Nov १४, २०१७ १६:१५ Asia/Kolkata

जैसा कि आप जानते हैं कि मस्जिद नमाज़ पढ़ने और जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने की जगह है।

नमाज़े जमाअत उस नमाज़ को कहते हैं जो सामूहिक व समन्वित रूप में एक व्यक्ति के पीछे जिसे इमाम कहते हैं, पंक्ति में खड़े होकर पढ़ी जाती है। इमाम सबसे आगे क़िबले की ओर मुंह करके खड़ा होता है और बाक़ी लोग उसके पीछे उसका अनुसरण करते हैं। जो नमाज़ें जमाअत अर्थात सामूहिक रूप में पढ़ी जाती हैं वे हर रोज़ पांच वक़्त की नमाज़ें जैसे सुबह, ज़ोहर, अस्र, मग़रिब व इशा, मृत व्यक्ति की नमाज़, जुमे की नमाज़, ईदुल फ़ित्र की नमाज़ और ईदलु अज़्हा की नमाज़ है।

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सामूहिक रूप से नमाज़ दुनिया में अध्यात्म में डूबी हुयी सबसे भव्य सभाओं में से एक है। इसलिए इसका बहुत ज़्यादा पुन्य भी है। सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने वाले के मस्जिद की ओर उठने वाले हर क़दम पर पुन्य मिलता है और अगर सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने वालों की संख्या 10 से ज़्यादा हो जाए तो उसका पुन्य सिर्फ़ ईश्वर ही जानता है।

पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है, “जो व्यक्ति जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना पसंद करता है, ईश्वर और उसके फ़रिश्ते उसे पसंद करते हैं।” पैग़म्बरे इस्लाम का एक अन्य कथन है, “जान लो कि जो शख़्स जमाअत से नमाज़ के लिए मस्जिद की ओर क़दम बढ़ाता है, हर क़दम पर 70 हज़ार पुन्य उसके कर्मपत्र में लिखा जाता है, उसके 70 हज़ार पाप माफ़ कर दिए जाते हैं और इसी सीमा तक उसके दर्जे बढ़ जाते हैं और अगर उसी हालत में मर जाए तो ईश्वर 70 हज़ार फ़रिश्तों को उसकी क़ब्र की ज़ियारत, क़ब्र की तन्हाई में उसके साथ रहने और प्रलय के दिन पुनः उठाये जाने तक उसके लिए प्रायश्चित करने के लिए नियुक्त करता है।”

पैग़म्बरे इस्लाम पैग़म्बरी पर नियुक्ति के बाद पूरी ज़िन्दगी जमाअत से नमाज़ पढ़ते रहे, यहां तक कि बीमारी की हालत में भी जमाअत से नमाज़ पढ़नी नहीं छोड़ी। इसलिए उनके अनुयायी भी जमाअत से नमाज़ के बहुत पाबंद थे। अब्दुल्लाह बिन मसऊद के हवाले से रिवायत में है, “कोई व्यक्ति जमाअत से नमाज़ नहीं छोड़ता था मगर वह पाखंडी जिसके पाखंड को लोग जानते थे या बीमार व्यक्ति। अलबत्ता बहुत से मौक़ों पर बीमार शख़्स भी दो लोगों के कांधों के सहारे जमाअत से नमाज़ पढ़ने आता था।”    

