मस्जिद और उपासना- 23
मस्जिद शुरू से ही उपासना और स्मरण के विशेष स्थान के साथ ही सामाजिक विषयों पर चिंतन मनन और समस्याओं के समाधान का केन्द्र भी रही है।
महिलाओं और पुरुषों का मस्जिदों में पहुंचना, विभिन्न प्रकार की सूचनाओं का आदान प्रदान, समाज के लोगों की स्थिति से अवगत होना मस्जिद के सामाजिक आयामों में से एक है। मस्जिद में मोमिन इंसानों को इस बात का अवसर मिलता है कि उन लोगों से अवगत हों जो धर्म और उपासना में उनके समान हैं। इस तरह सामाजिक संगठनों की स्थापना का रास्ता भी साफ़ होता है।

इंसान के सामाजिक रिश्तों में सबसे महत्वपूर्ण दोस्ती का रिश्ता है। सामाजिक जीवन में कोई भी व्यक्ति दोस्तों की आवश्यकता का इंकार नहीं कर सकता। अच्छा दोस्त कल्याण के मार्ग में इंसान का मददगार, कठिनाइयों और मुशकिलों के समय दुख बांटने वाला होता है। यदि इंसान के पास अच्छे मित्र हों तो मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य बढ़ता है तथा इंसान की अच्छी सामाजिक छवि बनती है। इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि अच्छे दोस्त तलाश करने का केन्द्र मस्जिद है। इस प्रकार मस्जिद की एक सामाजिक विशेषता यह है कि वहां नमाज़ी ख़ुद को सदाचारी लोगों से जोड़ सकते हैं। प्रशिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि अच्छा दोस्त किसी भी इंसान की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। मस्जिद समाज के अच्छे लोगों के बीच जान पहिचान और परिचय का अच्छा पटल है और इससे इंसासनों के मानसिक व नैतिक प्रशिक्षण के लिए भी अच्छा माहौल पैदा हो सकता है। मस्जिद वह धार्मिक व सांस्कृतिक केन्द्र है जहां नमाज़ियों का आना जाना रहता है और इस प्रकार के लोगों से दोस्ती इंसान के जीवन में बहुत अच्छा असर डालती है। मोमिन बंदों और सदाचारी लोगों में आपसी परिचय और दोस्ती के नतीजे में जो वातावरण उत्पन्न होता है वह इंसानों के मानसिक व मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण के लिए बहुत अच्छा है। मस्जिद से संबंधित कथनों और शिक्षाओं में विशेष रूप से मस्जिद के सामाजिक आयाम पर बल दिया गया है। इस केन्द्र की मदद से लोग एक दूसरे की आवश्यकताओं से अवगत होते हैं और एक दूसरी की मदद करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक रिवायत में मस्जिद में पाबंदी से आवाजाही के फ़ायदे बयान करते हुए आठ महत्वपूर्ण फ़ायदों को चिन्हित करते हैं जिनमें पहला लाभ धार्मिक भाइयों से मुलाक़ात है जो धार्मिक मामलों में एक दूसरे की मदद करें।

जो इंसान अच्छे लोगों के साथ उठता बैठता है तो यदि वह धार्मिक परिपक्वता के उस चरण तक नहीं पहुंचा हो कि ईश्वर के भय से गुनाह से परहेज़ करे तो भी धार्मिक भाइयों से शर्म के कारण ग़लत रास्ते पर नहीं जाता। मस्जिद मोमिनों के लिए बहुआयामी मंच है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है कि मस्जिद में जाने वाले लोग तीन उपलब्धियों में से किसी एक के बग़ैर वापस नहीं आत इनमें से एक दोस्ती है जिसे ईश्वर के मार्ग में प्रयोग करता जाता है।
कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको क़ाहेरा की रासुल हुसैन मस्जिद और सैयदा ज़ैनब मस्जिद के बारे में बताएंगे। क़ाहेरा शहर की एक बड़ी मस्जिद का नाम मस्जिदे रासुल हुसैन है। मिस्र के लोगों में इसे मशहद रासुल हुसैन के नाम से जाना जाता है। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि यज़ीद ने आदेश दिया था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का कटा हुआ सिर विभिन्न शहरों और बस्तियों में ले जाया जाए ताकि लोगों में भय बैठ जाए। इमाम हुसैन का सिर अलग अलग शहरों में ले जाया गया और यह सिलसिला सीरिया और मिस्र के बीच में स्थित असक़लान शहर पहुंच कर थमा। असक़लान के गवर्नर ने सिर को वहीं दफ़्न करवा दिया। बाद में जब मिस्र में फ़ातेमीयून शासन श्रंखला आई तो इमाम हुसैन के सिर के दफ़्न की जगह का पता लगाया गया और सिर को वहां से निकाल कर क़ाहेरा लाया गया। एक बड़े शोक कार्यक्रम के दौरान जिसमें सारी दरबारी और प्रतिष्ठित लोग नंगे पांव भाग ले रहे थे इस सिर को ज़मुर्रद महल की ओर ले जाया गया और वहां क़ुब्बतुद्दैलम नामक गुंबद के नीचे दफ़्न किया गया। इसके बाद यह मस्जिद मुसलमानों की ज़ियारतगाह बान गई।
फ़तेमी शासकों का काल बीत जाने के बाद भी अलग अगल शासन कालों में इस मस्जिद की मरम्मत और विस्तार का काम होता रहा। इस मस्जिद का वर्तमान गुंबद सफ़ेद और लाल रंग के पत्थरों से वर्ष 1924 में बनाया गया है। इस मस्जिद की मीनार इसके पश्चिमी भाग में है जो उसमानी काल की मस्जिदों की मीनारों की शक्ल की है। रासुल हुसैन मस्जिद के तीन दरवाज़े हैं एक पश्चिमी भाग में है, दूसरा क़िबले की दिशा में और तीसरा प्रांग व वज़ूख़ाने की ओर खुलता है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत और फिर क़ैद कर लिए जाने के बाद जब रिहाई मिली तो हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहसा अधिक समय जीवित नहीं रहीं। जो दुख और पीड़ा हज़रत ज़ैनब ने सहन की वह एसी नहीं थी जिसे सहन किया जा सकता हो। महशूर विचार यही है कि सन 62 हिजरी क़मरी में वह इस दुनिया से चली गईं। हज़रत ज़ैनब की क़ब्र के बारे में अलग अलग विचार हैं।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि इमाम हुसैन अलैहिस्स्लाम की शहादत के बाद मदीना नगर में हज़रत ज़ैनब की उपस्थिति से लोगों में जहां दुख व दर्द था वहीं लोगों में यज़ीद के विरुद्ध विद्रोह की भावना फैल रही थी। इसी लिए मदीना के गवर्नर ने यज़ीद को पत्र लिखा कि और मदीने की स्थिति तथा लोगों की भावनाओं के उत्तेजित होने और हज़रत ज़ैनब के अस्तित्व के प्रभाव को बताया। यज़ीद ने जवाब में ख़त लिखा कि हज़रत ज़ैनब को मदीना से बाहर निकाल दिया जाए। इसीलिए हज़रत ज़ैनब मिस्र की ओर रवाना हो गईं जहां पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से श्रद्धा रखने वाले लोग अधिक संख्या में थे। मिस्र में सन 62 हिजरी क़मरी के रजब महीने में हज़रत ज़ैनब इस दुनिया से सिधार गईं। इस मत के अनुसार हज़रत ज़ैनब को उसी स्थान पर दफ़्न किया गया जहां आज मस्जिदे सैयद ज़ैनब है।

