Jan ३०, २०१८ १७:०९ Asia/Kolkata

पिछले हमने मस्जिद में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) के उपदेशों के बारे में चर्चा की थी जिनका उद्देश्य लोगों को इस्लाम के बारे में अधिक से अधिक जानकारी उपलब्ध कराना थी। 

आज भी उनकी इस परंपरा को मस्जिदों में बाक़ी रखा गया है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि जो भी मेरी मस्जिद में आए और उसका उद्देश्य केवल दूसरों को सिखाना या बताना हो तो वह ऐसे संघर्षकर्ता के समान है जो ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करता है।

पवित्र क़ुरआन लोगों से ऐसी आस्था या ईमान की कामना करता है जो ज्ञान और जानकारी पर आधारित हो।  क़ुरआन की इस मांग के अनुसार हर मुसलमान का यह दायित्व है कि वह स्वयं भी इस्लामी जानकारियां प्राप्त करे और दूसरों को भी उनसे अवगत करवाए।  क़ुरआन लोगों का सृष्टि में चिंतन-मनन का आहवान करता है।  क़ुरआन कहता है कि धरती-आकाश, दिन और रात, सूर्य और चंद्रमा, पशु-पक्षियों, वनस्पियों, समुद्रों और पर्वतों सहित पूरी सृष्टि में मनुष्य को गहन सोच विचार करना चाहिए।  इससे पता चलता है कि ईश्वर चाहता है कि लोग पूरी जानकारी के आधार पर अपनी आस्था का निर्धारण करें।  इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार मनुष्य की आस्था या ईमान का आधार ज्ञान होना चाहिए परंपराएं या अंधा अनुसरण नहीं। 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) भी मुसलमानों के ज्ञान अर्जित करने पर विशेष बल दिया करते थे।  उन्होंने अपने पहले संदेश में भी पढ़ने-पढ़ाने की ही बात कही थी।  विशेष बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ऐसे समय में लोगों को ज्ञान अर्जित करने और पढ़ने का आदेश दिया था कि जब अरब जगत में पढ़ने-पढ़ाने का चलन नहीं था और वहां पर कोई भी शैक्षिक केन्द्र मौजूद नहीं था।  इतिहासकारों का कहना है कि जिस काल में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने लोगों को इस्लाम का संदेश दिया था उस समय मक्के और उसके निकटवर्ती शहरों में शिक्षित लोगों की संख्या 20 से अधिक नहीं थी।

ज्ञान के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का यह कथन है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अगर लंबी यात्रा करनी पड़े तब भी उसे हासिल करो।  आप कहते हैं कि ज्ञान को जहां से भी हो हासिल करो क्योंकि वह मोमिन की खोई हुई चीज़ है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऐसे बहुत से कथन हैं जिनमें लोगों का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने का आह्वान किया गया है।  इसीलिए हर मुसलमान का दायित्व है कि वह अपने जीवन में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहे।

यहां पर विशेष बात यह है कि तत्कालीन अरब जगत में पैग़म्बरे इस्लाम के माध्यम से ज्ञान हासिल करने के लिए जिस प्रकार से लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा था वैसा प्रोत्साहन उस काल में यूनान और ईरान के शिक्षा केन्द्रों में भी नहीं पाया जाता था।  उस दौर में पढ़ने और पढ़ाने के लिए मस्जिद से अच्छी कोई दूसरी जगह नहीं थी।  मस्जिद के भीतर शिक्षा प्राप्त करने के महत्व का उल्लेख करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स) का यह कथन है कि जो भी मेरी मस्जिद में आए और उसका उद्देश्य केवल दूसरों को सिखाना या शिक्षा देना हो तो वह ऐसे संघर्षकर्ता के समान है जो ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करता है।

यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि पढने-पढ़ाने की गतिविधियां केवल पैग़म्बरे इस्लाम की मस्जिद तक सीमित नहीं थीं बल्कि दूसरी मस्जिदों में भी एसी गतिविधियां जारी थीं लेकिन मदीने में मौजूद पैग़म्बरे इस्लाम की मस्जिद पवित्र कुरआन सिखाने और इस्लामी शिक्षाओं के प्रसार का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र थी।  इसका मुख्य कारण यह था कि यहां पर स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम (स) लोगों को इस्लामी शिक्षाएं दिया करते थे।  रसूले ख़ुदा के अतिरिक्त उनके महान साथी भी लोगों को इस्लामी शिक्षाएं दिया करते थे।  इस प्रकार मस्जिद के माध्यम से लोगों तक धर्म और धार्मिक शिक्षाएं पहुंच रही थीं।  यह प्रक्रिया लगभग 2 शताब्दियों तक लगातार जारी रही।  बाद में शिक्षा केन्द्रों की स्थापना और विश्विद्यालयों के बनने के कारण इसकी गति में कुछ कमी आई किंतु यह आजतक रुकी नहीं है। 

मस्जिदे नुक़ता और मस्जिदे अलअक़साब।  मस्जिदे नुक़ता उस स्थान पर बनी है जहां पर इमाम हुसैन की शहादत के बाद उनके परिजनों का क़ाफ़ेला, हलब जाते समय ठहरा था।  यज़ीद के सिपाहियों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का कटा हुआ सिर, यहां पर एक पत्थर पर रखा था।  अगले दिन जब यह क़ाफ़ेला इस स्थान से आगे बढ़ने लगा तो इमाम हुसैन से सिर को उस पत्थर से उठाया गया।  उस पत्थर पर ख़ून के कुछ क़तरे लग गए थे।  बाद में हलब के लोगों को जब पूरी बात का पता चला तो वे उस पत्थर के इर्दगिर्द इकट्ठा हो गए जिसपर इमाम के ख़ून के क़तरे लगे हुए थे।  लोगों ने वहां पर एकत्र होकर इमाम की याद में मातम किया और बहुत रोए।  इस घटना के बाद हर साल हलब के लोग इस स्थान पर एकत्रित होकर इमाम हुसैन का ग़म मनाते हैं।  यह सिलसिला कई वर्षों तक जारी रहा।  बाद में "वलीद इब्ने अब्दुल मलिक बिन मरवान" ने इस पत्थर को वहां से हटाकर दूसरे स्थान पहुंचा दिया।  उसके बाद से उस पत्थर के बारे में कोई सूचना नहीं रही।

