Jan ३१, २०१८ १७:२० Asia/Kolkata

हमने आपको बताया था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) किस प्रकार से मस्जिद में लोगों को इस्लाम की शिक्षा दिया करते थे। 

वे विभिन्न अवसरों पर मस्जिद में लोगों के सामने शिक्षा के महत्व और उसके सीखने के बारे में भाषण दिया करते थे।  वे अधिकतर लोगों को धर्म के मूल सिद्धांतों के बारे में बताया करते और स्वयं मस्जिद में उपस्थित होकर पढ़ाते भी थे।  उनका मुख्य उद्देश्य लोगों को अधिक से अधिक जागरूक बनाना था।

 

पैग़म्बरे इस्लाम, ज्ञान के फैलाने और अज्ञानता के अंधकार को समाप्त करने पर विशेष ध्यान देते और इस बारे में स्वयं भी आगे-आगे रहा करते थे।  जब वे मक्के से पलायन करके मदीना पहुंचे तो उन्होंने मदीने के शिक्षित लोगों से कहा कि वे लोगों को शिक्षित करने की ज़िम्मेदारी संभालें।  आपके आह्वान पर “अब्दुल्लाह बिन सअद” और “एबादा बिन सामित” ने मदीने में उस प्रकार के केन्द्र स्थापित किये जिस प्रकार के वर्तमान समय में निरक्षरता उन्मूलन कार्यक्रम के अन्तर्गत स्थापित किये जाते हैं।  इसके बाद मुसलमानों इन केन्द्रों में जाकर शिक्षा लेना आरंभ किया।  यहा पर उल्लेखनीय बात यह है कि जंगे बद्र में जो लोग बंदी बना लिए गए थे उनको स्वतंत्र कराने के लिए यह शर्त रखी गई कि वे अपनी आज़ादी के बदले में 10 मदीना वासियों को लिखना-पढ़ना सिखाएं।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने इस्लाम को फैलाने और लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से मस्जिदों को शिक्षा केन्द्र बनाया था।  वे स्वयं मदीने की मस्जिद में बैठकर लोगों को शिक्षा देते थे।  “अबी कअब” का कहना है कि एक बार में मस्जिदे पैग़म्बर में गया तो देखा कि लोग वहां पर बैठे हुए क़ुरआन पढ़ रहे हैं।  मैंने उन लोगों से पूछा कि किसने तुमको क़ुरआन पढ़ने के लिए प्रेरित किया है।  इसपर उन लोगों ने जवाब दिया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने।  “सफ़वान बिन ग़स्सान” का कहना है कि एक बारे मैं मस्जिद गया।  वहां पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) मौजूद थे।  मैने उनसे कहा कि मैं यहां पर शिक्षा प्राप्त करने आया हूं।  उन्होंने जवाब में कहा कि ज्ञान सीखने वाले सौभाग्यशाली हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) के स्वर्गवास के बाद शिक्षा प्राप्त करने और क़ुरआन सीखने का क्रम यथावत जारी रहा।  आपके स्वर्गवास के बाद हज़रत अली इब्ने अबी तालिब, अब्दुल्लाह बिन अब्बास, अब्दुल्लाह बिन मसूद तथा कुछ अन्य पैग़म्बरे इस्लाम के साथी मस्जिदों में लोगों को शिक्षा विशेषकर पवित्र क़ुरआन सिखाते थे।  यह लोग ही पैग़म्बरे इस्लाम के बाद पवित्र क़ुरआन के पहले व्याख्याकार थे।  यह लोग पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों के आधार पर क़ुरआन की व्याख्या किया करते थे।

 

इस्लाम के फैलने के साथ ही उस काल के बड़े शहरों में शिक्षा केन्द्र स्थापित किये गए।  कूफा, बसरा और फ़ुसतात जैसे शहरों में पढ़ाई के मुख्य केन्द्र वहां की जामा मस्जिदें हुआ करती थीं।  जामा मस्जिद, शहर की उस मस्जिद को कहा जाता था जहां पर पूरे शहर के लोग एक साथ जुमे और ईद की नमाज़ पढ़ा करते थे और बड़े धार्मिक आयोजन भी वहीं पर हुआ करते थे।  यही कारण था कि जामा मस्जिदें अन्य मस्जिदों की तुलना में बड़ी हुआ करती थीं।  उदाहरण स्वरूप मस्जिदे कूफ़ा जिस समय बनाई गई थी उस समय उसमें 40 हज़ार लोगों की गुंजाइश थी।  इस मस्जिद में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सत्ताकाल में व्यापक स्तर पर शिक्षा दी जाती थी।  कहते हैं कि महत्वपूर्ण किताब “नहजुल बलाग़ा” में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के जो ख़ुत्बे मौजूद हैं उनमें से अधिक्तर, मस्जिदे कूफ़ा में दिये गए हैं।

