मस्जिद और उपासना- 6
हमने आपको यह बताया था कि मस्जिद, अल्लाह का घर है।
वे लोग जो पाबंदी से मस्जिद जाते हैं वे ईश्वर की विशेष विभूतियों से लाभान्वित होते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि जो मस्जिद जाता है वह वास्तव में ईश्वर का मेहमान होता है जिसे ईश्वर आध्यात्मिक और भौतिक आजीविका प्रदान करता है। मस्जिद जाने के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि जो लोग नियमित रूप से मस्जिद जाते हैं उनकी वजह से बहुत से दूसरे लोगों पर भी ईश्वर की कृपा होती है।

मस्जिद बनवाना, पैग़म्बरे इस्लाम (स) की परंपरा रही है। पवित्र क़ुरआन के सूरे नूर की आयत संख्या 36 में ईश्वर कहता हैः उन घरों में जिनको ऊँचा करने और जिनमें अपने नाम के याद करने का अल्लाह ने हुक्म दिया है।
इस्लाम के उदयकाल में मुसलमानों में मस्जिद बनाने के प्रति विशेष प्रकार का लगाव पाया जाता था। उनके भीतर यह बात पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं से घर कर चुकी थी। जब पैग़म्बरे इस्लाम, मक्के से पलायन करके मदीने पहुंचे तो उन्होंने वहां पर मस्जिदे क़ोबा और मस्जिदुन्नबी बनवाई। इनको बनाने में स्वयं उन्होंने पूरा सहयोग दिया। इसके बाद मदीने के कई क्षेत्रों में 9 मस्जिदें बनाई गईं। पैग़म्बरे इस्लाम मदीने के क़बीले वालों के यहां जाते और उनके मुहल्ले में मस्जिद के लिए जगह और क़िबले की दिशा का निर्धारण किया करते थे। जब मस्जिद बनकर तैयार हो जाती थी तो उसमें पहली नमाज़ वे स्वयं पढ़ा करते थे।
इसके अतिरिक्त पैग़म्बरे इस्लाम (स) जहां पर यात्रा पर जाते वहां पर नमाज़ पढ़ने के लिए एक स्थान का निर्धारण कर दिया करते थे। इस प्रकार से उन्होंने मस्जिद बनाने की परंपरा की नींव डाली। इस स्थान पर इस बात का उल्लेख बहुत ज़रूरी है कि आरंभिक मस्जिदें वैसी नहीं होती थीं जैसी आजकल हम देखते हैं। इस्लाम के आरंभिक काल की मस्जिदें, बहुत ही सादी होती थीं। उस काल में बनाई जाने वाली मस्जिदों में कच्ची ईंट, लकड़ी और पत्थर का प्रयोग हुआ करता था।

जाबिर बिन ओसामा का कहना है कि एक बार मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मदीने के बाज़ार में देखा। उनके साथ उनके कई साथी भी थे। मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथियों से पूछा कि आप लोग कहां से आ रहे हैं? उन्होंने जवाब में कहा कि तुम्हारे मुहल्ले से। मैने पूछा कि वहां पर क्या काम था? उन लोगों ने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने वहां जाकर मस्जिद के लिए एक स्थान चुना है और साथ ही क़िब्ले का भी निर्धारण कर दिया है। जाबिर बिन ओसामा का कहना है कि जब मैं अपने मुहल्ले में पहुंचा तो देखा कि वहां पर मस्जिद के लिए एक स्थान को निर्धारित किया गया है और क़िब्ला के निर्धारण के उद्देश्य से एक लकड़ी को ज़मीन में लगाया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने पवित्र हाथों से कई मस्जिदों के निर्माण में भाग लिया। इस प्रकार मस्जिदें मुसलमानों की पहचान के प्रतीक के रूप में जानी गईं। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या में वृद्धि होती गई उसी अनुपात में मस्जिदों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई।
