Mar १२, २०१८ १७:१३ Asia/Kolkata

हमने कहा था कि मस्जिद मुसलमानों के एकत्रित होने के स्थान के अलावा उनकी एकता व एकजुटता के प्रतिबिंबित होने का स्थल है।

              

मुसलमानों के मध्य जो एकता है वह हर समाज के स्वास्थ्य, उसकी सुरक्षा और बका के लिए बुनियादी बिन्दु है। मस्जिद वह स्थल है जहां सभी एकत्रित होते हैं चाहे वह पुरुष हो या महिला, बच्चा हो या बच्ची और इसी प्रकार मस्जिद में विभिन्न प्रकार की शैलियों व पद्धतियों के लोग एकत्रित होते हैं।

 

मस्जिद एकता व एकजुटता और इसी प्रकार मुसलमानों के एक दूसरे से प्रेम करने और समरसता का स्थल है विशेषकर उन मुसलमानों के लिए जो नियमित रूप से प्रतिदिन और शुक्रवार की नमाज़ों में वुज़ू आदि विशेष शिष्टाचार के साथ भाग लेते हैं और जाने- अनजाने रूप में उनकी धार्मिक प्रशिक्षा होती है और व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में उसके प्रभावों को भली-भांति देखा जा सकता है। स्वीट्ज़रलैंड के इस्लामी विद्वान, राजनेता और लेखक मार्सेल बायोसेर्ड कहते हैं” मस्जिद इस्लामी जगत में एकता और मुसलमानों की समरसता का महत्वपूर्ण केन्द्र है और इस दृष्टि से उसके सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती विशेषकर वर्तमान समय में कि जब मुसलमानों के अंदर वह भावना पैदा होती जा रही है जो इस्लाम के आरंभिक काल में मुसलमानों के अंदर थी। मस्जिदें आध्यात्मिक प्रशिक्षण और अत्याचारियों व वर्चस्ववादियों के विरुद्ध आंदोलन के केन्द्र में परिवर्तित हो गयी हैं। धीरे- धीरे मस्जिदों ने उस स्थान व स्थिति को प्राप्त कर लिया है जो इस्लाम के उदय काल में थी। मस्जिदों के अंदर पुस्तकालयों को बनाना और एकत्रित होने के हालों के निर्माण से यह वास्तविकता स्पष्ट होती है कि इस्लाम में मस्जिद केवल नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं होती है जैसाकि कुछ सोचते हैं और निश्चित रूप से मस्जिद इस्लाम का एक राजनीतिक और सांस्कृतिक केन्द्र व मंच भी है। जुमे की नमाज़ का आयोजन छुट्टी के दिन मुसलमानों की महत्वपूर्ण समस्याओं व मामलों के बारे में चर्चा करने का एक साधन है। इन वर्षों में लोगों में राजनीतिक मतभेद के बावजूद अत्याचारी सरकारों के खिलाफ मुसलमान एकजुट हुए और इन्हीं मस्जिदों में एकत्रित होकर उन्होंने अत्याचारी सरकारों के विरुद्ध प्रतिरोध व आंदोलन का कार्यक्रम बनाया जिससे पश्चिमी साम्राज्य की कठपुतली सरकारों के स्तंभ हिल गये और यह वह काम है जिसे पश्चिम में राजनीतिक विरोधी पार्टियां और गुट अब तक नहीं कर सके हैं।“

