मस्जिद और उपासना- 14
हमने बताया था कि मस्जिद को इस्लाम में विशेष महत्व प्राप्त रहा है।
यह मुसलमानों का उपासनागृह है जहां जाकर वे ईश्वर की उपासना करते हैं। मस्जिद को ईश्वर ने अपना घर बताया है। वास्तव में मस्जिद, ईश्वर से प्रार्थना करने और उसकी पवित्र किताब पढ़ने का उपयुक्त स्थान है। क़ुरआन ऐसी किताब है जिसमें ईश्वरीय पहचान को तार्किक ढंग से पेश किया गया है। पवित्र क़ुरआन की विशेषता यह है जिसको पढ़कर उसपर अमल करने से मनुष्य अज्ञानता, कुरीतियों और शैतानी चालों से सुरक्षित रह सकता है। क़ुरआन की शिक्षाएं मनुष्य को परिपूर्णता तक पहुंचाती हैं।

इस्लाम के उदयकाल से ही क़ुरआन और मस्जिद में परस्पर संबन्ध रहा है। अगर आप देखे तो पता चलेगा कि यह संबन्ध अभी भी बाक़ी है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि क़ुरआन को पसंद करने वाला मस्जिद का भी दोस्त होता है। वास्तव में मस्जिद और क़ुरआन, एक-दूसरे से कभी अलग न होने वाले हैं। यह दोनो, एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। मस्जिद और क़ुरआन का आपसी संबन्ध मुसलमानों की आस्था को भी प्रभावित करके उसको मज़बूत बनाता है।
पवित्र क़ुरआन में सृष्टि में सोच-विचार करने पर विशेष बल दिया गया है। सोच-विचार और चिंतन के लिए शांतिपूर्ण वातावरण की आवश्यकता होती है। मस्जिद ऐसा स्थल है जहां विशेष प्रकार की शांति पाई जाती है। यहां उपस्थित होकर क़ुरआन पढ़ने और उसमें सोच-विचार करने में विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है। पवित्र क़ुरआन और मस्जिद के महत्व के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है जिसमे वे कहते हैं कि तुममे से कौन एसा है जो यह पसंद करता हो कि वह भोर के समय मक्के के अक़ीक़ और बतहा क्षेत्रों में जाए जहां उसको दो बड़े "कोहान" वाले ऊंट दिये जाएं। बाद में वह उन ऊंटों को एसी स्थिति में अपने घर ले जाए कि इस बीच उसने कोई गुनाह न किया हो। यह सुनकर लोगों ने कहा कि हे ईश्वर के पैग़म्बर हां हम ऐसा ही चाहते हैं। इसपर पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि तुममे से यदि कोई भी मस्जिद में जाए और वहां पर कोई एक आयत सीखे तो यह काम बड़े कोहान वाले ऊंट मिलने से कहीं बेहतर है। अगर वह दो आयतें सीखता है तो यह एसे दो ऊंटों से बेहतर है और अगर तीन आयतें सीखे तो यह बड़े कोहान वाले 3 ऊंटों से कहीं बेहतर है।
यहां पर विशेष बात यह है कि अरब जगत में ऊंटों को विशेष महत्व प्राप्त रहा है विशेषकर बड़े कोहान वाले ऊंटों को। अरब लोगों में यह बात इतना महत्व रखती थी कि ऐसे ऊंट प्राप्त करने के लिए वे अधिक से अधिक परिश्रम करने के लिए तैयार रहते थे। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि जिस प्रकार से लोग भौतिक वस्तुओं को हासिल करने के लिए अथक प्रयास करते हैं और फिर उनको प्राप्त करने के बाद उसको सुरक्षित रखने के लिए भी बहुत मेहनत करते हैं, उनको आध्यात्मिक बातों को हासिल करने के लिए मेहनत करनी चाहिए क्योंकि यह मनुष्य के लिए अधिक लाभदायक हैं।

इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि मस्जिद में उपासना करने या नमाज़ पढ़ने के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण काम वहां ठहरकर क़ुरआन पढ़ना है। क़ुरआन में जहां पर मस्जिद के महत्व पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है वहीं पर उन लोगों को धरती पर सबसे अधिक अत्याचारी बताया गया है जो मस्जिदों को तोड़ने या वहां पढ़ी जाने वाली नमाज़ को रुकवाने के प्रयास करते रहते हैं। सूरे बक़रा की आयत संख्या 114 में ईश्वर कहता है और उससे बढ़कर अत्याचारी और कौन होगा जिसने अल्लाह की मस्जिदों को उसके नाम के स्मरण से वंचित रखा और उन्हें उजाड़ने पर उतारू रहा? ऐसे लोगों को तो बस डरते हुए ही उसमें प्रवेश करना चाहिए था। उनके लिए संसार में अपमान है और उनके लिए परलोक में बड़ी यातना नियत है।
कार्यक्रम के इस भाग में हम "मसाजिदे सबआ" के बारे में बताने जा रहे हैं। जिस क्षेत्र में "अहज़ाब" नामक युद्ध हुआ था उस क्षेत्र में सात एसी मस्जिदें स्थित हैं जिनमें से छह, एक-दूसरे के बहुत निकट हैं जबकि सातवीं थोड़ी सी दूरी पर है। इनको अरबी में मसाजिदे सबआ कहा जाता है जिनके नाम इस प्रकार हैं मस्जिदे फ़त्ह, मस्जिदे सलमान, मस्जिदे इमाम अली, मस्जिदे फ़ातेमा, मस्जिदे अबूबक्र, मस्जिदे उमर और मस्जिदे क़िब्लतैन या बनू सलमा। इन सात मस्जिदों में से मस्जिदे फ़त्ह, विशेष महत्व की स्वामी है। यह पहाड़ पर बनी एक मस्जिद है। इसी मस्जिद के पीछे ख़ंदक़ नामक युद्ध में खोदी गई ख़ंदक़ का रास्ता है। जंगे अहज़ाब में एक ख़ंदक़ खोदी गई थी। वास्तव में जिस पहाड़ पर मस्जिदे फ़त्ह बनी है वह जंगे अहज़ाब के दौरान, पैग़म्बरे इस्लाम के ठहरने का स्थान था। इस जगह पर पैग़म्बरे इस्लाम, अहज़ाब नामक युद्ध में मुसलमनों की विजय के लिए दुआ किया करते थे। यहां पर की गई उनकी दुआ स्वीकार हो गई तो आपने यहां पर शुक्राने की नमाज़ पढ़ी थी। बाद में इसीलिए इस स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे मस्जिदे फ़त्ह के नाम से जाना जाता है। दूसरी हिजरी क़मरी के जानेमाने साहित्यकार इब्ने शत्ता ने लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने जिस स्थान पर नमाज़ पढ़ी और दुआ मांगी थी उस स्थान पर एक खंबा सा बना दिया गया था जहां पर बाद में मस्जिदे फ़त्ह बनाई गई। क्योंकि यह पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित है इसलिए इसे "मस्जिदुल आला" भी कहा जाता है।
बताते चलें कि जंगे अहज़ाब, इस्लाम की तीन बड़ी जंगों में से एक है जो बद्र और ओहद के युद्धों के बाद लड़ी गई थी। जंगे अहज़ाब, पांचवीं हिजरी क़मरी में लड़ी गई थी। इस लड़ाई में मक्के के विभिन्न गुटों ने यहूदियों के साथ मिलकर इस्लाम का अन्त करने के उद्देश्य से जंग शुरू की थी। उनको विश्वास था कि युद्ध के माध्यम से वे इस्लाम को सदा के लिए समाप्त कर देंगे किंतु ईश्वर की सहायता, हज़रत अली की वीरता और मुसलमानों के कड़े प्रतिरोध के कारण विरोधियों को पराजित होना पड़ा था। जंगे अहज़ाब की विजय में खंदक़ की विशेष भूमिका रही जो सलमान फ़ारसी के सुझाव पर खोदी गई थी।

