मस्जिद और उपासना- 21
हम मस्जिद के महत्व और उसकी उपयोगिता के बारे में वार्ता करते आए हैं।
उपासनागृह वे स्थल होते हैं जहां पर सामान्यतः उपासना की जाती है। मस्जिद भी एक उपासनागृह है। मस्जिद में आरंभ से उपासना के साथ पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला भी रहा है। इस्लाम के उदय से आरंभिक चार शताब्दियों तक मस्जिदों में इबादत के साथ ही पढ़ाने का काम भी होता था। उस काल में इस्लामी शिक्षाओं का केन्द्र मस्जिदें ही होती थीं। इस्लाम के उदय के आरंभिक काल में मस्जिदों के शबिस्तानों या उसके हॉलों में नामज़ के बाद पढ़ाने का सिलसिला आरंभ हो जाता था। उस काल में गुरू मस्जिदों के स्तंभों पर टेक लगाकर बैठते और उनके शिष्य, अपने गुरू के चारों और घेरा बनाकर बैठा करते थे। वहां पर पढ़ने के लिए हर एक को आने की अनुमति होती थी। वे लोग उस्ताद से अपने सवाल पूछते और उस्ताद, प्रश्न करने वालों को संतोषजनक उत्तर दिया करते थे। वर्तमान समय में जो मदरसों का स्वरूप है वह बहुत बाद में अस्तित्व में आया है पहले ऐसा नहीं था।

मस्जिदों में नमाज़ियों के बीच गुरू भी हुआ करते थे जो नमाज़ के बाद लोगों को इस्लामी शिक्षाएं दिया करते थे। ऐसे में धर्मगुरूओं या शिक्षकों और शिष्यों के बीच निकट के संबन्ध हो जाते थे। उस काल में जब प्रकाशन ने जन्म नहीं लिया था तो इस्लामी जगत में किताबों को सुरक्षित रखने का क्रम, वर्तमान जैसा नहीं था। उस काल में लेखक या उसने जिसको अनुमति दी होती थी वह लोगों के बीच पुस्तक को पढ़कर सुनाता था। इसके बाद उसके सही होने की पुष्टि की जाती थी। जब पुष्टि हो जाती थी तो फिर उसे लेखक की मान्यता मिलती थी। इस काम के लिए मस्जिद को एक उपयुक्त स्थल माना जाता था। लेखक अपनी पुस्तकों को मस्जिद में वक़्फ़ करते थे और लोग उनसे लाभ उठाया करते थे। इस प्रकार मस्जिदों में पवित्र क़ुरआन के अतिरिक्त किताबें भी हुआ करती थीं जिनमें अधिकतर हदीसों, तफ़सीरों और महापुरूषों की जीवनी पर आधारित किताबें होती थीं।
पहली शताब्दी हिजरी क़मरी के मध्य से मस्जिदों के लिए किताबों को वक़्फ़ करने की परंपरा में तेज़ी आई। चूंकि आरंभिक काल की मस्जिदों में पुस्तकों को रखने के उद्देश्य से कोई स्थान नहीं होता था इसलिए बाद वाले काल में बनने वाली मस्जिदों में इसका विशेष ध्यान रखा गया। बाद वाली मस्जिदों में पुस्तकालय के लिए विशेष स्थान निर्धारित किया जाने लगा। इसका परिणाम यह निकला कि लोग अधिक से अधिक संख्या में अपनी किताबों को मस्जिदों में वक़्फ़ करने लगे। इस प्रकार हर मस्जिद में एक पुस्तकालय बनने लगा। किताबों को वक़्फ करने का चलन इसलिए भी आम होता गया क्योंकि घरों की तुलना में मस्जिदों में किताबों की सुरक्षा अधिक अच्छे ढंग से की जा सकती थी और उससे आम लोग लाभान्वित होते थे।

