मस्जिद और उपासना- 17
हमने बताया था कि पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिद को इस्लाम धर्म के प्रचार के लिए प्रयोग करते थे और इस्लाम धर्म के उदय होने के काल में भी मस्जिद ईश्वरीय संदेश पहुंचाने, धार्मिक नियमों व सिद्धांतों को सिखाने तथा पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या करने का महत्वपूर्ण स्थान समझी जाती थी।
पैग़म्बरे इस्लाम ने मस्जिद में इस्लाम धर्म के नियमों व निर्देशों को सिखाने के अलावा लोगों को उपदेश भी दिया और उनको सच्चे मार्ग पर लाने का प्रयास भी किया। पैग़म्बरे इस्लाम अधिकतर ईश्वरीय भय, दुनिया, लंबी आंकाक्षाओं, आंतरिक इच्छाओं और अतीत से पाठ लेने जैसे विषयों पर उपदेश देते थे। पैग़म्बरे इस्लाम की बातें मस्जिद में बैठे लोगों को बहुत पसंद आती थीं और उनको बहुत ही मनमोहक लगती थीं। सामान्य रूप से पैग़म्बरे इस्लाम की बातें छोटी होती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के हवाले से जो ख़ुतबे और भाषण हम तक पहुंचे हैं उनको देखकर पता चलता है कि उनके भाषण कुछ मिनटों से अधिक नहीं होते थे। पैग़म्बरे इस्लाम अपने भाषण में संतुलन का ख़्याल रखते थे और चयनित शब्दों का प्रयोग करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के लिए यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण थी कि जब किसी व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि मैं कमज़ोरी और अक्षमता के कारण उक्त नमाज़ में उपस्थित नहीं हो सका क्योंकि उनकी नमाज़ लंबी होती है, तो वह नाराज़ होकर भाषण देने के विशेष स्थान मिंबर पर गये और इस बारे में लोगों को बताया। उपस्थित लोगों के अनुसार किसी ने इससे पहले तक पैग़म्बरे इस्लाम को भाषण के दौरान ऐसे ग़ुस्से में कभी नहीं देखा था। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस भाषण के दौरान उपस्थित लोगों से कहा कि आप में से कुछ लोग, लोगों को परेशान करते हैं, यदि कोई किसी नमाज़ की इमामत की ज़िम्मेदारी अदा कर रहा है तो उसे लंबी नमाज़ पढ़ाने से बचना चाहिए, क्योंकि संभव है कि जमाअत की नमाज़ में अक्षम,बूढ़े या वह लोग हैं जिन्हें ज़रूरी काम हो।

पैग़म्बरे इस्लाम के उपदेश की बैठकें, मस्जिद में बैठे लोगों को न केवल यह कि थका नहीं देती थीं और उन्हें बोर नहीं कर देती थीं बल्कि बहुत आकर्षक और मनमोहक होती थीं, अलबत्ता यह बैठकें हर दिन आयोजित नहीं होती थीं क्योंकि यदि इस प्रकार की बैठकें निरंतर होती तो नमाज़ी थक जाते। पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों में से एक अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम इस बात के डर से कि कहीं नमाज़ी थक न जाएं कुछ दिन उपदेश नहीं देते थे। कभी कभी यह घोषणा कर दी जाती थी कि पैग़म्बरे इस्लाम उपदेश देने वाले हैं ताकि सभी लोग वहां पहुंच जाएं। ऐसे अवसरों पर पैग़म्बरे इस्लाम के साथी एक दूसरे को सबसे पहले मस्जिद पहुंचने और पैग़म्बरे इस्लाम के भाषण को नोट करने या याद करने की अनुशंसा करते थे ताकि पैग़म्बरे इस्लाम के कोई शब्द छूट न जाएं क्योंकि उनको अच्छी तरह पता था कि पैग़म्बरे इस्लाम जो कुछ भी कहते हैं वह वहि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता।
इस्लाम धर्म के उदय के काल में महिलाएं भी मस्जिद में उपस्थित होती थीं। वह नमाज़ पढ़ने और पैग़म्बरे इस्लाम के भाषण सुनने के लिए मस्जिद में आती थीं और यदि यह पता चल जाता था कि किसी वजह से महिलाओं ने पैग़म्बरे इस्लाम के भाषण नहीं सुने तो पैग़म्बरे इस्लाम उन्हें दोबारा नसीहत करते थे। कभी कभी महिलाओं के कहने पर उनके साथ अलग बैठक करते थे और इन बैठकों में धार्मिक सवालों, के जवाब समस्याओं के समाधान और नैतिक मामलों के बारे में मूल्यवान बिन्दुओं को बयान किया जाता था।
मस्जिद, ईश्वर की उपासना और धर्म के प्रचार व प्रसार तथा लोगों के मार्गदर्शन का स्थान है। इस्लाम धर्म के आरंभ में पैग़म्बरे इस्लाम के काल में मस्जिदें बहुत साधारण और बिना किसी सजावट के होती थीं किन्तु समय बीतने के साथ विशेषकर अमवी शासकों के काल में बहुत सी मस्जिदों की अध्यात्मिकता कम हो गयी और धर्म के प्रचार व प्रसार तथा लोगों को धर्म की बात सिखाने की जगह, सजावट ने ली और बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने भविष्यवाणी की थी, उन्होंने कहा था कि ईमान के फीका पड़ने की स्थिति में मस्जिदें आबाद और सुन्दर होंगी किन्तु उनमें मार्गदर्शन और उपदेश का नामो निशान तक नहीं रहेगा।

