Jan २३, २०१८ १३:३७ Asia/Kolkata
  • मस्जिद और उपासना- 15

इससे पहले के कार्यक्रमों में हमने कहा कि मस्जिद ऐसा घर है जिसका मेज़बान ईश्वर है और वह हर मेहमान का दया व कृपा से स्वागत व सत्कार करता है।

ईमान वाले इस स्थान पर गिड़गिड़ा कर अपने पालनहार से अपनी असहायता प्रकट करते हैं और उसकी ओर दुआ व प्रार्थना का हाथ उठाते हैं। दुआ, ईश्वर की ओर झुकाव के अलावा कुछ नहीं है और यह एक बंधन की तरह बंदे को ईश्वर से जोड़ देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ख़ुद भी बहुत अधिक दुआ करते थे और दूसरों को भी ईश्वर से प्रार्थना करने और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दुआ करने की सिफ़ारिश करते थे।

 

दुआ में बंदा सर्वसमर्थ ईश्वर से हर उस चीज़ को मांगता है जिसकी उसे ज़रूरत है। उसकी दुआएं केवल भौतिक आवश्यकताओं तक सीमित नहीं होतीं बल्कि वह अपनी आध्यात्मिक ज़रूरतों की दयावान ईश्वर से पूरी करने की दुआ करता है। सबसे बड़ी इच्छा ईश्वर का सामिप्य है यानी मनुष्य इतनी आध्यात्मिक प्रगति और आत्मिक विकास कर ले और ईश्वर के इतने निकट हो जाए कि उसका प्रेम उसके पूरे अस्तित्व को प्रकाशमान कर दे, उसके मन में ईश्वर के अलावा कोई विचार ही न हो और वह उसके अलावा किसी और चीज़ पर ध्यान ही न दे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम एक दुआ में इस प्रकार कहते हैं। प्रभुवर! मैं तुझसे तेरा और तुझे चाहने वालों का प्रेम मांगता हूं और तुझसे चाहता हूं कि मैं जो भी काम करूं वह मुझे तेरे प्रेम से जोड़ दे। प्रभुवर! ऐसा कर दे कि तेरा प्रेम मेरे लिए अपने आपसे और अपने परिवार से भी अधिक प्रिय हो जाए।

मस्जिद दुआ और ईश्वर से प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा स्थान है। दुआ, सृष्टि के रचयिता से संपर्क का सर्वोत्तम साधन है। मस्जिद ईश्वर का ख़ास स्थान और उसकी व्यापक दया उतरने की जगह है। यही कारण है कि मुसलमान हर ख़ास अवसर पर विशेष कर जब उन्हें ईश्वर की दया की अधिक आवश्यकता महसूस होती है, मस्जिद जाते हैं और वहां पर दुआ करते हैं।

मस्जिदुन्नबी में अबू लुबाबा के शरण लेने की घटना मुसलमानों की इस आस्था को भली भांति उजागर करती है। अबू लुबाबा वही व्यक्ति हैं जिन्होंने मदीने के निकट बनी क़ुरैज़ा नामक क़बीले से लड़ाई में ग़लती से यहूदियों को पैग़म्बर की रणनीति से अवगत करा दिया था। जब उन्हें अपनी ग़लती का आभास हुआ तो उन्होंने कई दिन तक अपने आपको मस्जिदुन्नबी के एक स्तंभ से बांधे रखा यहां तक कि ईश्वर ने उनकी तौबा स्वीकार कर ली।

 

वास्तव में इस्लाम के आरंभिक काल में जो लोग कोई ग़लती कर बैठते थे और अपने लिए ईश्वर की विशेष कृपा व दया को ज़रूरी समझते थे वे बड़ी तेज़ी से मस्जिद में पहुंच जाते थे क्योंकि वे मस्जिद को कृपालु ईश्वर की विशेष दया का स्थान समझते थे। मुसलमानों की इस आस्था की पैग़म्बरे इस्लाम ने भी पुष्टि की। उन्होंने अबू लुबाबा की तौबा स्वीकार होने की ख़बर स्वयं उम्मे सलमा को दी थी। जब मस्जिद में यह ख़ैबर फैली तो लोग उमड़ पड़े ताकि अबू लुबाबा के हाथों में बंधी हुई रस्सियों को खोल दें लेकिन अबू लुबाबा ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी और कहा कि मेरे हाथों की रस्सी पैग़म्बरे इस्लाम खोलेंगे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम मस्जिद पहुंचे और उन्होंने अपने हाथों से अबू लुबाबा की रस्सी खोली।