"मसाजिदे सबआ" अथात सात मस्जिदों में से एक मस्जिद का नाम सलमान फ़ारसी है। सलमान फ़ारसी, पैग़म्बरे इस्लाम के मशहूर साथियों में से एक थे। उनका संबन्ध ईरान से था। आरंभ में वे ज़रतुश्ती थे बाद में उन्होंने इसाई धर्म स्वीकार कर लिया। जब उन्होंने शाम की यात्रा की तो वहां पर वे इसाई धर्मगुरूओं के संपर्क में आ गए। उन्होंने ईसाई धर्मगुरूओं से यह सुना था कि अरब की भूमि पर ईश्वर के अन्तिम दूत का आगमन होगा। यह सुनकर वे हेजाज़ चले गए। कहा जाता है कि हेजाज़ में किसी अरब क़बीले के लोगों ने उनको पकड़ लिया था जिन्हें बाद में एक यहूदी क़बीले को बेच दिया। जिस यहूदी क़बीले को सलमान फ़ारसी को बेचा गया था उसका नाम "बनी क़ुरैज़ा" था। इसी क़बीले के अपने स्वामी के साथ वे मदीना गए। मदीना पहुंचकर उन्होंने ईश्वर के अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (स) के दर्शन किये और इस्लाम स्वीकार किया।
जंगे अहज़ाब में सलमान फारसी ने ख़ंदक़ खोदने का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि मदीने के निकटवर्ती क्षेत्रों में एक खंदक़ खोदी जाए जहां से शत्रुओं के प्रविष्ट होने की संभावना अधिक पाई जाती है। इस प्रकार से उनके प्रवेश को रोका जा सकता है। सलमान फ़ारसी के सम्मान और ख़ंदक़ खोदने के उनके प्रस्ताव के कारण उनके नाम से मस्जिद का निर्माण किया गया।

सलमान फ़ारसी मस्जिद से थोड़ी दूरी पर इसके दक्षिण पश्चिम में मस्जिदे अली इब्ने अबी तालिब है। अहज़ाब नामक युद्ध में हज़रत अली की भूमिका और अरब जगत के तत्कालीन पहलवान उमर बिन अब्दवुद को पराजित करने के कारण मस्जिद उनके नाम पर बनाई गई। जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अरब जगत के नामी पहलवान उमर इब्ने अब्दवुद को पराजित करते हुए उसे ढेर कर दिया तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा था कि हे अली, यदि तुम्हारे आज के काम की तुलना मेरी उम्मत के कामों से की जाए तो तुमको उन सबपर वरीयता प्राप्त है। उन्होंने कहा कि इसका कारण यह है कि उमर बिन अब्दवुद की हत्या से मुशरिकों को अपमान और मुसलमानों को सम्मान मिला है।
"मसाजिदे सबआ" में से एक अन्य मस्जिद का नाम है, "मस्जिदे फ़ातेमा ज़हरा"। इस बारे में विस्तार से बहुत कम बातें मालूम हैं। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जिस स्थान पर "मस्जिदे फ़ातेमा ज़हरा" है उसके निकट "सअद बिन मआज़" के नामकी एक मस्जिद थी जो या तो नष्ट हो गई या फिर यह मस्जिद उसी स्थान पर बनी हुई है। सअद बिन मआज़, औस क़बीले के सरदार थे। वे जंगे ख़ंदक़ में घायल हो गए थे और बाद में उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी शव यात्रा में फ़रिश्तों ने भाग लिया था।
मस्जिदे सलमान से कुछ दूरी पर मस्जिदे अबूबक्र है। यह कुछ ऊंचाई पर स्थित है। इसतक पहुंचने के लिए कई सीढ़ियों चढकर जाना होता है। इस मस्जिद में भी मस्जिदे फ़त्ह की ही तरह उस्मानी शासनकाल में कुछ मरम्मत का काम किया गया है। मस्जिदे अबूबक्र के थोड़ी सी दूरी पर मस्जिदे उमर बनी हुई है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि नवीं हिजरी शताब्दी तक स्रोतों में इसकी कोई निशानी नहीं मिलती। यहां पर इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि "मसाजिदे सबआ" के बारे में आरंभिक शताब्दी में मस्जिदे फ़त्ह, मस्जिदे सलमान और मस्जिदे अली इब्ने अबी तालिब के बारे में ही मिलता है।

मसाजिद सबआ में से एक अन्य मसजिद, मस्जिदुल क़िबलतैन एसी मस्जिद है जिसकी घटना कुछ अलग है। यह मस्जिद मुसलमानों के पहले क़िब्ले से दूसरे क़िब्ले की ओर परिवर्तन की परिचायक है। पंद्रह शाबान सन दो हिजरी क़मरी को ईश्वरीय आदेश पर पैग़म्बरे इस्लाम ने क़िब्ले को मस्जिदुल अक़सा से मस्जिदुल हराम की ओर परिवर्तित कर दिया था। क्योंकि इस मस्जिद में दो क़िब्लों की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ी गई थी इसीलिए इसको ज़ू-क़िब्लतैन कहा जाता है अर्थात दो क़िब्लों वाली मस्जिद।