मस्जिद और उपासना- 7
आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया कि सभी ईश्वरीय धर्मों में ईश्वर की उपासना को विशेष अहमियत दी गयी है और इस आधार पर उपासना स्थल को भी विशेष अहमियत हासिल है।
पवित्र इस्लाम में मस्जिद को ईश्वर का घर और उसके बंदों के लिए उपासना स्थल क़रार दिया गया है। लेकिन इस संदर्भ में एक अहम बिन्दु यह है कि इस्लाम अकेला ऐसा धर्म है जिसने अपने नियमों में समूह को मद्देनज़र रखा है और अपने नियम व आदेश को इसी सांचे में पेश किया है। नमाज़ को भी कि जिसे धर्म की बुनियाद कहा गया है, सामूहिक रूप से पढ़ने पर बल दिया है हालांकि अगर कोई अकेले पढ़ना चाहे तो कोई हरज नहीं है। इस्लाम के आगमन के समय दुनिया में सिर्फ़ तीन हस्तियां पैग़म्बरे इस्लाम उनकी बीवी हज़रत ख़दीजा और हज़रत अली मुसलमान थे, नमाज़ को सामूहिक रूप से पढ़ते थे।

अफ़ीफ़ कन्दी नाम का एक व्यक्ति कहता है, “ मैं व्यापारी था। एक साल मैं मक्का गया तो वहां मैंने बहुत ही हैरत में डालने वाला दृष्य देखा। मैंने देखा कि लोग काबे में रखी हुयी लकड़ी, पत्थर और धातु की मूर्तियों की ओर ध्यान किए हुए हैं और इस बीच सिर्फ़ तीन लोग हैं जो मस्जिदुल अक़्सा की ओर मुंह करके उपासना कर रहे हैं। मेरे पास ही पैग़म्बरे इस्लाम के चचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब मौजूद थे। मैंने उनसे पूछा कि ये कौन लोग हैं और क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा, वह व्यक्ति जो आगे खड़े हैं वह मेरे भतीजे मोहम्मद हैं और वह
लड़का जो दायीं ओर खड़ा है वह भी मेरा भतीजा है। उनका नाम अली है और वह महिला जो उनके साथ नमाज़ पढ़ रही है मोहम्मद की बीवी ख़दीजा हैं। आसमान के नीचे इन तीन लोगों के अलावा कोई भी इस धर्म का पालन नहीं करता।
मस्जिद की एक उपयोगिता उसमें सामूहिक रूप से हर दिन और जुमे के दिन की विशेष नमाज़ का आयोजन है। सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने को नमाज़े जमाअत कहते हैं। सामूहिक रूप से नमाज़ का आयोजन एक निर्धारित उसूल के तहत और इमाम के निर्देशानुसार होता है। सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते वक़्त मुसलमान एक लाइन में एक दूसरे के कांधे से कांधा मिलाए खड़े होते हैं। मानो इस तरह कह रहे हैं कि हम अनन्य ईश्वर की बंदगी के मार्ग में एक साथ हैं। इस तरह सब एक साथ अपने हाथों को चेहरे के सामने लाकर क़ुनूत नामक विशेष दुआ पढ़ते, रुकू करते और सजदा करते हैं। सबके दिल एक दूसरे के निकट होते हैं और उनके मन में यह भावना पैदा होती है कि सब आपस में भाई भाई हैं।

सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन की विशेषता यह है कि यह सभी लोगों का चाहे वह अमीर हो या ग़रीब छोटा हो या बड़ा सबका एक अनुशासन व समय की पाबंदी के लिए प्रशिक्षण करती है। उनमें आपस में हमदर्दी व भाईचारे की भावना मज़बूत करती है। मस्जिद में सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने की इतनी ज़्यादा अहमियत है कि ईश्वर ने वादा किया है कि अगर सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने वालों की संख्या 10 से ज़्यादा हो जाए तो इसका पुन्य इतना ज़्यादा है कि अगर सारे पेड़ क़लम बन जाएं, सभी समुद्र रौशनाई बन जाएं और सारे इंसान, जिन्नात और फ़रिश्ते मिलकर इसका पुन्य लिखना चाहें तब भी इसकी एक रकअत या इकाई का पुन्य नहीं लिख सकते।