सृष्टि के रचयिता और ईश्वर से दुआ व प्रार्थना के लिए किसी विशेष स्थान व समय या आत्मिक परिस्थिति की शर्त नहीं है और हर स्थान पर हर क्षण ईश्वर से संपर्क साधा जा सकता है। अलबत्ता कुछ विशेष समय व स्थान, अन्य स्थानों व समयों पर श्रेष्ठता रखते हैं। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इस बारे में ईश्वर के निकटवर्ती फ़रिश्ते जिब्रईल से पूछा कि ईश्वर के निकट सबसे प्रिय स्थान कौनसा है? जिब्रईल ने कहा कि मस्जिदें। अतः ईश्वर के प्रिय स्थान पर दुआ करने का बड़ा पुण्य है। हदीसों में है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम एक व्यक्ति के पास से गुज़रे जो किसी दूसरे व्यक्ति के घर के दरवाज़े पर बैठा हुआ था। उन्होंने उससे पूछाः किस बात ने तुझे अत्याचारी व्यक्ति के दरवाज़े पर ला कर बिठा दिया है? उसने उत्तर दियाः परेशानी ने। इमाम ने उससे कहाः उठो, मैं तुम्हें एक ऐसे दरवाज़े पर लिए चलता हूं जो इस घर के दरवाज़े से बेहतर है। इसके बाद वे उसका हाथ पकड़ कर उसे मस्जिदुन्नबी ले गए और कहा कि क़िब्ले की तरफ़ मुंह करो और दो रकअत नमाज़ पढ़ो। इसके बाद अपने हाथ ऊपर उठाओ, ईश्वर का गुणगान करो, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर दुरूद भेजो, फिर सूरए हश्र की अंतिम आयतें और सूरए हदीद की आरंभिक छः आयतें और इसी तरह सूरए आले इमरान की दो आयतें पढ़ो, ईश्वर को पुकारो और अपनी ज़रूरत ईश्वर से बयान करो कि निश्चित रूप से तुम जो भी मांगोगे, ईश्वर तुम्हें प्रदान करेगा।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने भी अपने मानने वालों से कहा है कि वे समस्याओं व कठिनाइयों के समय, मस्जिद में जाएं, नमाज़ पढ़ें और अपनी समस्याएं दूर होने के लिए दुआ करें। उन्होंने कहा कि मेरे पिता इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ज़ुहर के समय ईश्वर से अपनी ज़रूरतों के लिए दुआ किया करते थे। उन्हें जब भी किसी चीज़ की ज़रूरत होती वे पहले ईश्वर के मार्ग में सदक़ देते अर्थात दक्षिणा देते, सुगंध लगाते और फिर मस्जिद जाते और वहां ईश्वर से दुआ मांगते थे।

 

मस्जिदे बुरासा या बरसा इराक़ की राजधानी बग़दाद की सबसे मशहूर मस्जिदों में से एक है। मस्जिद का मुख्य द्वार कुछ सीढ़िया चढ़ कर उसके प्रांगण में खुलता है। प्रांगण के पूर्वी छोर पर एक बड़ा हाल है जिसमें से गुज़र कर मुख्य मस्जिद में पहुंचते हैं। मस्जिद के उत्तरी व दक्षिणी छोर पर टाइलों के काम वाले दो मीनार हैं जो दूर ही से अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। यह मस्जिद बग़दाद के पश्चिमी भाग में कर्ख़ के क्षेत्र में स्थित है। अतीत में यह स्थान बग़दाद के केंद्र से तीन किलो मीटर दूर एक गांव के रूप में था लेकिन बग़दाद का विकास और विस्तार होने के बाद यह उसके एक मुहल्ले में परिवर्तित हो गया।

मस्जिदे बुरासा

इतिहास में है कि अबू शुऐब बुरासी वे पहले आदमी थे जिन्होंने बुरासा को बसाया और बांसों से वहां एक झोंपड़ी बनाई और ईश्वर की उपासना करने लगे। एक दिन उस समय के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की लड़की वहां से गुज़री और अबू शुऐब को उपासना में लीन देख कर बहुत प्रभावित हुई और कहने लगी कि मैं इस कुटिया की सेवा करना चाहती हूं। अबू शुऐब ने जवाब में कहा कि तुम्हें घर-बार और जो कुछ इस संसार में तुम्हारा है उसे छोड़ना होगा। लड़की ने स्वीकार कर लिया और उनसे विवाह कर लिया। लड़की जब कुटिया में आई तो उसने खजूर के पत्तों की एक चटाई देखी जो ज़मीन की नमी से अबू शुऐब को बचा रही थी। उसने कहा कि मैं इसी शर्त पर इस झोंपड़ी में रहूंगी जब तुम इस चटाई को बाहर फेंक दो क्योंकि ख़ुद तुमने कहा है कि ज़मीन, मनुष्य से कहती है कि आज तुम मेरे और अपने बीच पर्दा डाल रहे हो जबकि कल तुम्हारी जगह मेरा गर्भ है। अबू शुऐब ने वह चटाई फेंक दी और दोनों आयु के अंतिम दिनों तक उसी कुटिया में ईश्वर की उपासना करते रहे।

कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से पता चलता है कि वर्ष 37 हिजरी क़मरी अर्थात 657 ईसवी तक मस्जिदे बुरासा के स्थान पर ईसाइयों का एक उपासना स्थल था। जब हज़रत अली अपनी सेना के साथ वहां से गुज़र रहे थे तो उन्होंने वहां कुछ देर आराम करना चाहा। उपासना स्थल के पादरी ने उनसे कहा कि अपने सिपाहियों को यहां न उतारो। उन्होंने पूछा कि क्यों? उसने जवाब दिया क्योंकि इस धरती पर वही अपनी सेना को उतार सकता है जो पैग़म्बर हो या उसका वह उत्तराधिकारी जो ईश्वर की राह में युद्ध कर रहा हो। यह बात हमने अपनी किताबों में देखी है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं पैग़म्बरों के सरदार हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का उत्तराधिकारी हूं। पादरी ने कहा कि मुझे इस्लाम की शिक्षाओं के बारे में बताइये क्योंकि मैंने इंजील अर्थात बाइबल में पैग़म्बर के उत्तराधिकारी के बारे में पढ़ा है कि वह हज़रत मरयम व हज़रत ईसा के घर में उतरेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपनी जगह खड़े रहो और आगे कुछ न कहो। इसके बाद वे कुछ क़दम आगे बढ़े और उन्होंने एक स्थान पर ज़मीन को ज़ोर से ठोकर मारी और फिर अचानक ही उनके पैरों के नीचे से एक सोता उबल पड़ा। उन्होंने कहा कि यह वही सोता है जो हज़रत मरयम के लिए ज़मीन से फूट पड़ा था। इसके बाद हज़रत अली ने कहा कि यहां से सात हाथ दूर एक कुआं खोदो। जब वहां कुआं खोदा गया तो उसमें से सफ़ेद रंग का एक पत्थर निकला। हज़रत अली ने कहा कि हज़रत ईसा का जन्म इसी पत्थर पर हुआ था और इसी पर उन्होंने नमाज़ पढ़ी थी। इसके बाद उन्होंने उस पत्थर को क़िब्ले की दिशा में स्थापति कर दिया और उसकी ओर मुख करके नमाज़ पढ़ी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी सेना के साथ वहां चार दिन रुके।

मस्जिदे बुरासा

 

इस ऐतिहासिक महत्व और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कई दिन तक इस स्थान पर ठहरने के कारण उनके चाहने वालों ने इस स्थान पर एक मस्जिद बना दी। बनी उमय्या और बनी अब्बास के शासकों के काल में मस्जिदे बुरासा पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के श्रद्धालुओं के एकत्रित होने की अहम जगहों में से एक थी। अब्बासी शासक मुक़तदर बिल्लाह के काल में इस मस्जिद का महत्व चरम सीमा पर पहुंच गया था जिसके चलते कुछ संकीर्ण सोच वाले लोगों ने ईर्ष्या और शत्रुता करते हुए अब्बासी शासक को यह समझा दिया कि हज़रत अली इस स्थान पर आए ही नहीं थे। उन लोगों ने मुक़तदर को इस बात के लिए उकसाया कि वह इस मस्जिद को ध्वस्त करने का आदेश दे।

उन्होंने कहा कि यहां शिया एकत्रित होते हैं और वे ख़लीफ़ा के विरुद्ध विद्रोह करना चाहते हैं। उनकी बातों में आकर ख़लीफ़ा ने मस्जिदे बुरासा को ध्वस्त करवा दिया लेकिन वर्ष 329 हिजरी में अर्राज़ी बिल्लाह के शासन काल में इस मस्जिद को पुनः स्थापित किया गया। इस मस्जिद का अब तक कई बार पुनर्निर्माण किया जा चुका है। वर्ष 2006 में आतंकी गुटों ने भी इस मस्जिद पर हमला किया था जिसके परिणाम स्वरूप 69 नमाज़ी शहीद और 130 घायल हो गए थे।