Nov १४, २०१७ १५:५३ Asia/Kolkata

हमने इस बात का उल्लेख किया कि ‘एतेकाफ़’ ऐसी विशेष उपासना है जो मस्जिद में की जाती है।

हालांकि उपसाना और ईश्वर का स्मरण करना हर समय हर जगह अच्छा है लेकिन कुछ रिवायतों के अनुसार, कुछ स्थान ऐसे हैं जो इंसान की दुआ के जल्द क़बूल होने और ईश्वर के निकट करने में अधिक प्रभावी बताए गए हैं और मस्जिद को जिसे ईश्वर का घर कहा जाता है और सबसे अच्छी जगह है, ‘एतेकाफ़’ से विशेष किया गया है अर्थात ‘एतेकाफ़’ सिर्फ़ मस्जिद में ही हो सकता है। यह एबादत या उपासना इतनी अहम है कि हर मस्जिद में इसे अंजाम देने की सिफ़ारिश नहीं की गयी है बल्कि मस्जिदुल हराम, मस्जिदुन नबी और मस्जिदे कूफ़ा। अगर इन मस्जिदों में एतेकाफ़ मुमकिन न हो तो फिर जामा मस्जिद में। हर शहर या इलाक़े में जामा मस्जिद से वह मस्जिद है जहां आम तौर पर लोग ज़्यादा तादाद में आते और नमाज़ पढ़ते हैं। यानी दूसरी मस्जिदों की तुलना में इसमें नमाज़ी की तादाद ज़्यादा होती है। ऐसी मस्जिद में एतेकाफ़ नहीं कर सकते जो ख़ाली पड़ी रहती हो।

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एतेकाफ़ सबसे सुंदर व व्यापक उपासनाओं में है। यह उपासना विशेष समय व स्थान में की जाती है। यूं तो ‘एतेकाफ़’ अनिवार्य नहीं है और इंसान इसे अंजाम देने या न देने में आज़ाद है, लेकिन शुरु होने के बाद इसे पूरा करना अनिवार्य हो जाता है और फिर इसे बीच में छोड़ नहीं सकते। यह अलग बात है कि इस इबादत के समय के संबंध में धर्मगुरुओं के बीच मतभेद हैं।

सुन्नी संप्रदाय के दो वरिष्ठ धर्मगुरु मालिक और अबू हनीफ़ा ने ‘एतेकाफ़’ के लिए कम से कम एक दिन माना है लेकिन शिया धर्मगुरुओं के निकट ‘एतेकाफ़’ कम से कम तीन दिन की उपासना है। ‘एतेकाफ़’ समय की दृष्टि से सीमित नहीं है लेकिन ‘एतेकाफ़’ की शर्त रोज़ा रखना है अर्थात ऐसे समय ‘एतेकाफ़’ किया जाए जब रोज़ा रखना सही हो। इसलिए अगर कोई व्यक्ति मुसाफिर या मरीज़ हो या जान बूझ कर रोज़ा न रखे तो ऐसे व्यक्ति का ‘एतेकाफ़’ सही नहीं है। इसी तरह ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़हा के दिन ‘एतेकाफ़’ सही नहीं है क्योंकि इन दोनों ईद के दिन रोज़ा रखना वर्जित है। ‘एतेकाफ़’ के लिए सबसे अच्छा समय पवित्र रमज़ान के अंतिम दस दिन का है। इसके बाद हर महीने की चांद की 13, 14 और 15 तारीख़ को रोज़ा रखने का बहुत पुन्य बताया गया है।                