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार जिस समय मस्जिदे नुक़्ता बनाई गई उस समय उसका एक ही गुंबद था।  इसको दूसरी शताब्दी हिजरी क़मरी के आरंभिक वर्षों में उमर इब्ने अब्दुल अज़ीज़ के काल में बनाया गया था।  बाद में चौथी शताब्दी हिजरी क़मरी में इस मस्जिद में थोड़ा सा विस्तार किया गया था।  इसके बाद उसकी मरम्मत और विस्तार का सिलसिला जारी रहा।  कहते हैं कि यह मस्जिद प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उस्मानी सेना के हथियारों के केन्द्र में बदल गई थी।  पहले विश्व युद्ध की समाप्ति पर लोगों ने यहां पर हमला कर दिया जिसके कारण मस्जिद में मौजूद विस्फोटक पदार्थों के फटने से मस्जिद पूरी तरह से नष्ट हो गई।  इस घटना के कई दशकों बाद तक यह स्थान वीरान पड़ा रहा।  बाद में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से प्रेम करने वालों ने सन 1961 से 1967 के बीच इसका पुनर्निर्माण किया।

मस्जिदुल नुक़्ता को मशहदुल हुसैन के नाम से भी जाना जाता है।  यह प्रचीन मस्जिद पत्थरों से बनी हुई है।  इसमें इस्लामी शिल्पकला को बहुत ही सुन्दर ढंग से पेश किया गया है।  इस मस्जिद में दो प्रांगण हैं।  एक छोटा और दूसरा बड़ा।  छोटा वाला प्रांगण, बड़े वाले की तुलना में काफ़ी पुराना है।

दमिश्क़ में स्थित प्राचीन मस्जिदों में से एक मस्जिद का नाम है, मस्जिदुल अक़साब या क़सब।  इसको सीरिया की प्राचीन ऐतिहासिक धरोहरों में गिना जाता है।  इस मस्जिद में "हुज्र बिन अदी" और उनके साथियों की क़ब्रें हैं।  हुज्र बिन अदी, अपने भाई हानी बिन अदी के साथ पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया।  शाम या वर्तमान सीरिया पर विजय प्राप्त करने वाली सेना में वे भी शामिल थे।  वे अपने नैतिक गुणों के कारण बहुत मशहूर थे।  वे एक कुशल योद्धा होने के साथ ही बड़े उदार स्वभाव के स्वामी थे।

हज़रत अली की शहादत और इमाम हसन के शांति समझौते के बाद मुआविया के आदेश पर उसके अधीन गवर्नरों ने इमाम अली के चाहने वालों पर खुलकर अत्याचार करने आरंभ कर दिये।  अब इमाम अली के मानने वालों को विभिन्न बहानों से सताया जाने लगा और उनकी हत्याएं की जाने लगीं।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथियों में से एक, हुज्र बिन अदी किंदी भी थे।  जिस समय मुआविया ने उनकी हत्या का आदेश जारी किया तो हुज्र बिन अदी ने वसीयत की थी कि मेरी शहादत के बाद मेरे शरीर पर लगे हुए ख़ून को न पोछा जाए क्योंकि मैं इसी हाल में क़यामत के दिन मुआविया का रास्ता रोकूंगा।  मुआविया के आदेश पर जल्लादों ने हुज्र बिन अदी, उनके बेटे और चार अन्य लोगों के गले काट दिये।  बाद में उनको एक क़ब्र में दफ़्न कर दिया गया।  कहा यह जाता है कि दमिश्क़ के निकट हज़रत ज़ैनब के रौज़े के निकट इन छह शहीदों के सिर, मस्जिदे अक़साब के पास दफ़न हैं।  वहां पर यह लिखा हुआ है कि यहां पर पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ साथी दफन हैं।  उसके ऊपर पवित्र क़ुरआन के सूरे अहज़ाब की 23वीं आयत लिखी हुई है जिसका अनुवाद हैः मोमिनों के बीच ईमान वालों के रूप में ऐसे पुरुष मौजूद है कि जिन्होंने जो प्रतिज्ञा अल्लाह से की थी उसे सच कर दिखाया। फिर उनमें से कुछ तो अपना प्रण पूरा कर चुके और उनमें से कुछ प्रतीक्षा में है। और उन्होंने अपनी बात तनिक भी नहीं बदली।  वहीं पर एक शिलालेख पर हज्र बिन अदी सहित अन्य शहीदों के नाम अंकित हैं।

उल्लेखनीय है कि सीरिया में तकफ़ीरी आतंकवादियों की हिंसक कार्यवाहियों के दौरान सोशल मीडिया पर दिखाया गया था कि आतंकवादियों ने बहुत सी क़ब्रों को तोड़कर उनमें दफ़न लोगों के शवों को बाहर निकाल दिया था।  तकफ़ीरी आतंकवादियों ने पैग़म्बर के महान साथी हज्र बिन अदी कंदी के शव को भी उनकी क़ब्र से निकालकर उसका अपमान किया था।  इस संबन्ध में सोशल मीडिया पर जो चित्र डाले गए थे उनसे पता चलता था कि हुज़ बिन अदी का शव सही सालिम था।