Dec १२, २०१७ १६:३६ Asia/Kolkata

मस्जिद का मुख्य इस्तेमाल, जमात के साथ नमाज़ का आयोजन है।

यह नमाज़ सामूहिक रूप से पढ़ी जाती है। जो व्यक्ति सबसे आगे खड़े होकर नमाज़ पढ़ता है और नमाज़ी उसके पीछे नमाज़ पढ़ते हैं, उसे पेश इमाम या पेश नमाज़ कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार, जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से लोगों का नेतृत्व करता है, उसमें कुछ विशिष्टताएं पाई जानी चाहिएं। इसी प्रकार नमाज़े जमात के लिए भी इमाम को ज्ञान, आचरण एवं न्याय में दूसरों से विशिष्ट होना चाहिए। इसलिए कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है, किसी भी समूह का इमाम या नेता, ईश्वर के सामने उस समूह का प्रतिनिधि होता है, इसीलिए अपनी नमाज़ के लिए बेहतरीन इमाम का चयन करो।

 

पेश इमाम के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त, नमाज़ियों के बीच उसकी लोकप्रियता है। इसका मतलब है कि नमाज़ी उसे अपना पेश इमाम स्वीकार करते हों और ख़ुशी से उसका अनुसरण करते हों। विशेष रूप से जब उसकी लोकप्रियता का आधार, ज्ञान, शुद्धता, न्याय, विनम्रता और सदाचार हो। इमामे जमात जितना अधिक ज्ञानी होगा, लोग उस पर उतना ही अधिक भरोसा करेंगे और अपने धार्मिक सवालों का उससे सही जवाब हासिल कर सकेंगे। इमामे जमात के उच्च ज्ञान एवं सदाचार के कारण, नमाज़ियों के ज्ञान में भी वृद्धि होती है। अगर मस्जिद के पेश नमाज़ ने क़ुरान और हदीस से संबंधित विषयों का ज्ञान अच्छी तरह से हासिल किया है और वह उन्हें सरल भाषा में लोगों तक पहुंचाने की योग्यता रखता है तो वह अपने धार्मिक लक्ष्य से निकट हो जाता है औऱ लोगों से अधिक अपने पालनहार के सामने लोकप्रिय बन जाता है।

इमामे जमात के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि वह न्यायप्रेमी हो। न्याय एक आतंकरिक स्थिति है, जो इंसान को महापाप अंजाम देने और छोटे छोटे पापों को निरंतर अंजाम देने से रोकती है। हालांकि न्याय करना और पाप से बचना लोगों की आतंरिक स्थिति से संबंधित होता है, लेकिन जो निशानियां लोगों के जीवन में ज़ाहिर होती हैं, उन्हें देखकर काफ़ी हद तक किसी के न्यायप्रेमी होने या न होने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से सवाल किया गया था कि किसी के न्यायप्रेमी होने का कैसे पता लगा सकते हैं?

इमाम (अ) ने फ़रमाया, अगर कोई व्यक्ति शर्म और पवित्रता का ख़याल रखता है और अपने भोजन, बातचीत एवं काम-वासना में पापों में लिप्त न हो और अवैध संबंध, सूद, शराब एवं युद्ध से भाग खड़े होने जैसे बड़े पापों से बचे, अगर कोई समस्या नहीं है तो मुसलमानों के सामूहिक कार्यक्रमों में भाग लेने से न बचे, ऐसा व्यक्ति न्यायप्रेमी होता है और उसकी बुराईयों को खोजना एवं उसके पीठ पीछे उसकी बुराई करना हराम है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) भी फ़रमाते हैं, जो व्यक्ति लेन-देन में गड़बड़ी न करे और बातचीत में झूठ न बोले और अपने वादों को नहीं तोड़े तो वह उन लोगों में से है जिसकी उदारता पूर्ण है और उसका न्याय स्पष्ट है।

नमाज़ का वक़्त होते ही मस्जिद में जमात से नमाज़ का आयोजन होना चाहिए और नमाज़ के बाद, प्रवचन एवं दुआओं का कार्यक्रम रखा जाना चाहिए। जो लोग नमाज़े जमात में भाग लेते हैं, वे विभिन्न वर्गों से संबंध रखते हैं और उनमें सभी की परिस्थितियों एवं शारीरिक स्थिति में अतंर होता है, पेश नमाज़ को इनमें से हर किसी की स्थिति का ख़याल रखना चाहिए। हदीस में उल्लेख है कि जब भी तुममे से कोई इमामे जमात बने, तो उसे नमाज़ संक्षिप्त में पढ़नी चाहिए, इसलिए कि जमात में भाग लेने वालों में कमज़ोर, बूढ़े, बीमार, बच्चे और वे लोग भी शामिल होते हैं जिन्हें काम है और उनके पास समय की कमी होती है। हां जब कभी अकेले नमाज़ पढ़ो तो उस समय जितना चाहे नमाज़ को लम्बा कर सकते हो।

एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़ी और अंतिम दो रकअतों को सामान्य से अधिक जल्दी पढ़ा। नमाज़ समाप्त होने के बाद उनके साथियों ने उनसे पूछा, क्या नमाज़ के बीच कोई विशेष घटना घटी थी? पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया, क्या तुमने बच्चे को रोने की आवाज़ नहीं सुनी?