वैसे तो मस्जिदों के पुस्तकालय साधारण से होते थे किंतु कुछ मस्जिदों के पुस्तकालय इतने अच्छे थे कि उनकी ख्याति, पूरे इस्लामी जगत में फैली हुई थी। जिन मस्जिदों के पुस्तकालय इस्लामी जगत में बहुत मशहूर हुए उनमें से एक मस्जिदुल हराम का पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय में साढ़े तीन लाख से अधिक हस्तलिखित प्रतियां हैं। इसी के साथ हम यहां पर पवित्र नगर मक्के के कुछ मशहूर पुस्तकालयों का उल्लेख करने जा रहे हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर मक्का का यह पुस्तकालय, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र जन्म स्थल के निकट है। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मक्के से मदीना पलायन किया तो यह स्थान, हज़रत अली के भाई अक़ील इब्ने अबीतालिब के अधिकार में चला गया। उनके बाद वह उनकी संतान के पास रहा। बाद में "मुहम्मद बिन यूसुफ़ सक़फ़ी" ने उसे ख़रीदा। उसने वहां पर एक कमरा बनाया जिसका नाम "दार इब्ने यूसुफ़" रखा। इसके बाद सन 171 हिजरी कम़री में अब्बासी शासक हारून रशीद की मां ने इस स्थान को मस्जिद में बदल दिया। इसके बाद कई वर्षों तक यह मस्जिद के रूप में ही बाक़ी रही किंतु आले सऊद द्वारा सत्ता हथियाने के आरंभिक वर्षों में ही इस मस्जिद को तोड़ दिया गया। सन 1370 हिजरी क़मरी में मक्के की परिषद के प्रमुख ने इसके मस्जिदुल हराम के निकट होने के कारण इसके स्थान पर पुस्तकाल बनाने का आदेश जारी किया। बाद में मस्जिदुल हराम के विस्तार के बहाने आले सऊद शासन ने इस पवित्र स्थल को ध्वस्त करने की योजना बनाई। आले सऊद की इस योजना का मुसलमानों ने जमकर विरोध किया जिसके कारण आले सऊद शासन ने अपना निर्णय वापस ले लिया।
इसके अतिरिक्त वे मस्जिदें जहां पर पुस्तकालय भी मौजूद हैं उनमें से दमिश्क़ की उमवी जामा मस्जिद, जामे ज़ैतूनिये, बग़दाद की जामा मस्जिद और इसके अतिरिक्त क़ाहेरा, नजफ़ और करबला की कुछ मस्जिदों के नाम लिये जा सकते हैं।
मिस्र की महत्वपूर्ण मस्जिदों में से एक मस्जिद है, "मस्जिदे सुल्तान हसन"। यह "मदरसे व मस्जिदे सुल्तान हसन" के नाम से जानी जाती है। इस मस्जिद का निर्माण 760 हिजरी क़मरी में मिस्र की राजधानी क़ाहिरा में "सलाहुद्दीन अय्यूबी" के क़िले के निकट किया गया था। इस मस्जिद को बनाने के लिए तीन वर्षों तक निरंतर काम किया गया था। "मदरसे व मस्जिदे सुल्तान हसन" का क्षेत्रफल 7906 वर्ग मीटर है। इसकी गणना इस्लामी जगत की महत्वपूर्ण मस्जिदों में होती है। इस मस्जिद की दीवारें 36 मीटर ऊंची। मस्जिद पर बनी मीनार की ऊंचाई 68 मीटर है।

"मदरसे व मस्जिदे सुल्तान हसन" के चारों कोनो में चार बड़े हाल हैं जिन्हें सुन्नी मुसलमानों के चार प्रमुख पंथों शाफेई, मालेकी, हनफ़ी और हंबली से विशेष किया गया है। इन चारों हालों को गैलरियों के माध्यम से मस्जिद से जोड़ा गया है। इन चारों हाल में ऐवाने क़िब्ला अधिक मशहूर है जहां पर नमाज़ पढ़ी जाती है। यहां पर दीवारों पर बड़े सुन्दर संगमरमर के पत्थर लगे हुए हैं जो सफेद रंग के हैं। इनमें से कुछ पर गुल-बूटे बने हुए हैं। इस मस्जिद के निर्माण में ईरान और सीरिया के वास्तुकारों ने भाग लिया और इस बहुत ही कम समय में बना दिया। इस मस्जिद को विदेशी कलाकारों द्वारा सुसज्जित किया जा रहा था इसी बीच तत्कालीन शासक "सुल्तान हुसैन" का निधन हो गया। उनके निधन के बाद मस्जिद की साज-सज्जा का काम अधूरा रह गया।

इस बात का उल्लेख पहले के कार्यक्रमों में भी किया जा चुका है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में मस्जिदें बहुत ही सादा हुआ करती थीं। इसीलिए यह कोशिश होनी चाहिए कि मस्जिद में साज-सज्जा कम की जाए ताकि लोगों का ध्यान उनकी ओर अधिक आकर्षित न हो। बड़े खेद की बात है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद मस्जिदों की सादगी धीरे-धीरे कम होने लगी। सुल्तान हसन मस्जिद के बनाने वालों ने इस बात को दृष्टिगत रखा कि मस्जिद का आध्यात्मिक वातावरण बाक़ी रहे। सुल्तान हसन मस्जिद में प्रवेश द्वार के बाद एक गैलरी बनी हुई है जो मस्जिद के अन्य भागों को जोड़ती है। इस मस्जिद में जो चेराग़ बना गए हैं उनपर सूरे नूर की आयत को बहुत ही सुन्दरता के साथ लिखा गया है। पवित्र क़ुरआन के सूरे नूर की आयत संख्या 35 में ईश्वर के प्रकाश की संज्ञा एक चेराग़ से दी गई है। ऐसा चेराग़ जो अपनी रोशनी को शीशे के फ़ानूस में सुरक्षित रखता है।

आयत का अनुवाद हैः अल्लाह आकाशों और धरती का प्रकाश है। उसके प्रकाश की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक़ है, जिसमें एक चिराग़ है, वह चिराग़ एक फ़ानूस में है। वह फ़ानूस ऐसा है मानो चमकता हुआ कोई तारा है। वह चिराग़ ज़ैतून के एक बरकत वाले वृक्ष के तेल से जलाया जाता है, जो न पूर्वी है न पश्चिमी।