Nov १२, २०१७ १६:५० Asia/Kolkata

जैसाकि आप जानते हैं आसमानी धर्मों में ईश्वर की उपासना को विशेष महत्व दिया गया है। 

उपासना के लिए यह शर्त है कि इसे पूरी निष्ठा के साथ किया जाए।  पूरे ध्यान और निष्ठा के साथ इबादत करना उस स्थिति में थोड़ा कठिन हो जाता है जब उपासना में विघ्न आ रहा हो।  एसे में उपासना हर स्थान पर नहीं की जा सकती।  इसके लिए किसी स्थान का होना आवश्यक है।  इस्लाम ने उपासना के लिए जिस स्थान को निर्धारित किया है उसका नाम मस्जिद है।

मस्जिद वह पवित्र स्थल है जिसे ख़ुदा का घर भी कहा जाता है।  मस्जिद में जाने, वहां पर उपासना करने, उसकी सफ़ाई में सहयोग देने या उसे बनाने और बनवाने में सहायता करने की बहुत सिफारिश की गई है।  मस्जिद के महत्व के बारे में सूरे आराफ़ की आयत संख्या 29 में ईश्वर कहता हैः कह दो, "मेरे रब ने तो न्याय का आदेश दिया है और यह कि इबादत के प्रत्येक अवसर पर अपना रुख़ ठीक रखो और केवल उसी के भक्त एवं आज्ञाकारी बनकर उसे पुकारो। जैसे उसने तुम्हें पहली बार पैदा किया, वैसे ही तुम फिर पैदा होगे।  इस आयत से यह बात समझ में आती है कि मस्जिद उपासना का केन्द्र है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में भी मस्जिद के महत्व के संबन्ध में बहुत कुछ कहा गया है।  मस्जिद के बारे में यहां तक कहा गया है कि वहां पर प्रवेश के लिए कुछ नियम निर्धारित हैं जिनका ध्यान रखना आवश्यक है।  जैसे मस्जिद में व्यर्थ की बातें करना, वहां पर सोना, ऊंची आवाज़ में बोलना और इसी प्रकार के अन्य कार्य आदि।  इसका कारण यह है कि मस्जिद, ख़ुदा का घर है कोई सामान्य घर नहीं है।

जैसाकि पहले बता चुके हैं कि इस्लाम ने मस्जिद के लिए कुछ नियम निर्धारित किये हैं।  इन नियमों में सर्वप्रथम नियम यह है कि जब भी कोई मुसलमान किसी भी मस्जिद में प्रवेश करे तो उचित यह है कि वह उस मस्जिद में पहले नमाज़ पढ़े।  यह नमाज़ उसे मस्जिद में दाख़िल होने के बाद पढ़नी होती है।  नियमानुसार इसे बैठने से पहले पढ़ लिया जाए तो बेहतर है।  इसके अतिरिक्त कुछ बातें और हैं जिनका ध्यान रखा जाना आवश्यक है जैसे मस्जिद में व्यर्थ नहीं बैठना चाहिए।  वहां पर अधिक बातें नहीं करनी चाहिए।  मस्जिद में बैठकर दूसरों की बुराई या चुग़ली करना पाप है।  मस्जिद के भीतर अधिक से अधिक अपने समय को उपासना करने में बिताना चाहिए।  चाहे वह नमाज़ के रूप में हो या पवित्र क़ुरआन पढ़ने की शक्ल में।  मस्जिद को साफ रखने में मदद करनी चाहिए और यदि कोई न हो तो स्वयं मस्जिद की सफाई करते रहना चाहिए।

यहां पर हम मुसलमानों की संसार में सबसे महत्पूर्ण मस्जिदों में तीसरी मस्जिद, मस्जिदुल अक़सा के बारे में बात करेंगे जिसके संबन्ध में पिछले कार्यक्रम में कुछ बातें बता चुके हैं।  इस समय जिस मस्जिद को मस्जिदुल अक़सा कहा जाता है वह वास्तव में पहले एक टीले पर स्थित थी।  यह मस्जिद, बैतुल मुक़द्दस नगर के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में है।  मस्जिदुल अक़सा में कुछ एसे स्थान हैं जो अपने अलग नामों से प्रसिद्ध हैं।  इनमें से एक “क़ुब्बतुस्सख़रा” है।  यह मस्जिद के केन्द्र से बाईं ओर है।  इस जगह का नाम “क़ुब्बतुस्सख़रा” इसलिए पड़ा क्योंकि यहां पर एक (सख़रा) था।  इतिहास के अनुसार इसी स्थान से पैग़म्बरे इस्लाम (स) मेराज पर गए थे।  “क़ुब्बतुस्सख़रा” के निचले हिस्से में छोटी सी एक गुफा है जिसमें 10 लोग नमाज़ पढ़ सकते हैं। 

(( मस्जिदुल अक़सा के एक हिस्से का नाम दीवारे बुराक़ है।  इसका नाम बुराक़ इसिलिए पड़ा क्योंकि यह रसूले ख़ुदा के घोड़े का नाम है।  शबे मेराज बुराक़ को इसी स्थान पर बांधा गया था।  यही कारण है कि इस स्थान पर मुसलमानों ने इसका नाम दीवारे बुराक़ रखा है।  हालांकि ज़ायोनियों का कहना है कि यह स्थान हज़रत सुलैमान के महल की दीवार का हिस्सा है।  ज़ायोनी यह दावा तो करते हैं किंतु अभीतक इस संबन्ध में वे कोई दलील पेश नहीं कर सके।  यह वह स्थान है जहां पर यहूद अपने पापों का प्रायश्चित करते हुए रोते हुए दुआएं करते हैं।  पहले यह स्थान बहुत छोटा था जहां पर यहूदी खड़े होकर रोया करते थे।  बाद में ब्रिटेन के काल में यहूदियों ने इस स्थान को हड़पने का प्रयास किया।  पहले तो उन्होंने इसे अपनी जगह बताने के प्रयास किया जहां पर शताब्दियों से मुसलमान नमाज़ पढ़ते आ रहे हैं।  ज़ायोनियों की इसी हरकत से नाराज़ मुसलमानों ने सन 1929 में बहुत बड़ा आन्दोलन आरंभ किया।  इस महाआन्दोलन का नाम “बुराक़” था।  बुराक़ आन्दोलन में 116 मुसलमान शहीद हुए और 232 घायल हो गए।  इस आन्दोलन के दौरान एक हज़ार से अधिक फ़िलिस्तीनियों को गिरफ़्तार कर लिया गया।  मुसलमानों के जनसंहार के कारण अन्तर्राष्ट्रीय तथ्यपरक समिति का गठन किया गया।  इन अन्तर्राष्ट्रीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस क्षेत्र के मालिक मुसलमान हैं यहूदी नहीं।  समिति ने अपनी रिपोर्ट सन 1930 में पेश की थी।  अन्तर्राष्ट्रीय समिति की ओर से लगभग 87 वर्ष पूर्व बुराक़ क्षेत्र का स्वामी मुसलमानों को घोषित किये जाने के बावजूद ज़ायोनी आज भी इसपर अपने स्वामित्व का दावा करते हैं।  ज़ायोनी सदा इस प्रयास में रहते हैं कि उन्हें ज़रा सा मौक़ा मिले तो वे मस्जिदुल अक़सा को ध्वस्त कर दें और उस स्थान पर अपने दृष्टिगत सलमान उपासनागृह बनाएं।