इसी आधार पर महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम को उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ने यहां तक उसमें उपस्थित होने से भी मना किया है जिससे इस्लामी समाज की एकता को नुकसान पहुंचे। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम इस प्रकार के स्थान पर न केवल उपस्थित नहीं हुए बल्कि उसे तोड़ने करने और उसमें आग लगाने का आदेश दिया। जैसाकि मिथ्याचारियों ने मस्जिदे क़ोबा से मुकाबले के लिए ज़ेरार नाम की मस्जिद का निर्माण किया ताकि वहां एकत्रित होकर इस्लाम के विरुद्ध षडयंत्र रच सकें। मिथ्याचारियों ने तबूक नामक युद्ध में रवाना होने से पहले इस मस्जिद के निर्माण का आदेश पैग़म्बरे इस्लाम से मांगा था और पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा था कि तबूक युद्ध से वापस आने के बाद वह इस संबंध में अंतिम फैसला लेंगे परंतु मिथ्याचारियों ने पैग़म्बरे इस्लाम की अनुस्थिति में ही मस्जिद का निर्माण कर दिया और जब पैग़म्बरे इस्लाम तबूक युद्ध से मदीना  लौट रहे थे तो मिथ्याचारियों ने उनसे कहा कि इस मस्जिद में नमाज़ पढ़कर इसका उद्घाटन कर दें परंतु महान ईश्वर ने वहि अर्थात संदेश भेजकर पैग़म्बरे इस्लाम को मिथ्याचारियों के षडयंत्र से अवगत करा दिया और पैग़म्बरे इस्लाम को ज्ञात हो गया कि इस मस्जिद का निर्माण मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लिए किया गया है। इस आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम ने मस्जिदे ज़ेरार को गिराने का आदेश दिया और कहा कि इस मस्जिद को कूड़ादान बना दें और इसके लकड़ी के जो स्तंभ हैं उसे जला दें।

 

मस्जिदे ज़ेरार के गिरा व जला देने से हर काल के समस्त मुसलमानों को यह संदेश जाता है कि मुसलमानों के मध्य एकता बहुत महत्वपूर्ण है यहां तक कि अगर मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लक्ष्य से एक मस्जिद के निकट दूसरी मस्जिद का निर्माण भी कर दिया जाये तो वह मस्जिद पवित्र नहीं है।

शीया मज़हब के प्रमुख के रूप में हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम मुसलमानों के मध्य एकता की सुरक्षा के लिए अपने समस्त शीयों से फरमाते हैं कि जो अपने सुन्नी भाइयों की नमाज़ में हाज़िर हो और नमाज़ की पहली पंक्ति में खड़ा हो तो वह उस व्यक्ति की भांति है जो तलवार न्याम से निकाले हो और ईश्वर के मार्ग में धर्मयुद्ध करने के लिए है। अलबत्ता इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम के कहने का उद्देश्य स्पष्ट है। क्योंकि मुसलमानों के मध्य एकता और उसका प्रदर्शन पैग़म्बरे इस्लाम की हार्दिक आकांक्षा है और उसका महत्व ईश्वर की राह में दुश्मनों से जेहाद करने से कम नहीं है।

जो मस्जिद मुसलमानों के मध्य एकता में जितनी प्रभावी हो उसका महत्व महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के निकट उतना ही अधिक है। एक मस्जिद में विभिन्न संप्रदाय के लोगों का एकत्रित होना भी इस बात का सूचक है कि आस्था व ग़ैर आस्था संबंधी मतभेद मुसलमानों के मध्य फूट न डाल सके। अतः मस्जिद का एक काम इस्लामी समाज में एकता व एकजुटता को मज़बूत करना है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने वाले मुसलमानों को चाहिये कि वे एक दूसरे से समरसता के अलावा अपने दिलों से द्वेष को स्वच्छ बनायें और अपने मध्य एकता व एकजुटता का प्रदर्शन दुश्मनों के लिए करें।

 

क़ीरवान की जामेअ मस्जिद ट्यूनीशिया में स्थित है। क़ीरवान की जामेअ मस्जिद को मस्जिदे उक़्बा भी कहते हैं। इस मस्जिद का निर्माण मोआविया के एक कमांडर उक्बा बिन नाफी ने करवाया था। उसी ने टयूनीशिया के क़ीरवान शहर की बुनियाद रखी थी। उक्बा जामेअ मस्जिद 9000 वर्गमीटर पर बनी हुई है और इसका निर्माण वर्ष 50 हिजरी क़मरी में हुआ था।