जिस वक़्त एक अंधे व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम से अपने अंधेपन व तनहाई को मस्जिद में हाज़िर न हो पाने और सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ न पाने का कारण बताया तो आपने फ़रमाया, “ अपने घर से एक रस्सी मस्जिद तक बांध दो और उसके सहारे सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने के लिए पहुंचो।
पवित्र क़ुरआन की आयत में सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन पर बहुत बल दिया गया है, यहां तक कि जंग के दौरान भी ईश्वर ने सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन के हुक्म को निरस्त नहीं किया। जैसा कि पवित्र क़ुरआन की आयत नंबर 101 में ईश्वर कहता है, “और ख़तरे के समय उनके बीच हो तो नमाज़े ख़ौफ़ सामूहिक रूप से आयोजित करो। इस तरह से कि उनमें एक गुट पहली रकअत में सामूहिक रूप से आपके पीछे खड़े हों अलबत्ता इस दौरान हथियार साथ में रखे और जब सजदा कर ले तो दूसरी इकाई या रकअत अकेले पढ़े और आपके पीछे दुश्मन के मुक़ाबले में खड़ा हो जाए उसके बाद वह दूसरा गुट जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है वह आए और दूसरी रकअत आपके पीछे पढ़े और सावधान रहे कि हथियार उसके पास से अलग न हो। इस आयत में जंग के दौरान सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन को पैग़म्बरे इस्लाम और उनके अनुयाइयों के लिए बयान किया गया है लेकिन सामूहिक रूप से नमाज़ से माफ़ नहीं किया गया है। बल्कि आयत में सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन का तरीक़ा बताया गया है।
अब आपको मुसलमानों के बीच तीसरी सबसे अहम मस्जिद मस्जिदुल अक़्सा के बारे में बताएंगे।

हज़रत अबूज़र के हवाले से आया है कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा कि हे ईश्वरीय दूत! ज़मीन पर सबसे पहली मस्जिद कहां बनी? तो पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया कि मस्जिदुल हराम। उसके बाद मैने पूछा कि उसके बाद कौन सी मस्जिद बनी? आपने फ़रमाया मस्जिदुल अक़्सा। कुछ रवायतों के अनुसार, हज़रत आदम ने मस्जिदुल हराम की बुनियाद रखने के चालीस साल बाद मस्जिदुल हराम की बुनियाद रखी। लगभग 2000 ईसापूर्व हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे हज़रत इस्माईल के साथ मिलकर काबे का फिर से निर्माण किया। वर्षों बाद हज़रत सुलैमान ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 636 ईसवी में दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने क़ुद्स को फ़त्ह करने के बाद मस्जिदुल अक़्सा के क़िब्ला नामक मुसल्ले में नमाज़ पढ़ी थी। यह मुसल्ला मस्जिदलु अक़्सा के दक्षिणी भाग में स्थित है और इसका रुख़ क़िबले की ओर है। इसके बाद उमवी शासकों के दौर में क़ुब्बतुस सख़रा का निर्माण हुआ और क़िब्ला नामक मुसल्ले का फिर से निर्माण हुआ।