सीरिया की राजधानी दमिश्क़ में स्थित मस्जिदे अमवी इसी का जीता जागता नमूना है। इस प्रकार से कि मुसलमान इसको दुनिया के चार अजूबों में से एक मानते हैं। जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में बताया था कि मस्जिदे अमवी को जिस स्थान पर बनाया गया है, वहां पर विभिन्न उपासना स्थल हैं, किन्तु अब उन उपासना स्थलों के केवल निशान या चिन्ह या शिलालेख ही बचे हैं। ईसाईयों के प्रकट होने और उनके विस्तार के बाद उन्होंने एक पवित्र स्थल को चर्च के रूप में प्रयोग किया यदि इतिहासकार और शोधकर्ता इस चर्च के रूप पर मतभेद रखते हैं किन्तु लगभग सभी लोगों का कहना है कि यह चर्च रोमियों के उपासना स्थल के प्रांगड़ में बना है।
वर्ष 635 ईसवी में इस्लामी विजयों के बाद मुसलमानों ने इस स्थान को नमाज़ पढ़ने के लिए प्रयोग किया और उन्होंने इसके विशेष गुंबद को हज़ार वर्ष पहले ही उपासना के लिए चुन लिया था। इस्लाम धर्म में पहला मेहराब या वह स्थान जहां खड़े होकर इमाम जमाअत की नमाज़ पढ़ाता है, मस्जिदे अमवी में सहाबा नामक मेहराब था जिसे मुसलमानों ने मस्जिद की दीवार में बनाया था। दूसरे ख़लीफ़ा के काल में जब मुआविया शाम अर्थात सीरिया का शासक बना तो उसने कुछ भाग को मस्जिद घोषित कर दिया जबकि कुछ भाग को चर्च ही रहने दिया। वर्ष 705 ईसवी में जब अमवी शासक वलीद बिन अब्दुल मलिक सत्ता में आया तो उसने चर्च को मस्जिद में मिला दिया। इस मस्जिद में सुन्नी समुदाय के चार पंथों के नाम से अलग अलग मेहराब है, मालेकी, हंबली, शाफ़ेई और हनफ़ी। अलबत्ता मस्जिद में अन्य महत्वपूर्ण स्थान और मज़ार भी हैं। इन्हीं स्थलों में से एक वह स्थान है जहां पर हज़रत यहिया का सिर रखा गया था।