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नमाज़ियों और नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम के बीच जो संपर्क बनता है उसे जमाअत कहते हैं। जमाअत से नमाज़ एक व्यक्ति और एक इमाम के साथ आयोजित हो सकती है, सिवाए जुमे की नमाज़ के कि इसके आयोजन के लिए इमाम सहित चार लोगों की ज़रूरत होती है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम जमाअत से नमाज़ के पुन्य के बारे में फ़रमाते हैं, “जिबरईल मेरे पास आए और कहा कि ईश्वर ने आपको सलाम कहलवाया है और आपके लिए तोहफ़ा भेजा है जो किसी और पैग़म्बर को नहीं भेजा। मैंने पूछा कि हे जिब्रईल वह तोहफ़ा क्या है? तो उन्होंने कहा, “पांचों वक़्त की नमाज़ को जमाअत से पढ़िए। मैंने कहा कि मेरी उम्मत को इसका क्या पुन्य मिलेगा? तो उन्होंने कहा, जब दो लोग होंगे तो हर व्यक्ति को एक रकअत नमाज़ अर्थात नमाज़ की एक इकाई के बदले में 150 नमाज़ों का पुन्य मिलेगा, जब तीन लोग होंगे तो हर एक को हर इकाई पर 700 नमाज़ों का पुन्य मिलेगा, जब चार लोग होंगे तो हर एक को एक इकाई पर 1200 नमाज़ों का पुन्य मिलेगा, जब पांच लोग होंगे तो हर एक को एक इकाई पर 2100 नमाज़ों का पुन्य मिलेगा, जब दस लोग होंगे तो हर व्यक्ति को हर इकाई के बदले में 702800 नमाज़ों का पुन्य मिलेगा और जब इससे ज़्यादा होंगे तो इसका पुन्य इंसान और जिन्नात नहीं गिन सकते।”                 

 

मस्जिदे सहला का पहली शताब्दी हिजरी क़मरी में कूफ़े में पुनर्निर्माण हुआ। यह मस्जिद मस्जिदे कूफ़ा के पश्चिमोत्तर में दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सहला का मतलब है लाल रंग की रेत से ढकी हुयी ज़मीन। चूंकि यह मस्जिद उस स्थान पर बनी है जिसके आस पास लाल रंग की रेत है और आबादी नहीं है, इसलिए इसे सहला कहते हैं।

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मस्जिदे सहला को मस्जिदे क़ुरा भी कहा गया है। इसका क़ुरा नाम पड़ने का कारण हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हवाले से आयी एक रिवायत है जिसमें आपने फ़रमाया, “कूफ़ा शहर में 4 पवित्र स्थल हैं कि इनमें से हर एक मस्जिद है।” जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम से नाम पूछा गया तो उन्होंने कहा, “उनमें से एक मस्जिदे सहला है। मस्जिदे सहला हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम के रहने का स्थान है। कोई दुखी इस मस्जिद में नहीं जाता मगर यह कि ईश्वर उसके दुख को दूर कर देता है और हम पवित्र परिजन मस्जिदे सहला को मस्जिदे क़ुरा के नाम से याद करते हैं।”

मस्जिदे सहला के दो भाग हैं। एक हाल और दूसरा प्रांगण है। मस्जिद के प्रांगण के विभिन्न भाग में मेहराबें बनी हुयी हैं और उनके नाम पैग़म्बरों और इमामों के नाम पर हैं। आम ज़बान में इसे मक़ाम अर्थात स्थान कहा जाता है। इन्हीं स्थानों में से एक स्थान का नाम मक़ामे हज़रत इब्राहीम है जो मस्जिद की पश्चिमी और उत्तरी दीवार के बीच में है। रिवायत में है कि यह मस्जिद हज़रत इब्राहीम का घर थी और इसी स्थान से वह अमालक़ा जाति की ओर गए थे।

अमालेक़ा जाति के लोग बहुत लंबी क़द काठी के होते थे। ये लोग हज़रत इब्राहीम के हज़रत हाजेरा के साथ मक्का जाने से पहले वहीं रहते थे।

मस्जिदे सहला के एक दूसरे स्थान का नाम मक़ामे हज़रत इदरीस है। यह स्थान बैतुल ख़िज़्र के नाम से भी मशहूर है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने एक शिष्य से कहा, “जब कूफ़ा जाओ तो मस्जिदे सहला जाओ और वहां नमाज़ पढ़ो! उसके बाद ईश्वर से अपनी लोक परलोक की दुआएं मांगो कि मस्जिदे सहला हज़रत इदरीस नबी का घर था। हज़रत इदरीस इसी जगह कपड़ा सिलते और नमाज़ पढ़ते थे। जो व्यक्ति मस्जिदे सहला में नमाज़ पढ़े और दुआ मांगे तो ईश्वर उसकी दुआ को क़ुबूल करता है। प्रलय के दिन उसे हज़रत इदरीस का दर्जा देगा। उसे दुनिया की मुसीबतों और दुश्मन की चालों से सुरक्षित रखेगा।”