मस्जिद, मुसलमानों के एकत्रित होने और इस्लाम के प्रचार व प्रसार का स्थान है इसलिए इसका दुरूपयोग किसी भी स्थिति में सहन नहीं किया जा सकता। इसका एक उदाहरण हमें इतिहास में मिलता है। इस्लाम के उदयकाल में एक बार मुनाफ़िकों या मिथ्याचारियों ने मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा करने और उनको क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से मस्जिद बनाने का निर्णय लिया। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) को यह पता चला कि मिथ्याचारी, मुसलमानों में मतभेद फैलाने और उनको नुक़सान पहुंचाने के लिए मस्जिद बना रहे हैं तो ऐसे में आपने न यह कि उस मस्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ी बल्कि उसको तोड़ने का आदेश दिया ताकि मुसलमानों के विरुद्ध, षडयंत्रकारियों की योजना आरंभ में ही विफल हो जाए। हालांकि इससे पहले तक पैग़म्बरे इस्लाम (स) की यह परंपरा थी कि जहां भी मस्जिद बनती थी वहां पर वे स्वयं जाकर नमाज़ पढ़ते थे किंतु मिथ्याचारियों द्वारा बनाई गई मस्जिद में उन्होंने नमाज़ नहीं पढ़ी बल्कि उसको तुड़वा दिया। पवित्र क़ुरआन में इस मस्जिद को मस्जिदे ज़ेरार के नाम से याद किया गया है जिसका अर्थ होता है क्षति पहुंचाने वाली मस्जिद। पवित्र क़ुरआन के सूरे तौबा की आयत संख्या 107 में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है। ईश्वर कहता है कि और कुछ ऐसे लोग भी हैं , जिन्होंने मस्जिद बनाई इसलिए कि नुक़सान पहुँचाएँ और कुफ़्र करें और इसलिए कि ईमानवालों के बीच फूट डाले और उस व्यक्ति के घात लगाने का ठिकाना बनाएँ, जो इससे पहले अल्लाह और उसके रसूल से लड़ चुका है। वे निश्चय ही क़समें खाएँगे कि "हमने तो बस अच्छा ही चाहा था।" किन्तु अल्लाह गवाही देता है कि वे बिलकुल झूठे है। वास्तविकता यह है कि कुछ लोग यह चाहते थे कि मुसलमानों के विरुद्ध कार्यवाही के लिए अलग से नहीं बल्कि मस्जिद का प्रयोग किया जाए ताकि मुसलमानों को भीतर से ऐसी चोट पहुंचे जिससे वे पनप न सकें। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मस्जिदे ज़ेरार को तोड़ने का आदेश देकर यह बता दिया कि यदि धर्म की आड़ में मुसलमानों और इस्लाम को नुक़सान पहुंचाने का कोई प्रयास किया जाए तो उसका डटकर मुक़ाबला करना चाहिए।

कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको मदीने में स्थित मस्जिदे नबी के बारे में कुछ बातें बताने जा रहे हैं जिसके बनाने में स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भाग लिया था।
जब मस्जिदे नबी का निर्माण किया गया था तो वह बहुत ही सादी मस्जिद थी। उसकी दीवारें कच्ची ईंट और पत्थर की थीं और इसके स्तंभ या खंबे खजूर के तने के थे। इस मस्जिद में कुछ खंबे थे जिनमें से हरएक की अपनी अलग कहानी है। इनमे से हरएक के अलग-अलग नाम हैं। इन नामों के पीछे एक लंबी दास्तां है। वर्तमान समय में मस्जिदे नबी का विस्तार हो चुका है और यह आरंभिक मस्जिद की तुलना में कई गुना बढ़ चुकी हैं किंतु उसका मूल रूप अभी भी सुरक्षित है। इस मस्जिद के वे पुराने खंबे आज भी मौजूद हैं। उनकी पहचान के लिए इन्हें सफ़ेद रंग से रंगा गया है ताकि लोगों को पता रहे कि मस्जिद के सबसे पुराने खंबे कौन से हैं?
