबी में सजदा करते थे वहां मेहराब बनवा दिया। अलबत्ता समय गुज़रने के साथ इस मेहराब में भी बहुत बदलाव आए। मौजूदा मेहराब मरमर का बना है और उसे पवित्र क़ुरआन की आयतों से सजाया गया है। यह मेहराब मिस्री शासक अशरफ़ क़ायतबाय के दौर में बना है। इस मेहराब की अहमियत के बारे में आया है कि यह मेहराब काबे के समान अहमियत रखता है अर्थात जो कोई इस मेहराब को देखे मानो उसने काबे के दर्शन किए हों।
इस मुख्य मेहराब के अलावा मस्जिदुन्नबी में कुछ और मेहराबें हैं। उन्हीं मेहराबों में एक मेहराब का नाम मेहराबे तहज्जुद है। यह मेहराब हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के घर के पीछे और सुफ़्फ़ा नामक चबूतरे के सामने है। पैग़म्बरे इस्लाम कभी कभी रात में इस स्थान पर भी ईश्वर की उपासना करते थे।

एक और मेहराब है जिसे मेहराबे फ़ातेमा कहते हैं। यह मेहराब हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के घर में, मेहराबे तहज्जुद के दक्षिण में स्थित था। यह वह मेहराब था जहां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा नमाज़ पढ़ती थीं। इस समय यह मेहराब पैग़म्बरे इस्लाम के कक्ष का हिस्सा बन गया है। एक अन्य मेहराब उस्मानी मेहराब है जिसका संबंध उस्मानी शासकों से बताया जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मेहराब तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान के दौर में बना था। यह मेहराब पैग़म्बरे इस्लाम के मेहराब के पीछे बना हुआ है। इस समय मस्जिदुन्नबी में सामूहिक रूप से नमाज़ इसी मेहराब में आयोजित होती है।