इस्लाम के उदय की पहली शताब्दी और दूसरी शताब्दी के आरंभिक दशकों में धार्मिक शिक्षाएं, मस्जिदों में ही दी जाती थीं।  उस काल में मस्जिदों में इस प्रकार से शिक्षा दी जाती थी कि पढ़ाने वाला ज़मीन पर बैठता था जिसे उस्ताद कहा जाता था और पढ़ने वाले उसके किनारे एसे बैठते थे कि एक गोला सा बन जाया करता था।  आज भी धार्मिक शिक्षा केन्द्रों में इसी प्रकार से पढ़ाई होती है।  जिस उस्ताद की जितनी अधिक जानकारी होती थी उसके शिष्यों की संख्या भी उसी हिसाब से हुआ करती थी।  जिस उस्ताद के इर्दगिर्द अधिक संख्या में शागिर्द होते थे उसे अधिक ज्ञानी माना जाता था।

मिस्र के एक जानेमाने विद्वान, “जलालुद्दीन सुयूती” अपनी विख्यात पुस्तक “अलइतक़ान” में लिखते हैं कि “अब्दुल्लाह बिन अब्बास” मस्जिदुल हराम में बैठते थे और लोग उनके इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाया करते थे।  वे लोगों के सामने पवित्र क़ुरआन की व्याख्या करते और इस्लामी शिक्षा दिया करते थे।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम ज़ैनजुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, मदीने की मस्जिद में क़ुरआन की व्याख्या करते और लोगों को उपदेश दिया करते थे।  वे मस्जिद में नैतिकता भी पढ़ाते थे।  वे मस्जिद को शिक्षा और उपदेश देने के केन्द्र के रूप में प्रयोग करते थे।  आपके सुपुत्र इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम भी मदीने की मस्जिद में लोगों को पढ़ाते और उनके प्रश्नों के उत्तर दिया करते थे।  इस्लामी शिक्षाओं को व्यापक स्तर पर फैलाने में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।  वे लोगों को विभिन्न विषयों की शिक्षा देते थे।  मुसलमानों को वे क़ुरआन की व्याख्या पढ़ाते थे।  उन्होंने अपने काल में शिक्षा के विकास और विस्तार के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रयास किये।  इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में उनके शिष्यों की संख्या 4000 बताई जाती है।

कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको अफ्रीका महाद्वीप पर बनाई जाने वाली पहली मस्जिद के बारे में बताएंगे।  अफ्रीका महाद्वीप पर पहली मस्जिद सन 21 हिजरी क़मरी में बनाई गई थी।  इस मस्जिद को 641 ईसवी में वर्तमान मिस्र में बनाया गया था।  इस मस्जिद का नाम “अमरोआस” है।  मस्जिदे अमरोआस को “ताजुल जवामे” के नाम से भी याद किया जाता है।  इस्लाम के उदय के बाद बनने वाली मस्जिदों में मस्जिदे अमरोआस, 14वीं मस्जिद थी।  इससे पहले 13 मस्जिदें अरब में बनाई गई थीं।  मस्जिदे उमरेआस के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें इमाम शाफेई, लैस बिन सअद, अबूताहिर सलफ़ी, इब्ने हेशाम और कई जानीमानी हस्तियां शिक्षा दिया करती थीं।

मुसलमानों के दूसरे ख़लीफ़ा के आदेश पर अमरोआस ने मिस्र पर विजय प्राप्त की।  मिस्र पर हमला करने वे पहले अमरोआस ने इस्कंदरिया या एलेगज़ैडरिया नगर के पश्चिमोत्तर में नील नदी के किनारे अपना ख़ैमा लगाया था।  मिस्र पर विजय प्राप्त करने के बाद वहां पर जो पहली मस्जिद बनी उसका नाम अमरोआस मस्जिद रखा गया।  यह एक सादी सी चौकोर मस्जिद थी।  इसके खंबे, खजूर के पेड़ के बने हुए थे और दीवारें कच्ची मिट्टी की ईंटों से बनी थीं।  मस्जिद आरंभ में बहुत बड़ी थी।  यह इतनी बड़ी मस्जिद थी कि इस्लाम का पूरा लश्कर यहां पर एक साथ नमाज़ पढ़ता था।  इस मस्जिद में आरंभ में कोई मीनार नहीं थी।  बाद में मुआविया के काल में मस्जिदे उमरेआस में चार मीनारें बनाई गईं, साथ ही इसका क्षेत्रफल दो बराबर कर दिया गया।  अपनी स्थापना के दो शताब्दियों के बाद 853 ईसवी में “बीज़ान्स” ने उमरेआस मस्जिद पर हमला किया था जिसमें इसको बहुत क्षति पहुंची थी।  बाद में मुसलमानों ने इस मस्जिद की मरम्मत करवाकर इसे ठीक किया।  इसके बाद अय्यूबी सत्ताकाल में मस्जिदे उमरेआस का विस्तार किया गया।  सलाहुद्दीन अय्यूबी ने इस मस्जिद का पुनर्निमाण करवाया था।  क्रूसेड या सलीबी युद्धों में दो बारे मस्जिदे उमरेसाद को नुक़सान पहुंचा था।  एक बार सन 1219 में और दूसरी बार सन 1249 में।  ईसाइयों ने इसपर क़ब्ज़ा करके इसे गिरजाघर बनाया लेकिन बाद में मुसलमानों ने इसपर नियंत्रण कर लिया।