मस्जिदे नबी के प्राचीनतम खंबों में से एक खंबे का नाम “सुतूने तौबा” है। सुतूने तौबा की कहानी “अबू लोबाबा” से विशेष है। सन पांच हिजरी क़मरी को मुशरिकों के गुटों ने मदीने पर हमला किया। इन्हें अहज़ाबे मुशरेकीन भी कहते हैं। उत्तरी मदीने में उनका सामना उन ख़ंदक़ों से हुआ जिनको मुसलमानों ने खोदा था। एसे में उन्होंने मदीने के दक्षिण में रहने वाले यहूदी क़बीले बनी क़ोरैज़ा से गठजोड़ करने का फैसला किया जो अपनी ओर से अहज़ाबे मुशरेकीन को मदीने में प्रविष्ट करा सकते थे। हालांकि बनी क़ोरैज़ा ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से शांति समझौता कर रखा था किंतु उन्होंने मुसलमानों को नुक़सान पहुंचाने के उद्देश्य से इस समझौता का उल्लंघन किया। अहज़ाबे मुशरेकीन के हमले के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने बनी क़ोरैज़ा का परिवेष्टन कर लिया गया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ओर से बनी क़ुरैज़ा मध्यस्त के रूप में अबू लोबाबा के पास गए। अबू लोबाबा की कुछ यहूदियों से दोस्ती थी। एसे में उन्होंने मुसलमानों की अनदेखी करते हुए यहूदियों के बारे में कुछ नर्मी अपनाई। अभी वे बात कर ही रहे थे कि उन्हें अपनी ग़लती का आभास हो गया। वे इसपर बहुत पछताए कि उनके मन में एसी बात क्यों आई? वे अपने किये पर बहुत पछताए और आत्मग्लानि से मुक्ति पाने के लिए सीधे मस्जिदे नबी गए। वहां पहुंचकर अबू लोबाबा ने स्वयं को मस्जिद के एक खंबे से बांध लिया। अपनेआप को मज़बूती से रस्सी से बांधने के बाद उन्होंने कहा कि मुझको सिवाए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कोई दूसरा न खोले। बाद में यहीं खंबा “सुतूने तौबा” के नाम से जाना गया। कुछ कथनों में सुतूने तौबा के महत्व को बताया गया है। यह खंबा आज भी है और लोग वहां जाकर इबादत करते हैं।

मस्जिदे नबी के एक अन्य खंबे का नाम, “सुतूने मुख़ल्लक़ा” है। यह उस स्थान से बहुत नज़दीक है जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) नमाज़ पढ़ा करते थे। कहते हैं कि इसको मुख़ल्लक़ा इसलिए कहा जाता है कि प्राचीनकाल में लोग यहां पर अगरबत्ती और ख़ुशबू का प्रयोग करते थे ताकि मस्जिद का वातावरण सुगन्धित रहे।
मस्जिदे नबी के एक अन्य खंबे का नाम, “सुतूने आएशा” है जिसे मोहाजेरान या अलक़ुरा के नाम से भी पुकारते हैं। यह मस्जिद के खंबों के बीच में स्थित है। इस खंबे के बारे में कहा जाता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि मेरी मस्जिद में एक एसा स्थान है जिसके महत्व को लोग अगर समझ जाएं तो नमाज़ पढ़ने के लिए टूट पड़ें और जगह के कम होने की वजह से क़ुरआकशी से एक-एक करके वहां पर नमाज़ पढ़े। यह स्थान, “सुतूने आएशा” “मोहाजेरान” या “अलक़ुरा” के नाम से मशहूर है।
मस्जिदे नबी के एक अन्य खंबे का नाम है, “सुतूने तहज्जुद”। इसके बारे में कहा जाता है कि यह मस्जिद का वह स्थान है जहां पर रातों को पैग़म्बरे इस्लाम नमाज़े शब पढ़ा करते थे। यह जगह पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के घर के ठीक पीछे है।
मस्जिदे नबी के एक अन्य खंबे या सुतून का नाम “मुरब्बतुल क़ब्र” है जिसे “मक़ामे जिब्रील” भी कहते हैं। यह खंबा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र मज़ार के उत्तरी छोर पर स्थित है। वर्तमान मस्जिदे नबी में यह दिखाई नहीं देता। यह ऐसा स्तंभ है जो हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा के घर के बिल्कुल सामने स्थित था। इसके महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) 40 दिनों तक लगातार यहां पर आए और अली, फ़ातेमा, हसन और हुसैन को संबोधित करते हुए सूरे अहज़ाब की आयत संख्या 33 की तिलावत की जिसका अनुवाद हैः और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो। अल्लाह तो बस यही चाहता है कि ऐ नबी के घरवालो, तुमसे गन्दगी को दूर रखे और तुम्हें हर तरह से पाक-साफ़ रखे।
मस्जिदे नबी के अन्य खंबों में से एक, “सुतूने सरीर” है। यह तौबा नामक खम्बे के पूरब में स्थित है। यह वह स्थान है जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) एतेकाफ़ के दिनों में यहां पर उपासना करते और जब थक जाते तो इसी स्थान पर बैठकर कमर सीधी कर लिया करते थे।
मस्जिद के एक अन्य खंबे का नाम है, “सुतूने महरस”। यह वह स्थान है जहां पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम खड़े होकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुरक्षा किया करते थे। इसे सुतूने अली इब्ने अबी तालिब भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुतूने वुफ़ूद भी है जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम दूसरे लोगों विशेषकर क़बीलों के सरदारों और गण्मान्य लोगों से मिला करते थे।