मुन्तख़बुत्तवारीख़ नामक इतिहास की पुस्तक में ज़ैद इब्ने वाक़िद के हवाले से लिखा है कि मैं जब दमिश्क़ की मस्जिद बनाना चाहता था तो हमने हज़रत यहिया अलैहिस्सलाम का सिर देखा जो मस्जिद के एक खंबे के नीचे से निकला था, हज़रत यहिया का चेहरा और सिर वैसा ही तरो ताज़ा था और उनके सिर का बाल भी पूरी तरह सुरक्षित थे। वह लिखते हैं कि जब दमिश्क़ की जामा मस्जिद बनाई गयी, मैं वलीद बिन अब्दुल मलिक की ओर से काम पर नज़र रखने वाला था, अचानक मज़दूरों ने जैसे ही फ़ावड़ा मारा, वैसे ही एक सुरंग बरामद हुई, मैंने सारा मामला वलीद को बताया, रात हो गयी थी, वलीद स्वयं मोम बत्ती लेकर आगे बढ़ा और जैसे ही उस सुरंग के पास पहुंचा तो हमने देखा कि छोटा चर्च और नमाज़ पढ़ने का स्थल है। वहां पर एक बक्सा भी था, वलीद ने बक्सा खोला, उस बक्से में एक डलिया थी जिसमें हज़रत यहिया का सिर रखा हुआ था, उस डलिये पर लिखा हुआ था कि यह यहिया बिन ज़करिया का सिर है। वलीद ने निर्देश दिया कि इस पवित्र सिर को उसी स्थान पर लौटा दो, उस स्थान पर जो खंबा बनाया गया वह दूसरे खंबों से अलग था।
हज़रत यहिया का सिर रखे जाने के स्थान के अलावा मस्जिदे जामे दमिश्क़ में ईश्वरीय दूतों की और भी क़ब्रे हैं जिनका उल्लेख मुन्तख़बुत्तवारीख़ नामक इतिहास की पुस्तक में है। हज़रत हूद अलैहिस्सलाम की क़ब्र मस्जिद की दक्षिणी दीवार में है जबकि उसके सामने हज़रत यहिया का सिर वाला स्थान है किन्तु उसका चिन्ह स्पष्ट नहीं है।

मस्जिदे अमवी में एक अन्य घटना घटी जो इस मस्जिद को दूसरी मस्जिदों से अलग करती है और वह है कर्बला की घटना के बाद हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब का इसमें उपस्थित होना और भाषण देना। सन 61 हिजरी क़मरी को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के बाद, यज़ीद के सैनिकों ने इमाम सज्जाद और हज़रत ज़ैनब सहित इमाम हुसैन के परिवार के अन्य सदस्यों को गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें दमिश्क़ लेकर गये। यज़ीदी सैनिक विदित रूप से तो जीत गये थे, पहले वह बंदियों को कूफ़े ले गये और उसके वहां से शाम अर्थात वर्तमान सीरिया ले गये। सीरिया की मस्जिदे अमवी में यज़ीद ने ज़बरदस्त जश्न का प्रबंध किया था, उसने अपने एक पिट्ठु को मिंबर पर भेजा और उसे आदेश दिया कि इमाम अली और इमाम हुसैन का अपमान करे और मुआविया तथा यज़ीद की प्रशंसा करे। वक्ता ने ऐसा ही किया, इमाम सज्जाद ने मिंबर के नीचे से आपत्ति जताई और कहा कि हे वक्ता तुझ पर धिक्कार हो कि तूने ईश्वर के क्रोध को लोगों की प्रसन्नता के बदले चुना, नरक में जो तूने स्थान बनाया है वह भी तबाह हो जाए, उसके बाद उन्होंने यज़ीद को संबोधित करते हुए कहा हे यज़ीद, मुझे अनुमति दे मिंबर पर जाने की, मैं कुछ बयान करना चाहता हूं जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए और जो सुनने वालों के लिए पुण्य का कारण हो, यज़ीद ने इमाम की बात नहीं मानी किन्तु वहां उपस्थित लोगों के आग्रह पर वह उन्हें अनुमति देने पर विवश हो गया, जैसे ही इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम मिंबर पर गये, उन्होंने पहले ईश्वर की प्रशंसा की और ऐसा ऐतिहासिक भाषण दिया जिससे यज़ीद के सिंहासन की चूलें हिल गयीं, मस्जिदे अमवी में यह मिंबर आज तक इमाम सज्जाद की यादगार के रूप में मौजूद है।

मस्जिद के भीतर दूसरे भाग में इसी प्रकार चार स्तंभो पर छोटे छोटे गुंबद बने हुए हैं जो इमाम ज़ैनुल आबेदीन के स्थान के नाम से प्रसिद्ध है जहां पर इमाम सज्जाद ने विश्राम किया था। इसी मस्जिद में एक स्थान है जहां इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का सिर रखा गया था इसे मक़ामे रासुल हुसैन कहा जाता है। वर्तमान समय में सीरिया संकट के बाद आतंकवादियों के हमले के कारण इस मस्जिद के कुछ भाग टूट गये हैं। अब भी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से मुस्लमान इस मस्जिद और पवित्र स्थलों के दर्शन के लिए आते हैं।