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मस्जिदे सहला के एक दूसरे स्थान का नाम मक़ामे हज़रत सालेह है जो मस्जिद के पूर्वी छोर पर दक्षिणी और पूर्वी दीवार के बीच स्थित है। यह मक़ामे सालेहीन, अंबिया और मुरसलीन के नाम से मशहूर है। मक़ामे इमाम सादिक़ भी मस्जिदे सहला के एक स्थान का नाम है जो मस्जिद के बीच में स्थित है। रिवायत के अनुसार, हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कुछ समय तक मस्जिदे सहला में ठहरे थे और वहां नमाज़ें पढ़ीं और उपासना की थी।           

मस्जिदे सहला के एक स्थान का नाम मक़ामे इमाम ज़मान है। यह स्थान मस्जिद के बीच में है। आज इस स्थान पर इमारत बन गयी है। इस स्थान के लिए भी विशेष दुआ है जिसे अन्य प्रार्थनाओं के साथ पढ़ा जाता है।

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मस्जिदे सहला अहमयित की दृष्टि से मस्जिदुल हराम, मस्जिदुन नबी, मस्जिदुल अक़्सा और मस्जिदे कूफ़ा के बाद पांचवे स्थान पर है। रवायत में है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने निष्ठावान अनुयायी अबू बसीर से कहा, “हे अबू बसीर! मानो वह दिन मेरी नज़रों के सामने है कि पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हज़रत महदी अलैहिस्सलाम प्रकट होने के बाद अपने परिजनों के साथ मस्जिदे सहला आए हुए हैं।” अबू बसीर कहते हैं कि मैंने इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में कहा कि वह मस्जिद अंतिम मोक्षदाता हज़रत महदी के ठहरने का स्थान होगा तो आपने फ़रमाया, “हां! यह मस्जिद हज़रत इदरीस और हज़रत इब्राहीम का निवास स्थान थी। ईश्वर ने किसी पैग़म्बर को पैग़म्बर नियुक्त नहीं किया मगर यह कि उसने इस मस्जिद में नमाज़ अदा की। हज़रत ख़िज़्र का निवास भी इसी मस्जिद में है। जो शख़्स इस मस्जिद में ठहरे मानो वह पैग़म्बरे इस्लाम के साथ तंबू में ठहरा हो। जो कोई इस पवित्र स्थल में नमाज़ पढ़े और फिर सच्चे मन से दुआ करे तो उसकी दुआ क़ुबूल होती है। अगर कोई शख़्स किसी बात से डर कर इस मस्जिद में पनाह ले तो ईश्वर उसे इस स्थान में सुरक्षित रखेगा।”

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अबू बसीर कहते हैं कि मैने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में कहा कि यह स्थान तो बहुत अहम है तब इमाम ने फ़रमाया, क्या तुम्हें इस स्थान की और विशेषताएं गिनवाऊं? तो मैने कहा जी! हज़रत ने फ़रमाया, “मस्जिदे सहला उन स्थानों में है जिसे ईश्वर पसंद करता है कि वहां प्रार्थना की जाए। कोई ऐसा दिन रात नहीं कि फ़रिश्ते इस स्थान का दर्शन न करते हों” और उपासना न करते हों। अगर मैं इस मस्जिद के पड़ोस में निवास करता होता तो अपनी सारी नमाज़ें इसी स्थान पर पढ़ता।

मस्जिदे सहला की अहमियत के बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के हज़र नामक शिष्य कहते हैं, “मैंने इमाम से सवाल किया कि ईश्वर के हरम के बाद सबसे ज़्यादा अहम स्थान कहा हैं? हज़रत ने फ़रमाया, कूफ़ा है जहां मस्जिदे सहला है। ऐसी मस्जिद कि ईश्वर ने किसी पैग़म्बर को पैग़म्बर नियुक्त न किया मगर यह कि उसने इस स्थान पर नमाज़ न पढ़ी हो। ईश्वर का न्याय इसी मस्जिद से प्रकट होगा और इमाम महदी वहीं ठहरेंगे। यह पैग़म्बरों, उनके उत्तराधिकारियों और सदाचारियों के ठहरने का स्थान है।”