इस तरह पवित्र मक्के में स्थित मस्जिदुल हराम के बाद दुनिया में बनने वाली दूसरी मस्जिद मस्जिदुल अक़्सा है जो प्राचीन समय से मुसलमानों के पवित्रतम स्थलों में गिनी जाती रही है। मस्जिदुल अक़्सा मुसलमानो का पहला क़िब्ला भी है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और दूसरे मुसलमानों ने काबे की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ने से पहले 14 साल से ज़्यादा समय तक मस्जिदुल अक़्सा की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ी है। मस्जिदुल अक़्सा के मुसलमानों के निकट पवित्र होने की एक और वजह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन की एक अतिमहत्वपूर्ण व चमत्कारिक घटना का संबंध मस्जिदुल अक़्सा से है जो ‘मेराज’ के नाम से मशहूर है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के इस्रा सूरे की पहली आयत में ईश्वर इस घटना की ओर इशारा करते हुए फ़रमाता है, “हर ऐब से पाक है वह ईश्वर जिसने अपने बंदे को एक रात में मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़्सा की सैर करायी।ऐसी मस्जिद जिसके चारों ओर हमारी बर्कत ही बर्कत है यहां तक कि हमने उसे अपनी (शक्ति एकेश्वरवाद और तत्वदर्शिता) की कुछ निशानियां दिखायीं। यही वजह है कि मस्जिदुल अक़्सा का नाम पवित्र क़ुरआन से उद्धरित है। क़सी का अर्थ होता है दूर और अक़्सा का अर्थ होता है अधिक दूर। चूंकि मक्के और मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़्सा बहुत दूर थी इसलिए इसे मस्जिदुल अक़्सा कहा गया। दूसरे यह कि पैग़म्बरे इस्लाम के मेराज के सफ़र के इस मस्जिद से शुरु होने के पीछे यह बिन्दु निहित है कि मेराज का उद्देश्य आध्यात्मिक विकास था और मस्जिद एक मोमिन बंदे के लिए आध्यात्मिक उड़ान के लिए बेहतरीन प्लेटफ़ॉर्म बन सकती है।

आज मस्जिदुल अक़्सा से जिस मस्जिद को मुराद लिया जाता है वह नई शब्दावली है। हालांकि मस्जिदुल अक़्सा एक छोटा टीला था जो पूर्वी अलक़ुद्स के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित था।
मस्जिदुल अक़्सा को हरमे शरीफ़ भी कहते हैं। इस पवित्र स्थल के निर्माण में लगभग 30 साल लगे। इसका निर्माण कार्य 685 से 715 ईसवी तक चला। इसमें क़िबला मुसल्ला, डोम ऑफ़ रॉक अर्थात क़ुब्बतुस सख़रा, मरवानी मुसल्ला, बुराक़ मस्जिद सहित लगभग 200 पवित्र स्थल हैं जिनमें मस्जिद, इमारतें, गुंबद, चबूतरे, गुलदस्ते और दरवाज़े शामिल हैं। हरमे शरीफ़ में जलस्रोत बनाए गए थे। इस हरमे शरीफ़ के पूरे इस्लामी इतिहास में मुसलमानों ने इसके परिसर में कुएं खोदे, जलस्रोत बनाए, पानी इकट्ठा करने और पानी पीने के स्थान बनाए। इस समय हरमे शरीफ़ के प्रशासनिक व वित्तीय मामलों का संचालन इस्लामी वक़्फ़ संगठन करता है जो जॉर्डन की राजधानी अम्मान में पवित्र इस्लामी स्थलों व वक़्फ़ मंत्रालय के अधीन है। हरमे शरीफ़ के परिसर में इस्लामी म्यूज़ियम, मस्जिदुल अक़्सा लाइब्रेरी, अलअक़्सा धार्मिक केन्द्र, पवित्र क़ुरआन व हदीस का शिक्षा केन्द्र जैसी इस्लामी वक़्फ़ संस्थाएं व कार्यालय इत्यादि स्थित हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने मस्जिदुल अक़्सा की अहमियत के बारे में फ़रमाया है, “अगर कोई व्यक्ति अपने घर में नमाज़ पढ़े तो उसे इसका एक पुन्य मिलेगा, अगर मस्जिद में नमाज़ पढ़े तो 25 नमाज़ का पुन्य मिलेगा, अगर जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़े तो ईश्वर उसे 500 नमाज़ों का पुन्य देगा और मस्जिदुल अक़्सा में नमाज़ पढ़े तो हर नमाज़ के बदले में 50000 नमाज़ का पुन्य मिलेगा।” इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम का एक और कथन है, “सफ़र व दर्शन की तय्यारी न हो मगर मस्जिदुल हराम, मेरी मस्जिद, मस्जिदुल अक़्सा और मस्जिदे कूफ़ा के दर्शन के लिए।” कार्यक्रम का वक़्त ख़त्म होता है इजाज़त दें।