‘एतेकाफ़’ के सही होने की एक शर्त मस्जिद में निरंतर मौजूद रहना है। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “एतेकाफ़ करने वाले को मस्जिद से नहीं निकलना चाहिए मगर किसी ज़रूरी काम से कि जिसे पूरा करके तुरंत लौटे।” जिन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एतेकाफ़ करने वाला मस्जिद से निकल सकता है वे इस प्रकार हैं, जुमे की नमाज़ पढ़ने, शव यात्रा में शामिल होने, बीमार का हालचाल पूछने और मोमिन बंदे की ज़रूरत को पूरा करने के लिए मस्जिद से निकल सकता है। इन ज़रूरतों को पूरा करने के बाद रुकना नहीं बल्कि तुरंत मस्जिद लौटना चाहिए। किसी मोमिन बंदे की ज़रूरत को पूरा या उसकी मुश्किल को हल करना इतना अहम है कि एतेकाफ़ करने वाले को इस बात की इजाज़त दी गयी है कि वह ‘एतेकाफ़’ की हालत में मस्जिद से निकल कर मोमिन बंदे की ज़रूरत को पूरा करके वापस मस्जिद लौट जाए। क्योंकि यह मूल्यवान काम हक़ीक़त में ‘एतेकाफ़’ का ही क्रम है, इससे अलग नहीं है।

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“मैमून बिन मेहरान” नामक व्यक्ति रवायत करता है कि मैं मस्जिद में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के साथ ‘एतेकाफ़’ में था और उन्हीं के पास बैठा हुआ था कि एक व्यक्ति आया और उसने कहा, हे ईश्वरीय दूत की संतान! एक व्यक्ति का मैं कर्ज़दार हूं और वह मुझे कर्ज़ अदा न कर पाने के कारण जेल भेजना चाहता है। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “मेरे पास अभी पैसे नहीं हैं कि तुम्हारी ओर से कर्ज़ अदा करूं।” उस व्यक्ति ने कहा, आप उस व्यक्ति से बात कर लीजिए। यह सुनकर इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने जूता पहना कि मस्जिद से निकलें। तो मैने कहा कि हे ईश्वरीय दूत की संतान! कहीं आप भूल तो नहीं गए कि आप ‘एतेकाफ़’ की हालत में हैं? इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “नहीं मैं नहीं भूला लेकिन अपने पिता से यह कहते सुना है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “जो कोई अपने धार्मिक बंधु की मुश्किल को हल करने की कोशिश करे वह ऐसे शख़्स के समान है जिसने हज़ारों साल इबादत की हो कि इन वर्षों में रोज़े रखे और रातें नमाज़ों में गुज़ारी हों।”  

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रवायत में है कि एक दिन इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम मस्जिदे कूफ़ा के निकट पहुंचे तो आप अपनी सवारी से उतर गए। जब उनसे सवारी से उतरने की वजह पूछी गयी तो आपने फ़रमाया, “यह जगह मस्जिदे कूफ़ा के परिसर में आती है। यह सीमा हज़रत आदम ने निर्धारित की थी। मुझे अच्छा न लगा कि सवारी की हालत में इस परिसर में दाख़िल हूं।”

इस रवायत में आगे आया है कि रावी अर्थात वर्णनकर्ता ने जब इमाम से पूछा कि अगर मस्जिदे कूफ़ा का परिसर वह है जिसे आपने बताया तो फिर इसके क्षेत्रफल में हुए बदलाव के पीछे क्या कारण है? इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, “सबसे पहले जिस वजह से इसमें बदलाव आया वह हज़रत नूह का तूफ़ान था। उसके बाद कसरा के लोगों ने, उसके बाद नोमान बिन मुन्ज़िर ने और उसके बाद ज़ियाद बिन अबी सुफ़ियान ने इसमें बदलाव किया।”

मस्जिदे कूफ़ा का 11000 वर्गमीटर से ज़्यादा का क्षेत्रफल है। इसकी दीवारें 10 मीटर ऊंची है। इसमें 187 खंबे और 30 मीटर ऊंची मीनारें हैं। इसमें 5 द्वार हैं। बाबुस सद्दा जो बाबुल अमीरुल मोमेनीन के नाम से मशहूर है। बाबुर रहमा। बाबुल कंदा जो मस्जिद के पश्चिमी छोर पर है। बाबुल अनमात जो क़िबले के सामने है और बाबुस सोबान।