मस्जिदे उक्बा या कीरवान की जामेअ मस्जिद को इस्लामी जगत के पश्चिम में उपासना का एक प्राचीन स्थल समझा जाता है। चूंकि अफ्रीक़ा महाद्वीप में सबसे पहले अज़ान इसी मस्जिद से दी गयी थी इसलिए इस्लामी इतिहास में इसका विशेष स्थान है। आरंभ में यह मस्जिद बहुत छोटी थी परंतु समय बीतने के साथ- साथ इस मस्जिद को विस्तृत व बड़ा किया गया और उसे सुसज्जित किया गया। मस्जिद का विदित रूप इस प्रकार है कि हर देखने वाला यह समझता है कि उसके चारों ओर मज़बूत दुर्ग है जो उसकी रक्षा कर रहा है।

क़ीरवान की जामेअ मस्जिद में 5 गुंबद और 9 प्रवेश द्वार हैं जिसके 6 दरवाज़े मस्जिद के प्रांगण की ओर खुलते हैं जबकि दो दरवाज़े अस्ली दालान की ओर और एक दरवाज़ा मक़सूरा की ओर खुलता है। मक़सूरा मेहराब के निकट एक बंद स्थान था जिसे ख़लीफा के सम्मान और  उसकी जान की सुरक्षा के लिए बनाया गया था। मकसूरा के अंदर रहने वाला व्यक्ति नमाज़ियों से अलग रहकर उन्हें देख और उनके साथ नमाज़े जमाअत भी पढ़ सकता है। मकसूरा की जो इमारत है वह नमाज़ियों और खलीफा व शासक के मध्य कमज़ोर संबंध की सूचक है। मोआविया पहला व्यक्ति था जिसने दमिश्क की जामेअ मस्जिद में अपनी जान की सुरक्षा के लिए मकसूरा का निर्माण करवाया था।  

 

क़ीरवान जामेअ मस्जिद की दीवार पत्थर और ईंट की बनी है। मस्जिद का गुलदस्ता या जहां से अज़ान दी जाती थी बहुत ही सुन्दर है। इस गुलदस्ते की अपनी विशेषताएं हैं इस प्रकार से कि यह तीन मंज़िला है और हर मंज़िल का निर्माण वर्गाकार रूप में किया गया है। गुलदस्ते की दूसरी मंजिल पहली मंजिल से छोटी है और तीसरी, दूसरी मंज़िल से छोटी है। कहा जाता है कि इस मीनार का निर्माण एक बार में नहीं किया गया है। उसका पहला भाग बहुत मज़बूत है और उसका निर्माण हेशाम बिन अब्दुल मलिक के काल में हुआ था जबकि दूसरे और तीसरे भाग का निर्माण बाद में किया गया। उसकी वास्तुकला इस प्रकार की है कि उसके निचले भाग को मज़बूत बनाया गया है ताकि वह उपरी भाग की रक्षा कर सके और उसके वज़न को सहन कर सके।

कीरवान की जामेअ मस्जिद में पांच गुंबद हैं। इस मस्जिद के मेहराब के उपर जो गुंबद है वह अफ्रीकी देशों में बने गुंबदों में सबसे पुराना गुंबद है।

 

मस्जिद का जो मिम्बर है उसका संबंध नवीं शताब्दी से है और उसकी गणना इस्लामी जगत के प्राचीन मिम्बरों में होती है और इसे मस्जिद का महत्वपूर्ण भाग समझा जाता है। मिम्बर में 11 सीढ़ियां हैं और उसमें दो शिलालेख भी हैं जिसे ज्योमितीय आकार के बेल- बूटों से सुसज्जित किया गया है। टाइल्स का जो शिलालेख है उसने मस्जिद के मेहराब के एक भाग को ढक रखा है और वह इस बात का सूचक है कि उस काल में ट्यूनीशिया में टाइल्स बनाने का काम होता था। मस्जिद के प्रांगण को अच्छे, सुन्दर व पतले पत्थरों से सुसज्जित किया गया है और उसके केन्द्र में छेद है। यह छेद इस बात का कारण बनता है कि धूल मिट्टी और बरसात के पानी प्रांगण के फर्श में प्रवेश न कर सकें।

मस्जिद की सुन्दरता और उसकी भव्यता का संबंध उसकी सादगी से है। तामझाम के बिना मस्जिद की सादी सजावट और मस्जिद के गुलस्तों और दरवाज़ों ने इसे इस्लामी वास्तुकला का एक जलवा प्रदान कर दिया है।