मस्जिद के निर्माण के बारे में इतिहासकारों का कहना है कि सन 85 हिजरी क़मरी में हज़रत ज़ैनब की क़ब्र पर पहली मस्जिद बनाई गई। छठीं शताब्दी हिजरी में क़ाहेरा के शासक फ़ख़रुद्दीन सअलब जाफ़री ने इस मस्जिद को और भी भव्य इमारत में बदल दिया। दसवीं शताब्दी हिजरी में सुलतान सलीम क़ानूनी के शासन काल में जो दसवें उसमानी बादशाह थे मिस्र के गवर्नर ने इस मस्जिद की मरम्मत करवाई। इसके बाद वर्ष 1174 हिजरी क़मरी में मिस्र के एक शासक अब्दुर्रहमान कदख़ुदा ने इस मस्जिद सहित कई ज़ियारतगाहों की मरम्मत और विस्तार का काम करवाया। वर्ष 1210 हिजरी क़मरी में मस्जिद के भीतर क़ब्र के ऊपर रखी हुई ज़रीह को बदला गया और वहां तांबे की ज़रीह लगाई गई।

वर्ष 1294 हिजरी क़मरी में गुंबद के सामने वाले दरवाज़े को मुहम्मद तौफ़ीक़ पाशा ने मिस्री व इस्तांबूली संगेमरमर से सजाया। तीन साल बाद उस समय के शासक ने गुंबद, मस्जिद और मीनार का पुनरनिर्माण करवाया। यह निर्माण कार्य वर्ष 1320 हिजरी क़मरी में पूरा हुआ। अलबत्ता जैसाकि हमने पहले भी बताया। हज़रत ज़ैनब की क़ब्र के बारे में अलग अलग विचार हैं। मशहूर विचार यही है कि उनकी क़ब्र सीरिया के दमिश्क़ शहर के दक्षिण में स्थित है। एक और विचार यह है कि हज़रत ज़ैनब को मदीना के बक़ीअ नामक क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया गया। बहरहाल यह बात महत्वपूर्ण है कि यह जगहें पवित्र धार्मिक स्थल हैं जहां ईश्वर की उपासना होती है। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से श्रद्धा रखने वाले इन स्थानों से गहरा हार्दिक लगाव रखते हैं। वहां जाकर पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनके मार्ग पर चलने की प्रतिबद्धता को दोहराते हैं। महान धर्म गुरू मुहम्मद बहरुल उलूम अपनी पुस्तक फ़ी रेहाबिस्सैयदा ज़ैनब लिखते हैं कि इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हज़रत ज़ैनब ने मिस्र की यात्रा की या दमिश्क़ की ओर गईं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता की सूर्य कहां अस्त हुआ है। महत्वपूर्ण यह है कि इस सूर्य की रोश्नी कभी समाप्त नहीं होती। विचारों के क्षितिज पर यह प्रकाश आज भी फैला हुआ है। हज़रत ज़ैनब के जो कथन और भाषण मौजूद हैं वह बनी उमैया ही नहीं हर असत्यवादी शक्ति को भयभीत करने वाले हैं। यह आवाज़ पूरी धरती पर फैली हुई है इसको कोई दबा नहीं सकता। हज़रत ज़ैनब ने खुद यज़ीद से कहा था कि क़सम उस ईश्वर की जिसने हमें क़ुरआन और पैग़म्बरी के गौरव से सम्मानित किया तू जो भी चाहे कर ले हमारा नामोनिशान और हमारी याद को तू दुनिया से मिटा नहीं सकता और इस कलंक को अपने दामन से साफ़ नहीं कर सकता। यज़ीद जान ले कि तेरी चिंतन शक्ति कमज़ोर, तेरे दिन बहुत कम और तेरे आसपास एकत्रित भीड़ बिखरने वाली है।