यह मस्जिद पूरे इतिहास में बहुत से ईश्वरीयत दूतों की उपासना स्थली रही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस मस्जिद में नमाज़ पढ़ते, इसके मिंबर पर बैठ कर भाषण देते, कुछ फ़ैसले करते और प्रशासनिक मामले पर इसी मस्जिद से नज़र रखते थे और अंत में इसी मस्जिद के मेहराब में नमाज़ की हालत में शहीद हुए।

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मस्जिदे कूफ़ा के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर एक छोटा सा घर है जिसके बारे में मशहूर है कि यह हज़रत अली अलैहिस्सलाम का घर था। इसी घर के क़रीब मीसमे तम्मार की भी क़ब्र है। इस घर और मस्जिदे कूफ़ा के बीच दारुल ख़िलाफ़ा नामक महल हुआ था करता था जहां से बनी उमय्या और बनी अब्बास के राज्यपाल प्रशासनिक मामलों का संचालन करते थे।

हज़रत मुस्लिम का रौज़ा मस्जिदे कूफ़ा के परिसर से बाहर इसके दक्षिण-पूर्वी छोर पर है। मस्जिद से एक छोटे से गलियारे के ज़रिए उनके रौज़े के प्रांगण में पहुंचते हैं। मस्जिद कूफ़ा के पूरब में बड़ी जगह पर हज़रत मुस्लिम का रौज़ा है जिस पर सुनहरे रंग का गुंबद बना है और रौज़े में कई हाल भी हैं।           

हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील हज़रत अबू तालिब के पोते और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चचेरे भाई थे। वह बनी हाशिम क़बीले से थे। उन्हें इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद के शासन काल में अपने प्रतिनिधि के रूप में कूफ़ा भेजा था कि वहां के हालात की समीक्षा करें। जहां हज़रत मुस्लिम ने 18000 लोगों से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बैअत ली थी अर्थात 18000 लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आज्ञापालन का वचन दिया था। लेकिन जैसे ही कूफ़े का राज्यपाल इब्ने ज़्यादा को बनाया गया इस शहर के हालात पलट गए। हज़रत मुस्मिल ने हज़रत हानी बिन उर्वा के घर में पनाह ली। एक वक़्त ऐसा आया कि सुबह के वक़्त 18000 लोग थे और रात होते होते एक व्यक्ति भी उनके साथ न रहा यहां तक कि इब्ने ज़्यादा ने उन्हें गिरफ़्तार करवा लिया। इब्ने ज़्याद के आदेश पर उन्हें महल के ऊपर ले जाया गया और उनके सिर को धड़ से अलग कर दिया गया और फिर उनके पवित्र शव को महल के ऊपर से गिरा दिया गया। उनके शव को महल के बग़ल में दफ़्न किया गया। शायद इसकी वजह यह थी कि हुकूमत नज़र रखना चाहती थी कि उनकी क़ब्र पर कोई शीया न आने पाए। 65 हिजरी क़मरी तक हज़रत मुस्लिम की क़ब्र के ऊपर कोई सायबान नहीं था। इसी साल हज़रत मुख़्तार ने हज़रत मुस्लिम का रौज़ा बनाने और उसके ऊपर गुंबद बनाने का आदेश दिया।

हज़रत हानी बिन उर्वा का रौज़ा हज़रत मुस्लिम के रौज़े के सामने है। हज़रत हानी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के श्रद्धालुओं में थे। उन्होंने हज़रत मुस्लिम की कूफ़ा में मेज़बानी की थी और उनके साथ शहीद किए गए। हज़रत हानी इमाम अली अलैहिस्सलाम के साथियों में थे। उन्होंने हज़रत मुस्लिम को अपने घर में छिपा कर रखा ताकि उबैदुल्लाह बिन ज़्यादा को भनक न लगे। इसी वजह से इब्ने ज़्याद ने हज़रत हानी को भी राजभवन की छत पर गर्दन मरवाकर शहीद करवा दिया।