मिना के इलाक़े में एक बड़ी एवं महत्वपूर्ण मस्जिद, ख़ैफ़ है। ख़ैफ़ का शाब्दिक अर्थ पहाड़ का निचला भाग है। इसी प्रकार ख़ैफ़ उस ज़मीन को कहते हैं, जिसके चारे ओर पानी का प्रवाह हो और वह दर्रे से ऊंचाई पर हो और दो पहाड़ों के बीच में स्थित हो। ख़ैफ़ मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का बहुत महत्व है, इस संबंध में काफ़ी सिफ़ारिश भी कई गई है। उदाहरण स्वरूप, 75 ईश्वरीय दूत काबे की ज़ियारत के लिए गए और उन सभी ने मस्जिदे ख़ैफ़ में नमाज़ पढ़ी, इसिलए अगर इस मस्जिद में नमाज़ पढ़ सकते हो तो इसमें लापरवाही न करें।

ख़ैफ़ की मस्जिद, अनेकेश्वरवादियों पर मुसलमानों की जीत का प्रतीक है। इतिहास में उल्लेख है कि हिजरत के पांचवें वर्ष, यहूदियों के उकसावे के बाद मक्के के अनेकेश्वरवादियों ने अरब के कुछ क़बीलों के साथ एकता का समझौता किया, ताकि मदीने पर हमला कर सकें और इस्लाम को जड़ से उखाड़ फेंकें। जिस स्थान का उन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर के लिए चयन किया था, आगे चलकर वहां ख़ैफ़ मस्जिद का निर्माण किया गया। वास्तव में इस्लाम के विरुद्ध अनेकेश्वरवादियों के समझौते के स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया, ताकि वह क़ुरैश और उनके घटक अरब क़बीलों की हार की यादगार बन जाए।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष में मक्का से वापस लौटते हुए मस्जिदे ख़ैफ़ में एक भाषण दिया था। इस भाषण में पैग़म्बरे इस्लाम ने लोगों से एकता का आहवान किया और इस बात पर बल दिया कि ईश्वरीय क़ानून की नज़र में समस्त मुसलमान एक समान हैं। उसके बाद अपने उत्तराधिकारी के संबंध में फ़रमाया, ईश्वर उसके जीवन को सार्थक बना दे जो मेरी बात पर कान धरे और उसे दिल नशीन कर ले और जिन लोगों ने नहीं सुनी है उन तक मेरी बात पहुंचाए। हे लोगो, जो यहां उपस्थित हैं वह उन लोगों तक मेरी बात पहुंचाएं जो यहां नहीं हैं। कितने ऐसे लोग हैं जो ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाते हैं, लेकिन ख़ुद उसका मतलब नहीं समझते और कितने ही ऐसे लोग हैं जो ज्ञान को उन लोगों तक पहुंचाते हैं, जो उनसे अधिक ज्ञान रखते हैं। हे लोगो, मैं दो मूल्यवान चीज़ें तुम्हारे लिए छोड़कर जा रहा हूं। लोगों ने पूछा हे ईश्वरीय दूत वह कौन सी चीज़ें हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, ईश्वरीय किताब और मेरे अहलेबैत अर्थात परिजन। ईश्वर ने मुझे सूचना दी है कि यह दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे, यहां तक कि प्रलय के दिन हौज़े कौसर पर मुझसे मुलाक़ात करेंगे। हालांकि ख़ैफ़ मस्जिद के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने जुहफ़ा इलाक़े में स्थित ग़दीरे ख़ुम में हज़रत अली (अ) को अपना उत्तराधिकार घोषित किया और फ़रमाया, मैं जिसका मौला हूं अली उसके मौला हैं।

 

उस्मानी शासनकाल में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नमाज़ पढ़ने के स्थान पर एक गुंबद और मेहराब का निर्माण किया गया, ताकि ख़ैफ़ में पैग़म्बरे इस्लाम के तम्बू और नमाज़ पढ़ने की जगह चिन्हित रहे। 240 हिजरी में बाढ़ से ख़ैफ़ मस्जिद को नुक़सान पहुंचा। लेकिन उसके कुछ समय बाद उसका पुनर्निमाण किया गया और बाढ़ के पानी को रोकने के लिए वहां एक पुश्ते का निर्माण किया गया। उस समय मस्जिद की लम्बाई 120 मीटर औऱ चौड़ाई 55 मीटर थी, इस प्रकार यह मस्जिद हिजाज़ की बड़ी मस्जिदों में से थी, यहां तक कि उस समय मस्जिदुल हराम से भी बड़ी थी। 874 हिजरी में मिस्र के सुलतान क़ायतबाय ने इसका पुनर्निमाण कराया।

पिछले कुछ वर्षों तक इस मस्जिद की पुरानी इमारत बाक़ी थी, लेकिन वह बहुत पुरानी हो गई थी। चार दीवारी के बीच एक गुंबद था और हज़रत इब्राहीम के नाम पर एक स्मारक। 1407 हिजरी में इस मस्जिद के विस्तार की परियोजना शुरू हुई और उसका क्षेत्रफल बढ़कर 25 हज़ार मीटर कर दिया गया, जिसमें 30 हज़ार लोग नमाज़ पढ़ सकते हैं। आज उसकी चार मिनारें हैं, जो एक दूसरे से काफ़ी दूर स्थित हैं, पहाड़ कि किनारे जमरात के मार्ग में इनसे मस्जिद की सुन्दरता में चार चांद लग गए हैं। लेकिन हाल ही में हुए पुनर्निमाण में गुंबद और मेहराब को हटा लिया गया है। इस मस्जिद का द्वार केवल बैतूता दिनों के दौरान में खुला रहता है और बाक़ी दिनों में बंद रहता है।