 

पहले युद्ध में ईसाई, अमरोआस मस्जिद में मौजूद क़ुरआन और मिंबर को रोम ले गए।  उन्होंने इस मस्जिद का नाम बदलकर उसे मरयम गिरजाघर का नाम दिया था।  उस्मानी काल में इसपर पुनः नियंत्रण स्थापित किया गया।  बाद में यह 100 संगेमरमर के स्तंभो वाली वैभवशाली मस्जिद बनी।  इतिहास के अनुसार मिस्र की अमरोआस मस्जिद कई बार नष्ट हुई और इसको क्षति पहुंचाई गई लेकिन वह आज भी मिस्र में मस्जिद के ही रूप में मौजूद हैं।

कार्यक्रम में हम मिस्र की ही एक अन्य प्राचीन मस्जिद का उल्लेख करने जा रहे हैं जो अमरोआस मस्जिद के बाद वहां की दूसरी सबसे प्राचीन मस्जिद है।  इस मस्जिद का नाम है, “अहमद बिन तूलून” मस्जिद।  इस मस्जिद में मौजूद शिलालेख के अनुसार यह सन 265 हिजरी क़मरी बराबर 879 ईसवी में बनकर तैयार हुई थी।

 

“अहमद बिन तूलून” मस्जिद को “जामे अहमद बिन तूलून” के नाम से भी जाना जाता है।  इस मस्जिद की एक विशेषता यह है कि यह अपनी प्राचीन कालीन वास्तुकला के साथ अब भी मौजूद है।  इस मस्जिद में जो मीनार बने हुए हैं वे मिस्र के सबसे प्राचीन मीनार कहे जाते हैं।  “अहमद बिन तूलून” मस्जिद की मीनारें, इराक़ के समार्रा की जामा मस्जिद के जैसी हैं।  इसका मुख्य कारण यह है कि जिनके नाम पर यह मस्जिद बनाई गई है उनका पूरा नाम “अबुलअब्बास अहमद बिन तूलून” था।  उनका संबन्ध इराक़ के सामर्रा नगर से था।  अब्बासी शासक मोतज़ बिल्लाह के काल में इब्ने तूलून को मिस्र का गवर्नर नियुक्त किया गया था।  गवर्नर बनने के बाद उन्होंने जामा मस्जिद बनाने का आदेश दिया था।  कहते हैं कि मिस्र के तत्कालीन गवर्नर “अबुलअब्बास अहमद बिन तूलून” ने मस्जिद बनाने वाले कारीगरों को आदेश दिया था कि वे एसी मस्जिद का निर्माण करें जो बाढ़ और आग दोनों से सुरक्षित रहे सके।  उनका कहना था कि यदि मिस्र में बाढ आ जाए तो यह मस्जिद उससे प्रभावित न हो सके और इसी प्रकार यदि कभी मिस्र में किसी कारणवश आग लग जाए तो मस्जिद आग से भी प्रभावित न हो सके।  इस मस्जिद के निर्माण में लाल रंग की ईंटों का प्रयोग किया गया है।  इसकी मीनारें सामर्रा की जामा मस्जिद की मीनारों की ही भांति बनाई गई थीं।  वर्तमान समय में इस मस्जिद की जो मीनारें हैं वे इसकी आरंभिक काल वाली मीनारें नहीं हैं बल्कि उन्हें आठवीं शताब्दी हिजरी क़मरी में बनवाया गया था।  पहले इसमें 10 स्तंभ थे बाद में 16 अन्य स्तंभो को बढ़ाया गया।  “अहमद बिन तूलून” मस्जिद की छत पर सोलर घड़ी लगाई गई थी।  कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दूसरी शताब्दी हिजरी क़मरी में बनने वाली “अहमद बिन तूलून” मस्जिद, आज भी मिस्र की दूसरी सबसे पुरानी मस्जिद है।